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Friday, 30 May 2025

Vaishnavbi

 

कामकलाकाली

कामकलाकाली

कामकलाकाली का वर्णन महाकालसंहिता के कामकलाखण्ड में किया गया है । ग्रन्थ का प्रारम्भ २४१ वें पटल से होता है तथा इसकी अन्तिम पटलसंख्या २५५ है । पन्द्रह पटलों में कामकलाखण्ड नामक सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है।

कामकलाकाली

कामकलाकाली तंत्र

कामकलाकाली खण्ड पटल 1

कामकलाकाली खण्ड पटल 2

कामकलाकाली खण्ड पटल 3

कामकलाकाली खण्ड पटल 4

कामकलाकाली खण्ड पटल 5

कामकलाकाली खण्ड पटल 6

भाग 1 भाग 2

कामकलाकाली खण्ड पटल 7

भाग 1 भाग 2

कामकलाकाली खण्ड पटल 8

भाग 1 भाग 2  भाग 3 भाग 4

कामकलाकाली खण्ड पटल 9

कामकलाकाली खण्ड पटल 10

भाग 1 भाग 2

कामकलाकाली खण्ड पटल 11

कामकलाकाली खण्ड पटल 12

भाग 1 भाग 2

कामकलाकाली खण्ड पटल 13

कामकलाकाली खण्ड पटल 14

कामकलाकाली खण्ड पटल 15

भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 

कामकलाकाली महाकालसंहिता कामकलाखण्ड

परापर परेशान शशांककृतशेखर ।

योगाधियोगिन्सर्वज्ञ सर्वभूतदयापर ।।

२४१ वें पटल में सर्वप्रथम गणेश तथा परदेवता को नमस्कार किया गया है।

अन्य तन्त्रों के सदृश इस संहिता में भी प्रश्नकर्ता देवी है तथा उत्तर स्वयं महाकाल देते हैं । देवी प्रार्थना करती है कि-

तारा च छिन्नमस्ता च तथा त्रिपुरसुन्दरी ।

बाला च बगला चापि त्रिपुरा भैरवी तथा ।।

काली दक्षिणकाली च कुब्जिका शवरेश्वरी ।

अघोरा राजमातंगी सिद्धिलक्ष्मीररुंधती ।।

अश्वारूढा भोगवती नित्यक्लिन्ना व कुक्कुटी ।

कौमारी चापि वाराही चामुण्डा चण्डिकापि च ।।

भुवनेशी तथोछिष्ट चाण्डाली चण्डघण्टिका ।

कालसंकर्षणी चापि गुह्यकाली तथापरा ।।

एताश्चान्याश्च वै देव्यः समन्त्रा: कथितास्त्वया ।

किन्तु कामकलाकाली नोक्तवानसि मे प्रभो ।।

तत्ति मय्यपि गोप्यन्ते प्रायशः परमेश्वर ।

 (1) तारा (२) छिन्नमस्ता (३) त्रिपुरसुन्दरी (४) बाला (५) बगला (६) त्रिपुरभैरवी (७) काली (4) दक्षिणकाली (8) कुब्जिका (१०) शवरेश्वरि (११) अघोरा (१२) राजमातङ्गी (१३) सिद्धिलक्ष्मी (१४) अरुन्धती (१५) अश्वारुढ़ा (१६) भोगवती (१७) नित्यक्लिन्ना (१८) कुक्कुटी (१९) कौमारी (२०) वाराही (२१) चामुण्डा (२२) चण्डिका (२३) भुवनेशी (२४) उच्छिष्टचाण्डाली (२५) चण्डघंटिका (२६) कालसंकर्षिणी तथा (२७) गुह्यकाली।

प्रभृति देवियों की पूजा तथा मन्त्र का रहस्य उद्घाटित व  उल्लिखित हुए हैं किन्तु कामकलाकाली के सम्बन्ध में पहले कुछ भी नहीं कहा गया है। इस कामकलाकाली का मन्त्रध्यानरहस्य तभा कवच सुनने के लिए देवी प्रार्थना करती है। महाकाल प्रसन्न होकर उत्तर देते हैं कि कामकलाकाली के उपासक अधोनिर्दिष्ट व्यक्तिगण है-

(१) इन्द्र (२) वरुण (३) कुबेर (४) ब्रह्मा (५) महाकाल स्वयं (६) बाण (७) रावण (८) यम (२) चन्द्र (१०) विष्णु तथा (११) महर्षिगण।

कामकला की उपासना का फल विद्यालक्ष्मीमोक्षलक्ष्मी तथा राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति है । धनलाभयशोलाभकान्तालाभअष्टसिद्धिवशीकरणस्तम्भनआकर्षणद्रावणग्रहों का स्तम्भनअनल एवं अनिल का स्तम्भनधारास्तम्भनशत्रुओं के शैन्यों का स्तम्भन तया वाक् स्तम्भन आदि कामकलाकाली की उपासना के फल प्रनिहित है।

बहुत भाग्योदय होने पर इस विद्या की प्राप्ति होती है। प्राणदान तथा इस विद्या के दान को तुला में रखने पर इस विद्या का ही महत्व अधिक होता हैं। सर्वस्व दान करने पर भी गुरु की पादवन्दना करके इस विद्या की उपलब्धि कर लेनी चाहिए।

काली के १२ एवं ९ भेद है ।

काली नवविधा प्रोक्ता सर्वतन्त्रेषु गोपिता ।

यथा त्रिभेदा तारा स्यात् सुन्दरी सप्तसप्ततिः ॥

॥ कामकलाकाली- नवकाली ॥

(१) दक्षिणकाली, (२) भद्रकाली (३) श्मशानकाली (४) कालकाली (५) गुह्यकाली (६) कामकलाकाली (७) धनकाली (८) सिद्धिकाली (९) चण्डकाली ।

नवविध कालियों का वर्णन भिन्न भिन्न तंत्रों में तथा डामरों में किया गया है। दक्षिणकाली के संबन्ध में महाकालसंहिता में ही कहा गया है एवं भद्रकाली का भी ध्यान तथा पूजन यहाँ वर्णित है । श्मशानकाली के नाना भेद डामरों में एवं कालकाली विषयक मन्त्र भीमातन्त्र में बताये गये है। गुह्यकाली के विषय में भी इस तन्त्र में वर्णन मिलता है।

गुह्यकाली तथा कामकलाकाली अभिन्न हैं ।

महाकालसंहिता में महाकाल कहते है-

या गुह्यकाली सैवेयं काली कामकलाभिधा ।

मंत्रभेदाद् ध्यानभेदाद् भवेत् कामकलात्मिका ॥

मन्त्रध्यान तथा प्रयोगों के भेद से इन दोनों में भिन्नता पाई जाती है। जैसे तारा के तीन भेदसुन्दरी के सतहत्तर भेद तथा दक्षिणा के पाँच भेद होते हैंउसी तरह गुह्यकाली भी ध्यान तथा मन्त्र के भेद से सात प्रकार की हैं।

विभिन्न देवीमन्त्रों की मन्त्र-संख्या।।

दक्षिणाकाली का मन्त्र २२ वर्ण युक्त है। देवी एकजटा का मन्त्र ५ वर्ण युक्त हैतथा कामकलाकाली के मन्त्र में १८ वर्ण विद्यमान हैं। जिन नव कालियों की चर्चा पहले हुई है उनमें काम कला काली मुख्यतया है । इसके समर्थन में महाकाल कहते हैं-

'षोडशार्ण यथा मुख्या सर्वश्रीचक्रमध्यगा ।

तथेयं नवकालीषु सदा मुख्यतमा स्मृता'

२४२वें पटल में मन्त्रोद्धार वर्णित हैं। पाँच श्लोकों में देवी के मन्त्रों का उद्धार है । इस मन्त्र के आदि में भूतबीज तथा अन्त में स्वाहा है । कामकला काली के सात मन्त्रों में १८ वर्ण युक्त मन्त्र ही मुख्य है। इस मन्त्र का ऋषि महाकाल हैछन्द बृहती हैबीज आद्यबीज हैशक्ति क्रोधवर्ण है तथा विनियोग सर्वसिद्धि है । इस मन्त्र का नाम त्रैयलोक्याकर्षण है।

कामकलाकाली त्रैलोक्यार्षण मन्त्र विनियोगः-

अस्य श्री कामकलाकालि त्रैलोक्यार्षण मन्त्रस्य महाकाल ऋषिःबृहती छन्दःकामकलाकालि देवताक्लीं बीजं हूँ शक्तिःसर्वार्थसिद्धये जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास :-

क्लीं का हृदयाय नमः ।

क्रीं म शिरसे स्वाहा ।

हूं क शिखायै वषट् ।

क्रों ला नेत्रत्रयाय वौषट् ।

स्फ्रों का कवचाय हुं ।

ली कामकलाकाली अस्त्राय फट् ।

॥ अथ कामकलाकाली त्रैलोक्यार्षण मन्त्रः ॥

मन्त्र – क्लीं क्रीं हूं क्रों स्फ्रें (स्फ्रों) कामकलाकालि स्फ्रें (स्फ्रों) क्रों हूं क्रीं क्लीं स्वाहा ॥

कामकलाकाली का ध्यान

॥ अथ कामकलाकाली ध्यानम् महाकालसंहिता कामकलाखण्ड ॥

उद्यद्घनाघनाश्लिष्यज्जवा कुसुम सन्निभाम् । 

मत्तकोकिलनेत्राभां पक्वजम्बूफलप्रभाम् ॥ १ ॥

यह देवी उगते हुए (सूर्य के साथ संश्लिष्ट रक्तवर्ण वाले) बादल के समानसघन परस्पर संश्लिष्ट जवाकुसुम के समानमत्त कोकिल के नेत्र के समानपके हुए जामुन के फल की कान्तिवाली है ।

सुदीर्घप्रपदालम्बि विस्रस्तघनमूर्द्धाजाम् ।

ज्वलदङ्गार वच्छोण नेत्रत्रितयभूषिताम् ॥ २ ॥

इसके बाल लम्बेपैरों तक लटकने वाले बिखरे हुए तथा सघन हैं । जलते हुए अङ्गार के समान लाल रंग के तीन नेत्रों से यह विभूषित है ।

उद्यच्छारदसंपूर्णचन्द्रकोकनदाननाम् ।

दीर्घदंष्ट्रायुगोदञ्चद् विकराल मुखाम्बुजाम् ॥  

इसका मुख उगते हुए शारदीय पूर्णचन्द्र तथा लाल कमल के समान है । दो लम्बे दाँत बाहर ऊपर की ओर निकलने से विकराल मुखकमल वाली बतलायी गयी हैं ।

वितस्तिमात्र निष्क्रान्त ललज्जिह्वा भयानकाम् ।

व्यात्ताननतया दृश्यद्वात्रिंशद् दन्तमण्डलाम् ॥ ४ ॥

एक बीत्ता बाहर निकली हुई लपलपाती जीभ के कारण यह भयानक है । मुख के खोल देने के कारण बत्तीसो दाँत दिखलायी दे रहे हैं ।

निरन्तरम् वेपमानोत्तमाङ्गा घोररूपिणीम् । 

अंसासक्तनृमुण्डासृक् पिबन्ती वक़कन्धराम् ॥ ५ ॥

इसका शिर निरन्तर काँप रहा है अतएव घोर रूप वाली है । गले में लटके हुए नरमुण्ड से निकलने वाले रक्त को पीती हुई अतएव वक्रकन्धे वाली कही गयी हैं ।

सृक् कद्वन्द्वस्रवद्रक्त स्नापितोरोजयुग्मकाम् ।

उरोजा भोग संसक्त संपतद्रुधिरोच्चयाम् ॥  

इसके दोनों स्तन दोनों जबड़ों से स्रवित होने वाले रक्त से उपलिप्त हैं । उसके विस्तृत स्तनों से लिपट कर रक्त की धारा गिर रही है ।

सशीत्कृतिधयन्तीं तल्लेलिहानरसज्ञया ।

ललाटे घननारासृग् विहितारुणचित्रकाम् ॥  

उस रक्त को लेलिहान जिह्वा से सीत्कार के साथ वह पी रही है । ललाट पर मनुष्य के सघन रक्त से लालरंग का चित्र बनायी हुई हैं ।

सद्यश्छिन्नगलद्रक्त नृमुण्डकृतकुण्डलाम् ।

श्रुतिनद्धकचालम्बिवतंसलसदंसकाम ॥  

तत्काल कटे हुए अतएव गिरते हुए रक्त वाले नरमुण्ड का उसने कुण्डल धारण किया है । कानों में बँधे हुए बालों से लटकने वाला अवतंस (अंगूठी के आकार वाला कर्णाभूषण) कन्धे तक लटक रहा है ।

स्रवदस्रौघया शश्वन्मानव्या मुण्डमालया ।

आकण्ठ गुल्फलंबिन्यालङ्कृतां केशबद्धया ॥ ९ ॥

(शिर के) बालों से परस्पर बँधे हुए नरमुण्डों की मालाजिससे कि निरन्तर रक्त टपक रहा हैकण्ठ से लेकर गुल्फ तक लटक रही है । इस माला से वे अलङ्कृत हैं ।

श्वेतास्थि गुलिका हारग्रैवेयकमहोज्ज्वलाम् ।

शवदीर्घाङ्गुली पंक्तिमण्डितोरः स्थलस्थिराम् ॥१०॥  

श्वेतवर्ण की हड्डी की गोली से बने हुए हार एवं ग्रैवेयक (धारण करने के कारण वे) अत्यन्त उज्ज्वल हैं । शव की लम्बी अङ्गुलियों की माला से उनका दृढ़ उरस्थल अलङ्कृत है ।

कठोर पीवरोत्तुङ्ग वक्षोज युगलान्विताम् ।

महामारकतग्राववेदि श्रोणि परिष्कृताम् ॥११॥

वे कठोर विशाल और ऊँचे दो स्तनों वाली हैं । इनके उत्तम नितम्ब महा मरकत पत्थर से निर्मित वेदी के समान (चिकनेकठोर और समतल) हैं ।

विशाल जघना भोगामतिक्षीण कटिस्थलाम् ।

अंत्रनद्धार्भक शिरोवलत्किङ्किणि मण्डिताम् ॥१२॥  

उनके जघन का विस्तार अत्यधिक है और कटि अत्यन्त क्षीण है । आँतों से बँधे हुए बच्चों के शिररूपी किङ्किणी (करधनी) से वे मण्डित हैं ।

सुपीनषोडश भुजां महाशङ्खाञ्चदङ्गकाम् ।

शवानां धमनीपुञ्जैर्वेष्टितैः कृतकङ्कणाम् ॥१३॥  

वे लम्बी सोलह भुजा वाली हैं । मनुष्य के कपाल उनके अङ्गों में शोभामान है । शवों की धमनियों को हाथ में लपेट कर कङ्कण बना लिया है ।

ग्रथितैः शवकेशस्रग्दामभिः कटिसृत्रिणीम् ।

शवपोतकरश्रेणी ग्रथनैः कृतमेखलाम् ॥१४ ॥

शव के गुँथे बालों की रस्सी से उनका कटिसूत्र रचा गया है । मृत शिशु के हाथों को गूंथ कर उन्होंने करधनी बनायी है ।

शोभामानांगुलीं मांसमेदोमज्जांगुलीयकैः ।

असिं त्रिशूलं चक्रं च शरमंकुशमेव च ॥१५ ॥

लालनं च तथा कर्त्रीमक्षमालां च दक्षिणे ।

पाशं च परशुं नागं चापं मुद्गरमेव च ॥१६॥  

शिवापोतं खर्परं च वसासृङ्मेदसान्वितम् ।

लम्बत्कचं नृमुण्डं च धारयन्तीं स्ववामतः ॥१७॥

अङ्गुलियों में मांसमेदामज्जा की अङ्गुठियाँ पहन रखी हैं । (वे अपने) दायें हाथों में खड्गत्रिशूलचक्रबाणअङ्कुशलालन (=मूषक की आकृतिवाला विषधर जन्तु)कैंची और अक्षमाला तथा अपने बायें हाथों में पाशपरशुनागधनुषमुद्गरसियार का बच्चा तथा वसा रक्त और मेदा से भरा कपाल ली हुई हैं।

विलसन्नूपुरां देवीं ग्रथितैः शवपञ्जरैः ।

श्मशान प्रज्वलद् घोरचिताग्निज्वाल मध्यगाम् ॥१८॥  

अधोमुख महादीर्घ प्रसुप्त शवपृष्ठगाम् ।

वमन्मुखानल ज्वालाजाल व्याप्त दिगन्तरम् ॥१९॥

गूंथे हुए शवपञ्जरों के नूपुर से शोभायमान हैं । श्मशान में जलती हुई घोर चिताग्नि की ज्वाला के मध्य में स्थितऔंधे मुँह सोये हुए विशाल शव की पीठ पर खड़ी हैं । उनके मुख से उगली हुई अग्नि की ज्वालायें दिग् दिगन्तर में फैली हुई हैं।

प्रोत्थायैव हि तिष्ठन्तीं प्रत्यालीढ पदक्रमाम् ।

वामदक्षिण संस्थाभ्या नदन्तीभ्यां मुहुर्मुहुः ॥२०॥

शिवाभ्यां घोररूपाभ्यां वमन्तीभ्यां महानलम् ।

विद्युङ्गार वर्णाभ्यां वेष्टितां परमेश्वरीम् ॥२१॥  

एक पैर पर खड़ी होकर दूसरे को उठाकर आगे रखने की स्थिति में वर्तमान हैं । उनके बायें और दायें भयङ्कर रूपों वाली दो सियारिने खड़ी हैं जो अपने मुख से आग उगल रही हैं । विद्युत और अङ्गार के वर्ण वाली ये दोनों सियारिने कामकलाकाली को घेरे हुए हैं ।

सर्वदैवानुलग्नाभ्यां पश्यन्तीभ्यां महेश्वरीम् ।

अतीव भाषमाणाभ्यां शिवाभ्यां शोभितां मुहुः ॥२२॥

कपालसंस्थं मस्तिष्कं ददतीं च तयोर्द्वयोः ।

दिगम्बरां मुक्तकेशीमट्टहासां भयानकाम् ॥२३॥  

वे सदा उनके सन्निकट रहकर उनको देखती रहती हैं । वह देवी कपाल में स्थित मस्तिष्क को उन दोनों को देती रहती हैं और वे शिवायें उसको निरन्तर खाती रहती हैं । यह देवी नग्नखुले बालों वालीअट्टहास करती हुई और भयानक हैं ।

सप्तधानद्धनारान्त्रयोगपट्ट विभूषिताम् ।

संहारभैरवेणैव सार्द्धं संभोगमिच्छतीम् ॥२४॥

सात बार ग्रथित नर की आँत के योगपट्ट से विभूषित हैं । वह काली संहारभैरव के साथ निरन्तर सम्भोग चाहती हैं ।

अतिकामातुरां कालीं हसन्तीं खर्वविग्रहाम् ।

कोटि कालानल ज्वालान्यक्कारोद्यत् कलेवरम् ॥२५॥  

महाप्रलय कोट्यर्क्क विद्युदर्बुद सन्निभाम् ।

अत्यन्त कामातुर वह नाटे कद की हैं तथा हँसती रहती हैं । उनका शरीर करोड़ों कालानल को तिरस्कृत करने वाला है तथा महाप्रलय के समय दीप्यमान करोड़ों सूर्य और अरबों विद्युत् के समान है ।

कल्पान्तकारणीं कालीं महाभैरवरूपिणीम् ॥२६॥

महाभीमां दुर्निरीक्ष्यां सेन्द्रैरपि सुरासुरैः ।

शत्रुपक्षक्षयकरीं दैत्यदानवसूदनीम् ॥

चिन्तयेदीदृशीं देवीं काली कामकलाभिधाम् ॥२७॥

यह काली कल्प का अन्त करने वालीमहाभैरवरूपिणीमहाभयङ्करीइन्द्र के सहित सुरों और असुरों के द्वारा दुर्निरीक्ष्य हैं । शत्रुपक्ष का नाश करने वालीदैत्यदानव का संहार करने वाली कामकला नामक काली का ध्यान करना चाहिये ।

कामकलाकाली साधना

अथ कामकलाकाली साधना मन्त्र 

मरीचिसमुपासिताया सप्तदशाक्षर मन्त्रः

ओं ऐं ह्रीं श्रीं क्रीं क्लीं हूं छ्रीं स्त्रीं फ्रें क्रों हौं क्षौं आं स्फ्रों स्वाहा ।

कपिलोपास्याया षोडशाक्षर मन्त्रः

ह्रीं फ्रें क्रों ग्लूं छ्रीं स्त्रीं हूं स्फ्रों खफ्रें हसफ्रीं हसखफ्रें क्ष्रौं स्हौः फट् स्वाहा ॥

हिरण्याक्षोपासिताया नवाक्षर मन्त्रः

खफ्रें रह्रीं रज्रीं रक्रीं रक्ष्रीं रछ्रीं रफ्रीं हसखफ्रीं फट् ।

लवणोपास्या दशाक्षर मन्त्रः

ह्रीं खफ्रें हूं स्फ्रों क्लीं छ्रीं स्त्रीं फ्रें स्वाहा ।

वैवस्वतोपास्या पञ्चदशाक्षर मन्त्रः

हूं फट् फ्रें कामकलाकालिकायै नमः स्वाहा ।

दत्तात्रेयोपास्या नवाक्षर मन्त्रः

ओं ऐं छ्रीं फ्रें क्लीं स्त्रीं स्फ्रों हूँ ह्रीं ।

दुर्वासा उपास्याया पञ्चाक्षर मन्त्रः

क्रों स्फ्रों फ्रें ख्फ्रें स्फ्रों ।

उत्तङ्कौपास्या चतुर्दशाक्षर मन्त्रः

ऐं ओं फ्रें खफ्रें हसफ्रीं हसखफ्रें ह्रीं श्रीं क्लीं छ्रीं स्त्रीं हूं नमः ।

कौशिकोपास्याया सप्तदशाक्षर मन्त्रः

क्षुस्रां ह्रीं फ्रें नमः विकरालायै क्लीं ख्फ्रें स्फ्रों नमः हूं स्वाहा ।

और्वोपास्या मन्त्रः

ह्रीं छ्रीं हूं स्त्रीं फ्रें भगवत्यै कामकलाकालिकायै ओं ऐं क्रों क्रीं श्रीं क्लीं स्फ्रों स्फ्रों फट् फट् स्वाहा ।

पाराशरोपासितायाः पञ्चाक्षर मन्त्रः

छ्रीं स्फ्रों हूं क्लीं फट् ।

भागीरथोपासितायाः त्र्यक्षर मन्त्रः

हस्लक्षकमहब्रूं स्हकह्रलह्रीं सक्लह्रकह्रं ।

बल्युपास्याया षडक्षर मन्त्रः

ह्रीं स्फ्रों हूँ ख्फ्रें क्लीं ख्फ्रें ।

संवर्तोपास्ययायाः षोडशाक्षर मन्त्रः

क्लीं श्रीं ह्रीं हूं छ्रीं फ्रें खफ्रें क्षूं ग्लू हूं हौं रफ्रें क्रों क्रीं ओं ऐं ।

नारदोपास्याः पञ्चदशाक्षर मन्त्रः

ओं ऐं क्लीं स्फ्रों ह्रीं खफ्रें छ्रीं हसफ्रीं स्त्रीं हसखफ्रें हूं सफहलक्षूं फट् स्वाहा।

गरुडोपास्याः सप्तदशाक्षर मन्त्रः

स्हजहलक्षम्लवनऊं ह्रीं सग्लक्षमहरह्रूं छ्रीं क्कलह्रझकह्रनसक्लईं (कूर्मकूट) ।

गरुडोपास्यायाः सप्तदशाक्षर मन्त्रः

लक्षमह्रजरक्रव्य्रऊं (वधूकूट) क्लक्षसहमव्य्रऊं फ्रें फ्लक्षह्रस्हव्य्रऊं ह्रसलहसकह्रीं फट् नमः स्वाहा ।

भार्गवोपास्याः एकादशाक्षर मन्त्रः

ओं आं क्रों हौं क्ष्रूं ग्लू फ्रें स्त्रीं छ्रीं स्वाहा ।

परशुरामोपास्यायाः सप्ताक्षर मन्त्रः

श्रीं ह्रीं क्लीं छ्रीं स्त्रीं क्रीं फट् ।

सहस्रबाहूपासितायाश्चतुर्दशाक्षर मन्त्रः

ऐं क्रों स्फ्रों फ्रें खफ्रें हसफ्रीं हसखफ्रें फट् फट् फट् नमः स्वाहा ।

पृथूपासिताया पञ्चाक्षर मन्त्रः

क्लीं स्फ्रों स्फ्रों क्लीं फट् ।

हनुमदुपास्यायाः द्वादशाक्षर मन्त्रः

ओं आं ऐं ओं ईं ओं ह्रीं हूं श्रीं क्लीं कालि करालि विकरालि फट् फट् ।

भार्गवोपास्या एकादशाक्षर मन्त्रः

ओं आं क्रों हौं क्ष्रूं ग्लूं फ्रें स्त्रीं छ्रीं स्वाहा ।

कामकला काल्याः शताक्षर मन्त्रः

ह्रीं क्लीं हूं नमः कामकलाकालिकायै ऐं क्रों श्रीं क्रीं छ्रीं स्त्रीं फ्रें खफ्रें सकच नरमुण्डकुण्डलायै हसखफ्रीं हसखफ्रूं हसखफ्रैं हसखफ्रों महाविकराल वदनायै महाप्रलय समय ब्रह्माण्डनिष्पेषणकरायै रह्रीं रश्रीं रफ्रें रस्फ्रों हूं हूं हूं फट् फट् फट् भयङ्कररूपायै ह्रक्षम्लैं लक्षों क्षरह्रीं क्षस्त्रीं रक्षश्री खं रध्रें सैं ठं ठं ठं फें फें नमः स्वाहा ।

कामकला काल्याः सहस्राक्षर मन्त्रोद्धारः

ओं नमो भगवत्यै कामकलाकालिकायै ओं ओं ओं ओं ओं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं हूं हूं हूं हूं हूं छ्रीं छ्रीं छ्रीं छ्रीं छ्रीं स्त्रीं स्त्रीं स्त्रीं स्त्रीं स्त्रीं संहार भैरवसुरतरसलोलुपायै क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों हौं हौं हौं हौं हौं फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें क्षूं क्षूं क्षूं क्षूं क्षूं स्फ्रों स्फ्रों स्फ्रों स्फ्रों स्फ्रों स्हौः स्हौः स्हौः स्हौः स्हौः ग्लूं ग्लूं ग्लूं ग्लूं ग्लूं क्षौं क्षौं क्षौं क्षौं क्षौं फ्रों फ्रों फ्रों फ्रों फ्रों क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रौं क्रौं क्रौं क्रौं क्रौं जूं जूं जूं जूं जूं क्लूं क्लूं क्लूं क्लूं क्लूं प्रकटविकटदशन विकरालवदनायै क्लौं क्लौं क्लौं क्लौं क्लौं ब्लौं ब्लौं ब्लौं ब्लौं ब्लौं क्षूं क्षूं क्षूं क्षूं क्षूं ठ्रीं ठ्रीं ठ्रीं ठ्रीं ठ्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं हभ्रीं हभ्रीं हभ्रीं हभ्रीं हश्रीं स्हें स्हें स्हें स्हें स्हें घ्रीं घ्रीं घ्रीं घ्रीं घ्रीं सृष्टिस्थितिसंहारकारिण्यै मदनातुरायै क्रैं क्रैं क्रैं क्रैं क्रैं थ्रीं थ्रीं थ्रीं थ्रीं थ्रीं ढ्रीं ढ्रीं ढ्रीं ढ्रीं ढ्रीं ठौं ठौं ठौं ठौं ठौं ब्लूं ब्लूं ब्लूं ब्लूं ब्लूं भ्रूं भ्रूं भ्रूं भ्रूं भ्रूं फहलक्षां फहलक्षां फहलक्षां फहलक्षां फहलक्षां भयङ्करदंष्ट्रायुगल मुखररसनायै घ्रीं घ्रीं घ्रीं घ्रीं घ्रीं ख्रैं ख्रैं ख्रैं ख्रैं ख्रैं क्रूं क्रूं क्रूं क्रूंक्रूं श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं चफलक्रों चफलक्रों चफलक्रों चफलक्रों चफलक्रों (सुरतपिनी) क्रूं क्रूं क्रूं क्रूं क्रूं गं गं गं गं गं ह्रूः ह्रूः ह्रूः ह्रूः ह्रूः सकचनरमुण्ड कृत (कुण्डलात्त्यै) कुलायै ल्यूं ल्यूं ल्यूं ल्यूं ल्यूं णूं णूं णूं णूं णूं हैं हैं हैं हैं हैं क्लौं क्लौं क्लौं क्लौं क्लौं ब्रूं ब्रूं ब्रूं ब्रूं ब्रूं स्कीः स्कीः स्कीः स्कीः स्कीः ब्जं ब्जं ब्जं ब्जं ब्जं स्हीं स्हीं स्हीं स्हीं स्हीं महाकल्पान्तब्रह्माण्ड चर्वणकरायै हैं हैं हैं हैं हैं अं अं अं अं अं इं इं इं इं इं उं उं उं उं उं स्हें स्हें स्हें स्हें स्हें रां रां रां रां रां गं गं गं गं गं गां गां गां गां गां युगभेद भिन्नगुह्यकाल्येकमूर्तिधरायै फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें खफ्रें खफ्रें खरें खफ्रें खफ्रें हसफ्रीं हसफ्रीं हसफ्रीं हसफ्रीं हसफ्रीं हसखफ्रें हसखफ्रें हसखफ्रें हसखफ्रें हसखफ्रें क्षरह्रीं क्षरह्रीं क्षरह्रीं क्षरह्रीं क्षरह्रीं ह्रक्षम्लैं ह्रक्षम्लैं ह्रक्षम्लैं ह्रक्षम्लैं ह्रक्षम्लैं (जरक्रीं जरक्रीं जरक्रीं जरक्रीं जरक्रीं) रह्रीं रह्रीं रह्रीं रह्रीं रह्रीं रक्ष्रीं रक्ष्रीं रक्ष्रीं रक्ष्रीं रक्ष्रीं रफ्रीं रफ्रीं रफ्रीं रफ्रीं रफ्रीं क्षह्रम्लव्यूऊं क्षह्रम्लव्यूऊं क्षह्रम्लव्यूऊं क्षहृम्लव्यूउं क्षहृम्लव्यूऊं शतवदनान्तरितैकवदनायै फट् फट् फट् ओं तुरु ओं मुरु ओं हिलि ओं किलिं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः महाघोररावे कालि कापालि महाकापालि विकटदंष्ट्रे शोषिणि संमोहिनि करालवदने मदनोन्मादिनि ज्वालामालिनि शिवारूपि भगमालिनि भगप्रिये भैरवीचामुण्डायोगिन्यादिशतकोटि गणपरिवृते प्रत्यक्षं परोक्षं मां द्विषतो जहि जहि नाशय नाशय त्रासय त्रासय मारय मारय उच्चाटय उच्चाटय स्तम्भय स्तम्भय विध्वंसय विध्वंसय हन हन त्रुट त्रुट विद्रावय विद्रावय छिन्धि छिन्धि पच पच शोषय शोषय मोहय मोहय उन्मूलय उन्मूलय भस्मीकुरु भस्मीकुरु दह दह क्षोभय क्षोभय हर हर प्रहर प्रहर पातय पातय मर्दय मर्दय दम दम मथ मथ स्फोटय स्फोटय जम्भय जम्भय भ्रामय भ्रामय सर्वभूतभयङ्करि सर्वजनवशंकरि सर्वशत्रुशयंकरि ओं ह्रीं ओं क्लीं ओं हूं ओं क्रों ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल कह कह हस हस राज्यधनायुः सुखैश्वर्यं देहि देहि दापय दापय कृपाकटाक्षं मयि वितर वितर छ्रीं स्त्रीं फ्रें हभ्रीं ठ्रीं भ्रीं प्रीं क्रीं क्लीं हां हीं हूं मुण्डे सुमुण्डे चामुण्डे मुण्डमालिनि मुण्डावतंसिके मुण्डासने ग्लूं ब्लूं ज्लूं शवारूढे षोडशभुजे सोद्यते पाशपरशुनागचाप मुद्गर शिवापोत खर्पर नरमुण्डाक्षमाला कर्त्रीनानाङ्कशशवचक्र त्रिशूल करवाल धारिणि स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर मम हृदि तिष्ठ तिष्ठ स्थिरा भव त्वं ऐं ओं स्वाहा स्हौः क्लीं स्फ्रों खं खं खं खां खां खां (पदवी) हीं हीं हीं हूं हूं हूं जय जय जय विजय विजय विजय फट् फट् फट् नमः स्वाहा ॥ दशाक्षरत्रुटिरिह कथं पूरणीय इति जिज्ञासाशान्तिः साधकैः सुधीभिः विचार्योहेन कर्तव्या ।

कामकलाकाल्याः प्राणायुताक्षर मन्त्रः- इस प्राणायुताक्षर मन्त्र में अनकों देवियों के मन्त्र हैं । इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें- कामकलाकाली अयुताक्षर मन्त्र   

कामकलाकाली पारिभाषिक शब्दकोश

पारिभाषिक शब्दकोश

अनङ्गगन्ध - अठारह वर्ष अथवा उससे कम आयु की स्त्री का प्रथम दिन का आर्त्तव रक्त ।

अन्तरात्मा - पञ्चतन्मात्र मन बुद्धि और अहङ्कार रूप पुर्यष्टक के साथ समस्त योनियों में शुभ-अशुभ कर्म से बँधा तथा नाना योनियों में भटकने वाला जीव ।

अर्ध्य- देवता या विशिष्ट महापुरुष के सत्कार के लिये एकत्रित सामग्री। इसमें जल गन्ध चन्दन पुष्प फल दूर्वा दक्षिणा आदि वस्तुयें संगृहीत होती हैं ।

आत्मा - प्रधान अर्थात् प्रकृति तत्त्व के साथ साम्य स्थापित कर सुख दुःख से रहित जीव ।

आधार - इसे मूलाधार चक्र कहते हैं। यह लिङ्ग के मूल में स्थित होता है । यहाँ चतुर्दल कमल की कल्पना है। यह पृथ्वी तत्त्व का प्रतीक है। आवरण-प्रधान देवता के चारो ओर आगे पीछे कई पंक्तियों में विराजमान उनके सहवासी या अङ्गभूत देवता आदि ।

इडा – कन्द से निकल कर रीढ़ की हड्डी के बाँयीं ओर ऊपर चलने वाली मुख्य नाडी जो बाँयें नासारन्ध्र में पहुँचकर समाप्त हो जाती है। इसे चन्द्र नाडी भी कहते हैं।

कन्द - नाभि के नीचे तथा लिङ्गमूल के ऊपर स्थित पक्षी के अण्डे के समान वह मांसपिण्ड जहाँ से ७२००० नाड़ियाँ निकल कर सम्पूर्ण शरीर को व्याप्त करती हैं ।

कवच - वह मन्त्र अथवा स्तोत्र जिसके द्वारा साधक देवताओं से तत्तत् अङ्गों की रक्षा के लिए याचना कर अपने को सुरक्षित करता है ।

कामकला – कामेश्वर (शिव) से अभिन्न उसकी विमर्श शक्ति । महात्रिपुरसुन्दरी का नामान्तर ।

काली-पार्वती की उपाधि या शिव की पत्नी का नाम ।

कुबेर- धन के देवता । ये रावण के बड़े भाई हैं तथा उत्तर दिशा में अधिष्ठातृ रूप में विराजमान रहते हैं ।

चतुर्भद्र – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ।

चतुर्वर्ग – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ।

चन्द्रहास खड्ग - रावण की तलवार का नाम ।

डाकिनी - यह देवी रक्तवर्ण चतुर्बाहु द्वादश सूर्य के सदृश देदीप्यमान मूलाधार चक्र में निवास करती हैं। पक्षान्तर में यह एक प्रकार की आसुरी शक्ति या आत्मा हैजिसे भूतिनी भी कहते हैं। यह बच्चों तथा स्त्रियों को अभिभूत कर कष्ट पहुँचाती है ।

तीर्थ- सुरा । गुड़अन्नफल आदि अनेक प्रकार के द्रव्यों से बनायी गयी यह अनेक प्रकार की होती है।

परमात्मा — त्रिविध मलोंकर्मकला से रहित तथा देशाध्वा कालाध्वा से परे निर्मल जीव ।

परमीकरण - किसी भी पदार्थ या व्यक्ति को संस्कार के द्वारा परमेश्वर सदृश अत्यन्त उत्कृष्ट बनाना ।

पिङ्गला - कन्द से निकल कर रीढ़ की हड्डी के दायीं ओर ऊपर चलने वाली मुख्य नाड़ी जो दाँयें नासारन्ध्र मे जाकर समाप्त हो जाती है। इसे सूर्य नाड़ी भी कहते हैं ।

पुरश्चरण - किसी मन्त्र में जितने अक्षर होते हैं। उस मन्त्र का उतने हजार जप लघु पुरश्चरण तथा उतने लाख जप का वृहत् पुरश्चरण होता है । पुरश्चरण की एक निश्चित प्रक्रिया होती है ।

बलिकिसी भी देवता या असुर के लिये पूजा के अन्त में अर्पणीय वस्तु । यह पशु-पक्षी उनका मांस या अन्न आदि कुछ भी हो सकता है। भक्त प्रह्लाद के पुत्र विरोचन के पुत्र का नाम ।

बाणासुर - राजा बलि का पुत्र । माहेश्वर (मध्य प्रदेश) में इसका मन्दिर नर्मदा नदी के मध्य में स्थित है ।

बाह्यात्मा - स्थूल देह से संसक्त तथा रूप रस आदि विषयों का भोग करने वाला जीव ।

ब्रह्मा - ये सत्यलोक में रहते हैं। प्रजापति के नाम से अंशतः अवतीर्ण होकर ये संसार की सृष्टि करते रहते हैं। देवताओं के एक सौ वर्ष का इनका एक दिन होता है । इस परिमाण से इनकी आयु १०० वर्ष की होती है ।

निरात्मा - स्थूल सूक्ष्म भूतों से अप्रभावित तथा मायीय मल से युक्त जीव ।

मधुपर्क - दहीघी और मधु का मिश्रण (दध्ना मधुसर्पिम्यां मधुपर्क इहोच्यते) । वाममार्ग मे पशु का रक्त-मांस आदि ।

मणिपुर - यह चक्र अग्नितत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी स्थिति स्वाधिष्ठान के ऊपर है। यह दशदल चक्र है।

मन्त्र - वे अक्षर या अक्षरसमूह जो किसी सिद्धपुरुष द्वारा प्रवर्तित किये जाते हैं । उनमे वर्णों या शब्दों का परिवर्तन नहीं हो सकता। ये अक्षरसमूह दिव्य शक्ति से सञ्चालित होते हैं ।

मलमास - हिन्दू पञ्चाङ्ग में मास की व्यवस्था चन्द्रमा के उदयास्त की दृष्टि से की गयी है। उसके अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष में एक महीना बढ़ जाता है इस प्रकार वह वर्ष तेरह महीनों का होता है। यह पूर्ववर्ती दो वर्षों का अवशिष्ट काल होता है। किसी भी महीने के कृष्ण पक्ष के बाद से प्रारम्भ होकर शुक्ल कृष्ण दो पक्षों का यह मास पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है।

महाकाल - शिव का दूसरा नाम । प्रलयकर्त्ता के रूप में शिव का एक रूप ।

महाशङ्ख- मनुष्य की खोपड़ी ।

मातृका - 'से लेकर 'क्षतक का वर्णसमूह। यह परा संवित् का ही रूपान्तर है। 'मातृशब्द से अज्ञात अर्थ में 'कन्प्रत्यय जोड़कर 'मातृकाशब्द निष्पन्न हुआ है। अज्ञाता माता = मातृका । आदि क्षान्त वर्णों का वास्तविक स्वरूप सामान्य लोगों को ज्ञात नहीं होता ।

मुद्रा - १. शरीर अथवा अङ्गों का विशेष रूप से तोड़ना या मरोड़ना । जैसे- योगमुद्राजालन्धरमुद्राशङ्खमुद्रापल्लवमुद्रा आदि । २. भुना या तला खाद्य पदार्थ जो सुरा के साथ खाया जाता है।

योगिनी - शिव या दुर्गा की सेविकायें। इनकी संख्या आठ है ।

यक्षिणी- दुर्गा देवी की सेवा में रहने वाली विशेष प्रकार की स्त्रियाँ कभी-कभी ये मृत्युलोक में पुरुषों से भी सम्बन्ध रखती हैं । इसे शाकिनी भी कहते हैं।

विशुद्ध यह चक्र कण्ठ मे स्थित है और सोलह दलों वाला है। इसे आकाश तत्त्व का प्रतीक मानते हैं ।

वज्र - देवराज इन्द्र का अस्त्र जिसे महर्षि दधीचि की हड्डियों से बनाया गया था।

वरुण - जल तत्त्व के अधिष्ठातृ देव । इनकी दिशा पश्चिम है जिसमें ये विराजमान रहते हैं ।

वसुये ऊर्ध्व लोक में रहने वाले देवता हैं। इनकी संख्या आठ है । महाभारत के भीष्मपितामह आठवें वसु के अवतार थे।

शक्ति – वह स्त्री जो वाममार्गी साधना में मैथुन के लिये प्रयुक्त होती है ।

शाकिनी—– एक प्रकार की आसुरी या पिशाचिनी या परी जो कि दुर्गा की सेविका होती है।

षडङ्गन्यास – हृदयशिरशिखादोनों भुजायेंतीनों नेत्र और सम्पूर्ण शरीर । ये छह अङ्ग न्यास के लिये माने गये हैं। इसमें मन्त्र या बीजाक्षर का उच्चारण करते हुए सम्बद्ध देवता का आवाहन किया जाता है ।

समित् - हवन आदि कार्यों के लिये शिष्यों के द्वारा जङ्गल से लायी गयी लकड़ी आदि।

सामरस्य- चक्रों का भेदन करने के बाद अथवा अन्य उपायों के द्वारा अत्यन्त निर्मल होकर जीव का शिवशक्ति स्वरूप होना ।

स्वाधिष्ठान - मूलाधार के ऊपर वर्त्तमान छह दलों वाला चक्र । यह जल तत्त्व का प्रतीक माना जाता है। यह चक्र मूत्राशय के आस पास स्थित है। इस चक्र का भेदन करते समय कामवासना सर्वाधिक उद्दीप्त होती है ।

सुषुम्ना - यह नाड़ी भी कन्द से निकलती है और रीढ़ की अँड़तीस हड्डियों के बीच से होकर ऊपर जाती है। आगे चलकर यह दो भागों में बँट जाती है । एक भाग आज्ञाचक्र में और दूसरा सहस्त्रार में चला जाता है । समाधिस्थ योगी का प्राणवायु इसी में सञ्चरण करता रहता है। इसे मध्यनाड़ी भी कहते हैं ।

सदाशिव - परमेश्वर का तीसरा अवतार। इनमें माया का स्पर्श नहीं रहता। ये सदा परमेश्वर के ध्यान में मग्न रहते हुए सृष्टि का सञ्चालन करते रहते हैं । इन्हें सर्वदा 'अहम्का ही बोध होता है। ये आणव भक्त से अल्पमात्रा में संश्लिष्ट रहते हैं।

स्वयम्भू पुष्प - किसी भी स्त्री का प्रथम दिन का आर्तव रक्त ।

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