Kavach
Sunday, 31 December 2017
New year tantra Lakshmi narsing ashtottarshatnam लक्ष्मी नृसिंह अष्टोत्तरशतनाम
श्री लक्ष्मीनरसिंह अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र
शक्ति और ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए करें 31 दिसम्बर 1 जनवरी का प्रयोग
31 दिसम्बर 2017 की सायंकाल पौष मास शुक्ल पक्ष चतुर्दशी तिथि आरम्भ हो जाएगी और 1 जनवरी 2018 की सायंकाल पूर्णिमा तिथि और शाकम्भरी नवरात्र का अवसर। http://jyotish-tantra.blogspot.com
चतुर्दशी तिथि भगवान नरसिंह और भगवती दोनो की उपासना के लिए उपयुक्त अवसर है वहीं पूर्णिमा भगवान विष्णु की प्रसन्नता का समय।
इस मौके को यूं ही व्यर्थ में उछल कूद, मांस मदिरा में न गवाएं। जेब मे धन हो, मन प्रसन्न हो तो हर दिन व्यक्ति आनन्द उठा सकता है।
चतिर्दशी यानी 31 दिसम्बर की रात्रि भगवान लक्ष्मी नृसिंह के इस चमत्कारी स्तोत्र का संकल्प लेकर 108 बार पाठ करें और पूर्णिमा 1 जनवरी की रात्रि इसके 11 पाठों का प्रत्येक नाम का हवन करें। इस प्रकार 11x 108 आहुति होंगी।
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आसन: ऊनी कम्बल या कुश
दिशा: पूर्व या उत्तर मुखी होकर
वस्त्र: साफ स्वच्छ धोती एवं ऋतु अनुकूल
हवन सामग्री: जौं, तिल, अक्षत , शक्कर, घी, शहद, गुग्गुल, नागकेसर, कपूर, दूध
( सम्भव हो तो जटामांसी, अगर, तगर, कचूर भी मिलाएं)
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।। ॐ श्रीं ॐ लक्ष्मीनृसिंहाय नम: श्रीं ॐ।।
नारसिंहो महासिंहो दिव्यसिंहो महीबल:।
उग्रसिंहो महादेव: स्तंभजश्चोग्रलोचन:।।
रौद्र: सर्वाद्भुत: श्रीमान् योगानन्दस्त्रीविक्रम:।
हरि: कोलाहलश्चक्री विजयो जयवर्द्धन:।।
पञ्चानन: परंब्रह्म चाघोरो घोरविक्रम:।
ज्वलन्मुखो ज्वालमाली महाज्वालो महाप्रभु:।।
निटिलाक्ष: सहस्त्राक्षो दुर्निरीक्ष्य: प्रतापन:। महाद्रंष्ट्रायुध: प्राज्ञश्चण्डकोपी सदाशिव:।।
हिरण्यकशिपुध्वंसी दैत्यदानवभञ्जन:।
गुणभद्रो महाभद्रो बलभद्र: सुभद्रक:।।
करालो विकरालश्च विकर्ता सर्वकर्तृक:। शिंशुमारस्त्रिलोकात्मा ईश: सर्वेश्वरो विभु:।।
भैरवाडम्बरो दिव्याश्चच्युत: कविमाधव:।
अधोक्षजो अक्षर: शर्वो वनमाली वरप्रद:।।
विश्वम्भरो अद्भुतो भव्य: श्रीविष्णु: पुरूषोतम:।
अनघास्त्रो नखास्त्रश्च सूर्यज्योति: सुरेश्वर:।।
सहस्त्रबाहु: सर्वज्ञ: सर्वसिद्धिप्रदायक:।
वज्रदंष्ट्रो वज्रनखो महानन्द: परंतप:।।
सर्वयन्त्रैकरूपश्च सप्वयन्त्रविदारण:।
सर्वतन्त्रात्मको अव्यक्त: सुव्यक्तो भक्तवत्सल:।।
वैशाखशुक्ल भूतोत्थशरणागत वत्सल:।
उदारकीर्ति: पुण्यात्मा महात्मा चण्डविक्रम:।।
वेदत्रयप्रपूज्यश्च भगवान् परमेश्वर:।
श्रीवत्साङ्क: श्रीनिवासो जगद्व्यापी जगन्मय:।।
जगत्पालो जगन्नाथो महाकायो द्विरूपभृत्।
परमात्मा परंज्योतिर्निर्गुणश्च नृकेसरी।।
परतत्त्वं परंधाम सच्चिदानंदविग्रह:।
लक्ष्मीनृसिंह: सर्वात्मा धीर: प्रह्लादपालक:।।
इदं लक्ष्मीनृसिंहस्य नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।
त्रिसन्ध्यं य: पठेद् भक्त्या सर्वाभीष्टंवाप्नुयात्।।
श्री भगवान महाविष्णु स्वरूप श्री नरसिंह के अंक में विराजमान माँ महालक्ष्मी के इस श्रीयुगल स्तोत्र का तीनो संध्याओं में पाठ करने से भय, दारिद्र, दुःख, शोक का नाश होता है और अभीष्ट की प्राप्ति होती है।
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महाविष्णु भगवान लक्ष्मीरमण नृसिंह आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करेंगे।
अन्य किसी प्रकार की जानकारी ,कुंडली विश्लेषण या समस्या समाधान हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।
।।जय श्री राम।।
Abhishek B. Pandey
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शक्ति और ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए करें 31 दिसम्बर 1 जनवरी का प्रयोग
31 दिसम्बर 2017 की सायंकाल पौष मास शुक्ल पक्ष चतुर्दशी तिथि आरम्भ हो जाएगी और 1 जनवरी 2018 की सायंकाल पूर्णिमा तिथि और शाकम्भरी नवरात्र का अवसर। http://jyotish-tantra.blogspot.com
चतुर्दशी तिथि भगवान नरसिंह और भगवती दोनो की उपासना के लिए उपयुक्त अवसर है वहीं पूर्णिमा भगवान विष्णु की प्रसन्नता का समय।
इस मौके को यूं ही व्यर्थ में उछल कूद, मांस मदिरा में न गवाएं। जेब मे धन हो, मन प्रसन्न हो तो हर दिन व्यक्ति आनन्द उठा सकता है।
चतिर्दशी यानी 31 दिसम्बर की रात्रि भगवान लक्ष्मी नृसिंह के इस चमत्कारी स्तोत्र का संकल्प लेकर 108 बार पाठ करें और पूर्णिमा 1 जनवरी की रात्रि इसके 11 पाठों का प्रत्येक नाम का हवन करें। इस प्रकार 11x 108 आहुति होंगी।
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आसन: ऊनी कम्बल या कुश
दिशा: पूर्व या उत्तर मुखी होकर
वस्त्र: साफ स्वच्छ धोती एवं ऋतु अनुकूल
हवन सामग्री: जौं, तिल, अक्षत , शक्कर, घी, शहद, गुग्गुल, नागकेसर, कपूर, दूध
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।। ॐ श्रीं ॐ लक्ष्मीनृसिंहाय नम: श्रीं ॐ।।
नारसिंहो महासिंहो दिव्यसिंहो महीबल:।
उग्रसिंहो महादेव: स्तंभजश्चोग्रलोचन:।।
रौद्र: सर्वाद्भुत: श्रीमान् योगानन्दस्त्रीविक्रम:।
हरि: कोलाहलश्चक्री विजयो जयवर्द्धन:।।
पञ्चानन: परंब्रह्म चाघोरो घोरविक्रम:।
ज्वलन्मुखो ज्वालमाली महाज्वालो महाप्रभु:।।
निटिलाक्ष: सहस्त्राक्षो दुर्निरीक्ष्य: प्रतापन:। महाद्रंष्ट्रायुध: प्राज्ञश्चण्डकोपी सदाशिव:।।
हिरण्यकशिपुध्वंसी दैत्यदानवभञ्जन:।
गुणभद्रो महाभद्रो बलभद्र: सुभद्रक:।।
करालो विकरालश्च विकर्ता सर्वकर्तृक:। शिंशुमारस्त्रिलोकात्मा ईश: सर्वेश्वरो विभु:।।
भैरवाडम्बरो दिव्याश्चच्युत: कविमाधव:।
अधोक्षजो अक्षर: शर्वो वनमाली वरप्रद:।।
विश्वम्भरो अद्भुतो भव्य: श्रीविष्णु: पुरूषोतम:।
अनघास्त्रो नखास्त्रश्च सूर्यज्योति: सुरेश्वर:।।
सहस्त्रबाहु: सर्वज्ञ: सर्वसिद्धिप्रदायक:।
वज्रदंष्ट्रो वज्रनखो महानन्द: परंतप:।।
सर्वयन्त्रैकरूपश्च सप्वयन्त्रविदारण:।
सर्वतन्त्रात्मको अव्यक्त: सुव्यक्तो भक्तवत्सल:।।
वैशाखशुक्ल भूतोत्थशरणागत वत्सल:।
उदारकीर्ति: पुण्यात्मा महात्मा चण्डविक्रम:।।
वेदत्रयप्रपूज्यश्च भगवान् परमेश्वर:।
श्रीवत्साङ्क: श्रीनिवासो जगद्व्यापी जगन्मय:।।
जगत्पालो जगन्नाथो महाकायो द्विरूपभृत्।
परमात्मा परंज्योतिर्निर्गुणश्च नृकेसरी।।
परतत्त्वं परंधाम सच्चिदानंदविग्रह:।
लक्ष्मीनृसिंह: सर्वात्मा धीर: प्रह्लादपालक:।।
इदं लक्ष्मीनृसिंहस्य नाम्नामष्टोत्तरं शतम्।
त्रिसन्ध्यं य: पठेद् भक्त्या सर्वाभीष्टंवाप्नुयात्।।
श्री भगवान महाविष्णु स्वरूप श्री नरसिंह के अंक में विराजमान माँ महालक्ष्मी के इस श्रीयुगल स्तोत्र का तीनो संध्याओं में पाठ करने से भय, दारिद्र, दुःख, शोक का नाश होता है और अभीष्ट की प्राप्ति होती है।
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महाविष्णु भगवान लक्ष्मीरमण नृसिंह आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करेंगे।
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।।जय श्री राम।।
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Friday, 8 December 2017
Shani Vajra-Panjar Kavach शनि वज्रपंजर कवच
॥ श्रीशनिवज्रपंजरकवचम् ॥
श्री गणेशाय नमः ॥
विनियोगः ।
ॐ अस्य श्रीशनैश्चरवज्रपञ्जर कवचस्य कश्यप ऋषिः,
अनुष्टुप् छन्दः, श्री शनैश्चर देवता,
श्रीशनैश्चर प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ॥
ऋष्यादि न्यासः ।
श्रीकश्यप ऋषयेनमः शिरसि ।
अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे ।
श्रीशनैश्चर देवतायै नमः हृदि ।
श्रीशनैश्चरप्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ॥
ध्यानम् ।
नीलाम्बरो नीलवपुः किरीटी गृध्रस्थितस्त्रासकरो धनुष्मान् ।
चतुर्भुजः सूर्यसुतः प्रसन्नः सदा मम स्याद् वरदः प्रशान्तः ॥ १॥
ब्रह्मा उवाच ॥
शृणुध्वमृषयः सर्वे शनिपीडाहरं महत् ।
कवचं शनिराजस्य सौरेरिदमनुत्तमम् ॥ २॥
कवचं देवतावासं वज्रपंजरसंज्ञकम् ।
शनैश्चरप्रीतिकरं सर्वसौभाग्यदायकम् ॥ ३॥
ॐ श्रीशनैश्चरः पातु भालं मे सूर्यनन्दनः ।
नेत्रे छायात्मजः पातु पातु कणौं यमानुजः ॥ ४॥
नासां वैवस्वतः पातु मुखं मे भास्करः सदा ।
स्निग्धकण्ठश्च मे कण्ठं भुजौ पातु महाभुजः ॥ ५॥
स्कन्धौ पातु शनिश्चैव करौ पातु-शुभप्रदः ।
वक्षः पातु यमभ्राता कुक्षिं पात्वसितस्तथा ॥ ६॥
नाभिं ग्रहपतिः पातु मन्दः पातु कटिं तथा ।
ऊरू ममान्तकः पातु यमो जानुयुगं तथा ॥ ७॥
पादौ मन्दगतिः पातु सर्वांगं पातु पिप्पलः ।
अंगोपांगानि सर्वाणि रक्षेन् मे सूर्यनन्दनः ॥ ८॥
इत्येतत् कवचं दिव्यं पठेत् सूर्यसुतस्य यः ।
न तस्य जायते पीडा प्रीतो भवति सूर्यजः ॥ ९॥
व्यय-जन्म-द्वितीयस्थो मृत्युस्थानगतोऽपि वा ।
कलत्रस्थो गतो वाऽपि सुप्रीतस्तु सदा शनिः ॥ १०॥
अष्टमस्थे सूर्यसुते व्यये जन्मद्वितीयगे ।
कवचं पठते नित्यं न पीडा जायते क्वचित् ॥ ११॥
इत्येतत्कवचं दिव्यं सौरेर्यन्निर्मितं पुरा ।
द्वादशाऽष्टमजन्मस्थदोषान्नाशयते सदा ।
जन्मलग्नस्थितान् दोषान् सर्वान्नाशयते प्रभुः ॥ १२॥
॥ इति श्री ब्रह्माण्डपुराणे ब्रह्म-नारदसंवादे
शनिवज्रपंजरकवचम् सम्पूर्णम् ॥
इस शनि कवच का पाठ शनि कृत सभी कष्टों से मुक्ति प्रदान करने वाला और शनि देव को प्रसन्न करने वाला है। यदि जन्म चक्र में द्वितीय, सप्तम, अष्टम द्वादश अथवा रोग स्थान पर स्थित शनि पीड़ा देता हो अथवा शनि की दशा, ढैय्या एवम साढ़ेसाती से पीड़ित हों तो उक्त कवच का पाठ शनि पीड़ाओं से मुक्ति प्रदान करता है।
अन्य किसी जानकारी, समस्या समाधान एवम कुंडली विशेलशं हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।
।।जय श्री राम।।
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Monday, 4 December 2017
Mantra for Confidence and intelligence बुद्धि एवम आत्मविश्वास प्रदायक हनुमान मन्त्र
विद्या बुद्धि आत्मविश्वास प्रदायक हनुमान मन्त्र
मित्रों,
आज आपको श्री हनुमान जी का एक मंत्र बता रहा हूँ जो आत्मविश्वास को बढ़ाता है, डर ख़त्म करता है, और वाक् शक्ति (बोलने की शक्ति) को निखारता है ।
ऐसे लोग जिन्हे किसी भी चीज़ का डर या फोबिया है, ऐसे लोग जो दूसरों से बात करने में घबराते हैं,
किसी के सामने जाते ही उनके पसीने निकलने लगते है,
विद्यार्थी जो मौखिक या लिखित परीक्षा से डरते हैं,
सब याद होने के बाद भी उत्तर नहीं दे पाते
अथवा
ऐसे लोग जिन्हे दूसरों से मिलकर उन्हें अपनी बातों से प्रभावित करना होता है जैसे-
सेल्स, मार्केटिंग, इंश्योरेंस एजेंट, ब्रोकर, कॉर्डिनेटर, नेता इत्यादि, ऐसे सभी लोगों के लिए यह मंत्र बहुत प्रभावी है । यह मंत्र अच्छी सेहत भी देता है ।
मंत्र जपते हुए आँखें बंद करके हनुमान जी के ऐसे सुंदर रूप का ध्यान करें जिसमे से लाल रंग की रौशनी निकल कर आपकी तरह आ रही है।
मंत्र इस प्रकार है ।
बुद्धिर्बलम् यशो धैर्यम्
निर्भयत्वम् अरोगतां ।
अजाड्यम् वाक्पटुत्वम् च
हनुमत् स्मरणात भवेत ॥
इस मंत्र का रोज़ कम से कम 108 बार जप ऊपर दिए हुए फायदे देता है ।
इसका जप पूर्ण श्रद्धा, एकाग्रता और समर्पित भाव से किया जाना चाहिए तभी पूरा फायदा मिलता है । जितना अधिक जप किया जाएगा उतना ही अधिक और उतना ही जल्दी फायदा होगा ।
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Friday, 1 December 2017
Vajikaran : science of romance वाजीकरण: प्रेम और यौवन का ज्ञान
बाजीकरण आयुर्वेद शास्त्र आठ अंगो में विभक्त है। सातवा अंग रसायन और आठवा अंग बाजीकरन है। कुछ समय से पाठ्को की बाजीकरन की चिकित्सा के बारे मे जानने की इच्छा थी। अत: इसके बारे मे कुछ जानकारी यहा पर दे रहे है। रसायन व वाजीकरण चिकित्सा मानव कल्याणार्थ महर्षि वैज्ञानिको द्वारा खोजी गई है। आयुष्य, स्वास्थ्य और पौरुष का लाभ तो इनके द्वारा आवश्य प्राप्त होता है।
आपने निजी विचार अनुसार इस चिकित्सा का अतिरिक्त उदेश्य भी है यथा वयक्तिगत रुप से व सम्षिटरुप से आपने देशवासियो के स्वास्थ्य के स्तर को गिरने न देना, उतरोतर उन्नत बनाए रखना, सन्क्रामक व अन्य रोगो से बचाना और रोगक्षमता व रक्ष्ण शकित का सम्वर्धन।
बाजीकरण चिकित्सा की सार्थकता- बाजीकरण चिकित्सा व औषधियो के सम्बन्ध मे कुछ गलत धारणाए प्रचलित है। कुछ अज्ञानी लोग इस चिकित्सा को लिग-योनि चिकित्सा तथा यौन भावनाओ का प्रसार करने वाली ही मानते है। यह विचार नितान्त भ्रान्त और मिथ्या है जिस का कोई वैज्ञानिक आधार नही है।
यह चिकित्सा आत्मवान के लिये कही गई है –
वाजीकरणगनिवच्छेत पुरुषोनित्यमात्मवान। तदायक्तौहि धर्मारथौ प्रीतिश्च यश एव च।।
पुत्र्स्यायत्न्न ह्येतद गुणाश्चैते सुताश्र्या:। -च . चि
बाजीकरण सेवन से शुक्र की व्रद्धि होती है और शुक्र की व्रध्दि से पुत्र की उत्पति होती है पुत्रोत्पति एक धर्म कार्य है। कन्या के बारे मे भी ऐसा ही समझना चाहिए।
वीर्यवान पुरुष ही धर्म, अर्थ, प्रीति और यश का भागी होता है-
मगलयोऽयं प्रशस्यऽयं धनयोऽयं वीर्यवानयमः।
बाजीकरण की परिभाषा- बाजीकरण को यूनानी चिकित्सा शास्त्र में ममक्षिक (कुवत बाह को बढाना) और एलोपैथी में एफ्रोडीसायक कहा गया है।
शारंग्धर ने बाजीकरण की सामान्या परिभाषा में कहा है:-
यस्माद द्रव्याद्भवेतः स्त्रीपुरुषो बाजीकरणं च तत.।
अर्थात:- जिस द्रव्य के सेवन से मैथुन में स्त्री-पुरुष दोनों को हर्ष अथवा आनंद की प्रतीति हो उसे बाजीकरण कहते है। यह एक आम सरल परिभाषा है जिसे सर्वसाधारण जन सुगमता से समझ सकते है।
चरक संहिता व अ. सं. में परिभाषा को विशेष रुप दिया गया है–
येन नारिषु सामर्थ्य बाजिबल्लभते नर:। ब्रजेच्चाभ्याधिकं येन बाजिकरण्मेव त्तत।।
बाजीबात बलो येन यात्यप्रतिह्त: स्त्रिय:। भवत्यतिप्रिय: स्त्रिणां येन येनोपचियते।।
तद्वाजीकरणं तद्धि देहसयौजस्करं परम:।। – च. चि. बाजीकरण
आर्थात:- जिस द्रव्य के सेवन से अश्व की तरह मैथुन शक्ति हो जाऐ, शीघ्रपतन न हो, पुरुष बिना रुकावट के मैथुन कर सके, स्त्रिया जिस पर मैथुन शक्ति के कारण मोहित {वश में} हो, धातुओं की भरपुर व्रद्धि हो और देह ओज व तेज से भरपुर हो जाऐ वह द्र्व्या ही सच्चा बाजीकरण है।
सुश्रुत ने बाजीकरण की परिभाषा इस प्रकार कही है:-
बाजीकरण तन्त्रं (बाजीकरणं) नामाल्य दुष्ट्क्षीण-विशुष्क-रेतसामाप्यायन-प्रसादोपच्य-जनननिमितं प्रह्ष्रजननार्थ च। सेव्यमानो यदौचित्याद्वाजिवात्यर्थ वेगवानं। नारीस्तपर्यते तेन बाजीकरणंमुच्यते।।
अर्थात:- वाजीकरण तन्त्र अल्पवीर्य, दुष्टवीर्य, क्षीणवीर्य, और शुष्कवीर्य वालों के हित के लिये कहा गया है। जिस द्रव्य के सेवन से पुरुष अत्यन्त वेगवान होकर नारी की तुष्टी करन में समर्थ हो वह द्रव्य बाजीकरण होता है। बाजीकरण प्रक्रिया वीर्य व्रद्धि तथा वीर्य को गुणवान बनाने की प्रक्रिया है।
शुक्र की रक्षा करने वाले अथवा शुक्रसार पुरुषो के गुण:- ते स्त्रीस्त्रियोप्भोगा बलवन्त: सुखैश्वर्यारोग्या वितसंमानापत्यभाजश्च भवन्ति। च. चि।
जिस द्रव्य द्वारा पुरुष को प्रभुत गुणों की उपलब्धि होती है, बाजीकरण प्रक्रिया द्वारा उसका व्यर्थ में नाश करना कदापि अभीष्ट नहीं हो सकता। शरीर के तीन उपस्तम्भ कहे गये है। एक उपस्तम्भ ब्रह्मचर्य (संयम से रहना) शरीर की रक्षा और धारण के लिये नितान्त आवश्यक माना जाता है।
दोषयुक्त शुक्र के उपद्र्व:-
शुक्रस्य दोषात क्लैव्यम्हर्षणम। रोगी वाक्लीवमालयायार्ववर्रुपं वा प्रजायत।।
न वा संजायते गर्भ: पतति प्रस्त्रावत्यपि। शुक्रं हि दुष्टं सापत्यं सदारं बाधते नरमं।। च. सु.
शुक्र को निर्दोष और समर्थ बनाये रखने के लिए आयुर्वेद शास्त्र ने व्यर्थ में ही इस तथ्य पर बल नहीं दिया।
बाजीकरण के भेद:-
१. शुक्रल- जो द्रव्य शुक्र की व्रद्धि करते हैं उन्हें शुक्रल कहते है।
२. शुक्र प्रवर्तक- शुक्र का प्रवर्तक मात्र करने वाले द्रव्य।
३. शुक्रस्त्रुति- व्रद्धीकर, कुछ द्र्व्य शुक्रजनन और शुक्र प्रवर्तक दोनो कार्य करते है।
४. शुक्रस्तम्भन- जो द्रव्य शुक्र धातु का स्तम्भन करके रतिकाल को लम्बा करते है उन्हें शुक्रस्तम्भन कहा जाता है।
आयुर्वेद शास्त्र में ब्रष्या कर्म से पूर्व शरीर शुद्धि का निर्देश है।
स्त्रोतस्सु शुद्धैष्वगम्नो शरीरे व्रष्यं प्रदाल मियमक्ति काले।
व्रष्याते तेन परं मनुष्यस्तद्ध्रंणं चैव बलप्रदं च।।
अर्थात:- मलिन शरीर में व्रष्य योग सिद्ध नहीं होते। इसी कारण कई रोगी व्रष्य योगों से लाभान्ति नही हो सकते।
बाजीकर (व्रष्य) औषधियां व आहार विहार- आयुर्वेद शास्त्र में पौरुष प्रदान करने वाली औषधियों तथा आहार द्रव्यों का एक विशाल ज्ञान है अगर इन्हें विधिवत प्रयोग में लाया जाए तो सफलता अवश्य प्राप्त होगी।
अपने आगामी लेखों में आपको सरल आयुर्वेदिक वाजीकरण योगों को जानकारी देने की कोशिश करेंगे जो आप स्वयम बना सकें और उपयोग कर सकें। हानि रहित/ जिनके कोई साइड इफेक्ट न हों।
आपने निजी विचार अनुसार इस चिकित्सा का अतिरिक्त उदेश्य भी है यथा वयक्तिगत रुप से व सम्षिटरुप से आपने देशवासियो के स्वास्थ्य के स्तर को गिरने न देना, उतरोतर उन्नत बनाए रखना, सन्क्रामक व अन्य रोगो से बचाना और रोगक्षमता व रक्ष्ण शकित का सम्वर्धन।
बाजीकरण चिकित्सा की सार्थकता- बाजीकरण चिकित्सा व औषधियो के सम्बन्ध मे कुछ गलत धारणाए प्रचलित है। कुछ अज्ञानी लोग इस चिकित्सा को लिग-योनि चिकित्सा तथा यौन भावनाओ का प्रसार करने वाली ही मानते है। यह विचार नितान्त भ्रान्त और मिथ्या है जिस का कोई वैज्ञानिक आधार नही है।
यह चिकित्सा आत्मवान के लिये कही गई है –
वाजीकरणगनिवच्छेत पुरुषोनित्यमात्मवान। तदायक्तौहि धर्मारथौ प्रीतिश्च यश एव च।।
पुत्र्स्यायत्न्न ह्येतद गुणाश्चैते सुताश्र्या:। -च . चि
बाजीकरण सेवन से शुक्र की व्रद्धि होती है और शुक्र की व्रध्दि से पुत्र की उत्पति होती है पुत्रोत्पति एक धर्म कार्य है। कन्या के बारे मे भी ऐसा ही समझना चाहिए।
वीर्यवान पुरुष ही धर्म, अर्थ, प्रीति और यश का भागी होता है-
मगलयोऽयं प्रशस्यऽयं धनयोऽयं वीर्यवानयमः।
बाजीकरण की परिभाषा- बाजीकरण को यूनानी चिकित्सा शास्त्र में ममक्षिक (कुवत बाह को बढाना) और एलोपैथी में एफ्रोडीसायक कहा गया है।
शारंग्धर ने बाजीकरण की सामान्या परिभाषा में कहा है:-
यस्माद द्रव्याद्भवेतः स्त्रीपुरुषो बाजीकरणं च तत.।
अर्थात:- जिस द्रव्य के सेवन से मैथुन में स्त्री-पुरुष दोनों को हर्ष अथवा आनंद की प्रतीति हो उसे बाजीकरण कहते है। यह एक आम सरल परिभाषा है जिसे सर्वसाधारण जन सुगमता से समझ सकते है।
चरक संहिता व अ. सं. में परिभाषा को विशेष रुप दिया गया है–
येन नारिषु सामर्थ्य बाजिबल्लभते नर:। ब्रजेच्चाभ्याधिकं येन बाजिकरण्मेव त्तत।।
बाजीबात बलो येन यात्यप्रतिह्त: स्त्रिय:। भवत्यतिप्रिय: स्त्रिणां येन येनोपचियते।।
तद्वाजीकरणं तद्धि देहसयौजस्करं परम:।। – च. चि. बाजीकरण
आर्थात:- जिस द्रव्य के सेवन से अश्व की तरह मैथुन शक्ति हो जाऐ, शीघ्रपतन न हो, पुरुष बिना रुकावट के मैथुन कर सके, स्त्रिया जिस पर मैथुन शक्ति के कारण मोहित {वश में} हो, धातुओं की भरपुर व्रद्धि हो और देह ओज व तेज से भरपुर हो जाऐ वह द्र्व्या ही सच्चा बाजीकरण है।
सुश्रुत ने बाजीकरण की परिभाषा इस प्रकार कही है:-
बाजीकरण तन्त्रं (बाजीकरणं) नामाल्य दुष्ट्क्षीण-विशुष्क-रेतसामाप्यायन-प्रसादोपच्य-जनननिमितं प्रह्ष्रजननार्थ च। सेव्यमानो यदौचित्याद्वाजिवात्यर्थ वेगवानं। नारीस्तपर्यते तेन बाजीकरणंमुच्यते।।
अर्थात:- वाजीकरण तन्त्र अल्पवीर्य, दुष्टवीर्य, क्षीणवीर्य, और शुष्कवीर्य वालों के हित के लिये कहा गया है। जिस द्रव्य के सेवन से पुरुष अत्यन्त वेगवान होकर नारी की तुष्टी करन में समर्थ हो वह द्रव्य बाजीकरण होता है। बाजीकरण प्रक्रिया वीर्य व्रद्धि तथा वीर्य को गुणवान बनाने की प्रक्रिया है।
शुक्र की रक्षा करने वाले अथवा शुक्रसार पुरुषो के गुण:- ते स्त्रीस्त्रियोप्भोगा बलवन्त: सुखैश्वर्यारोग्या वितसंमानापत्यभाजश्च भवन्ति। च. चि।
जिस द्रव्य द्वारा पुरुष को प्रभुत गुणों की उपलब्धि होती है, बाजीकरण प्रक्रिया द्वारा उसका व्यर्थ में नाश करना कदापि अभीष्ट नहीं हो सकता। शरीर के तीन उपस्तम्भ कहे गये है। एक उपस्तम्भ ब्रह्मचर्य (संयम से रहना) शरीर की रक्षा और धारण के लिये नितान्त आवश्यक माना जाता है।
दोषयुक्त शुक्र के उपद्र्व:-
शुक्रस्य दोषात क्लैव्यम्हर्षणम। रोगी वाक्लीवमालयायार्ववर्रुपं वा प्रजायत।।
न वा संजायते गर्भ: पतति प्रस्त्रावत्यपि। शुक्रं हि दुष्टं सापत्यं सदारं बाधते नरमं।। च. सु.
शुक्र को निर्दोष और समर्थ बनाये रखने के लिए आयुर्वेद शास्त्र ने व्यर्थ में ही इस तथ्य पर बल नहीं दिया।
बाजीकरण के भेद:-
१. शुक्रल- जो द्रव्य शुक्र की व्रद्धि करते हैं उन्हें शुक्रल कहते है।
२. शुक्र प्रवर्तक- शुक्र का प्रवर्तक मात्र करने वाले द्रव्य।
३. शुक्रस्त्रुति- व्रद्धीकर, कुछ द्र्व्य शुक्रजनन और शुक्र प्रवर्तक दोनो कार्य करते है।
४. शुक्रस्तम्भन- जो द्रव्य शुक्र धातु का स्तम्भन करके रतिकाल को लम्बा करते है उन्हें शुक्रस्तम्भन कहा जाता है।
आयुर्वेद शास्त्र में ब्रष्या कर्म से पूर्व शरीर शुद्धि का निर्देश है।
स्त्रोतस्सु शुद्धैष्वगम्नो शरीरे व्रष्यं प्रदाल मियमक्ति काले।
व्रष्याते तेन परं मनुष्यस्तद्ध्रंणं चैव बलप्रदं च।।
अर्थात:- मलिन शरीर में व्रष्य योग सिद्ध नहीं होते। इसी कारण कई रोगी व्रष्य योगों से लाभान्ति नही हो सकते।
बाजीकर (व्रष्य) औषधियां व आहार विहार- आयुर्वेद शास्त्र में पौरुष प्रदान करने वाली औषधियों तथा आहार द्रव्यों का एक विशाल ज्ञान है अगर इन्हें विधिवत प्रयोग में लाया जाए तो सफलता अवश्य प्राप्त होगी।
अपने आगामी लेखों में आपको सरल आयुर्वेदिक वाजीकरण योगों को जानकारी देने की कोशिश करेंगे जो आप स्वयम बना सकें और उपयोग कर सकें। हानि रहित/ जिनके कोई साइड इफेक्ट न हों।
अन्य किसी जानकारी, समस्या समाधान एवम कुंडली विश्लेषण हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।
।।जय श्री राम।।
Abhishek B. Pandey
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Sunday, 26 November 2017
Paap nashak Narayan stotra सर्व पाप नाशक नारायण स्तोत्र
पाप नाशक स्तोत्र
भगवन वेदव्यासजी द्वारा रचित अठारह पुराणों में से एक ‘अग्नि पुराण’ में अग्निदेव द्वारा महर्षि वशिष्ठ को दियें गये विभिन्न उपदेश हैं| इसीके अंतर्गत इस पापनाशक स्तोत्र के बारे में महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनता चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है| उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है| इसीलिए इस दिव्य स्तोत्र का नाम ‘समस्त पापनाशक स्तोत्र’ है|
निम्नलिखित प्रकार से भगवान नारायण की स्तुति करें:
पुष्करोवाच
विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः ।
नमामि विष्णुं चित स्थमहंकारगतिं हरिम् ॥
चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम् ।
विष्णुमीडयमशेषेण अनादिनिधनं विभुम् ।।
विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत् ।
यच्चाहंकारगो विष्णुर्यव्दिष्णुमॅयि संस्थितः ॥
करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च ।
तत् पापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते ॥
ध्यातो हरति यत् पापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात् ।
तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्राणतातिॅहरं हरिम् ॥
जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने तमस्यधः ।
हस्तावलम्बनं विष्णुं प्रणमामि परात्परम् ॥
सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज ।
हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते ॥
नृसिंहानन्त गोविंद भूतभावन केशव ।
दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाधं नमोऽस्तु ते ॥
यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना ।
अकार्यँ महदत्युग्रं तच्छ्मं नय केशव ॥
ब्रह्मण्यदेव गोविंद परमार्थपरायण ।
जगन्नाथ जगध्दतः पापं प्रश्मयाच्युत ॥
यथापरह्मे सायाह्मे मध्याह्मे च तथा निशि ।
कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता ॥
जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव ।
नामत्रयोच्चारणतः पापं यातु मम क्षयम् ॥
शरीरं में हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव ।
पापं प्रशमयाध त्वं वाक्कृतं मम माधव ॥
यद् भुंजन यत् स्वपंस्तिष्ठन् गच्छन् जाग्रद यदास्थितः ।
कृतवान् पापमधाहं कायेन मनसा गिरा ॥
यत् स्वल्पमपि यत् स्थूलं कुयोनिनरकावहम् ।
तद् यातु प्रशमं सर्वं वासुदेवानुकीर्तनात् ॥
परं ब्रहम परं धाम पवित्रं परमं च यत् ।
तस्मिन् प्रकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु ॥
यत् प्राप्य न निवतॅन्ते गन्धस्पशाॅदिवजिॅतम् ।
सूरयस्तत् पदं विष्णोस्तत् सर्वं शमयत्वधम् ॥
( अग्नि पुराण : १७२.)
माहात्म्यं :-
पापप्रणाशनं स्त्रोत्रं यः पठेच्छृणुयादपि ।
शारीरैमॉनसैवॉग्जैः कृतैः पापैः प्रमुच्यते ॥
सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम् ।
तस्मात् पापे कृते जप्यं स्त्रोत्रं सवॉधमदॅनम्॥
प्रायश्चित्तमधौधानां स्त्रोत्रं व्रतकृते वरम् ।
प्रायश्चित्तैः स्त्रोत्रजपैर्व्रतैनॅश्यति पातकम् ॥
( अग्नि पुराण : १७२.१९ -२१ )
अर्थ: - पुष्कर बोले: “सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है। श्रीहरी विष्णु को नमस्कार है। मैं अपने चित में स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरी को नमस्कार करता हूँ।
मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनंत और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ।
सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है। विष्णु मेरे चित में निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मुझमें भी स्थित हैं।
वे श्रीविष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूप में स्थित हैं, उनके चिंतन से मेरे पाप का विनाश हो।
जो ध्यान करने पर पापों का हरण करते हैं और भावना करने से स्वप्न में दर्शन देते हैं, इन्द्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करनेवाले उन पापपहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।
मैं इस निराधार जगत में अज्ञानान्धकार में डूबते हुए को हाथ का सहारा देनेवाले परात्परस्वरुप श्रीविष्णु के सम्मुख नतमस्तक होता हूँ।
सर्वेश्वर प्रभो! कमलनयन परमात्मन्! हृषिकेश! आपको नमस्कार है| इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो! आपको नमस्कार है| नृसिंह! अनंतस्वरुप गोविन्द! समस्त भूतप्राणियों की सृष्टि करनेवाले केशव! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिंतन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिये, आपको नमस्कार है।
केशव! अपने मन के वश में होकर मैंने जो न करने योग्य अत्यंत उग्र पापपूर्ण चिंतन किया है, उसे शांत कीजिये।
परमार्थपरायण, ब्राह्मणप्रिय गोविन्द! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होनेवाले जगन्नाथ! जगत का भरण-पोषण करनेवाले देवेश्वर! मेरे पाप का विनाश कीजिये।
मैंने मध्यान्ह, अपरान्ह, सायंकल एवं रात्रि के समय जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो, ‘पुन्द्रिकाक्ष’, ‘हृषिकेश’, ‘माधव’- आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायें।
कमलनयन! लक्ष्मीपते! इन्द्रियों के स्वामी माधव! आज आप मेरे शारीर एवं वाणी द्वारा किये हुए पापों का हनन कीजिये।
आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शारीर से जो भी नीच योनी एवं नरक की प्राप्ति करनेवाले सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किये हों, भगवान वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हों जायें।
जो परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जायें। जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुन: लौटकर नहीं आते, जो गंध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित है, श्रीविष्णु का वह परम पद मेरे संपूर्ण पापों का शमन करे।”
महात्म्य : जो मनुष्य पापों का विनाश करनेवाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।
इसलिए किसी भी पाप के हो जाने पर इस स्तोत्र का जप करें। यह स्तोत्र पापसमुहों के प्रायश्चित के समान है । कृच्छर् आदि व्रत करनेवाले के लिए भी यह श्रेष्ठ है। स्तोत्र-जप और व्रतरूप प्रायश्चित से संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं । इसलिए भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए इनका अनुष्ठान करना चाहिए ।
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भगवन वेदव्यासजी द्वारा रचित अठारह पुराणों में से एक ‘अग्नि पुराण’ में अग्निदेव द्वारा महर्षि वशिष्ठ को दियें गये विभिन्न उपदेश हैं| इसीके अंतर्गत इस पापनाशक स्तोत्र के बारे में महात्मा पुष्कर कहते हैं कि मनुष्य चित्त की मलिनता चोरी, हत्या, परस्त्रीगमन आदि विभिन्न पाप करता है, पर जब चित कुछ शुद्ध होता है तब उसे इन पापों से मुक्ति की इच्छा होती है| उस समय भगवान नारायण की दिव्य स्तुति करने से समस्त पापों का प्रायश्चित पूर्ण होता है| इसीलिए इस दिव्य स्तोत्र का नाम ‘समस्त पापनाशक स्तोत्र’ है|
निम्नलिखित प्रकार से भगवान नारायण की स्तुति करें:
पुष्करोवाच
विष्णवे विष्णवे नित्यं विष्णवे विष्णवे नमः ।
नमामि विष्णुं चित स्थमहंकारगतिं हरिम् ॥
चित्तस्थमीशमव्यक्तमनन्तमपराजितम् ।
विष्णुमीडयमशेषेण अनादिनिधनं विभुम् ।।
विष्णुश्चित्तगतो यन्मे विष्णुर्बुद्धिगतश्च यत् ।
यच्चाहंकारगो विष्णुर्यव्दिष्णुमॅयि संस्थितः ॥
करोति कर्मभूतोऽसौ स्थावरस्य चरस्य च ।
तत् पापं नाशमायातु तस्मिन्नेव हि चिन्तिते ॥
ध्यातो हरति यत् पापं स्वप्ने दृष्टस्तु भावनात् ।
तमुपेन्द्रमहं विष्णुं प्राणतातिॅहरं हरिम् ॥
जगत्यस्मिन्निराधारे मज्जमाने तमस्यधः ।
हस्तावलम्बनं विष्णुं प्रणमामि परात्परम् ॥
सर्वेश्वरेश्वर विभो परमात्मन्नधोक्षज ।
हृषीकेश हृषीकेश हृषीकेश नमोऽस्तु ते ॥
नृसिंहानन्त गोविंद भूतभावन केशव ।
दुरुक्तं दुष्कृतं ध्यातं शमयाधं नमोऽस्तु ते ॥
यन्मया चिन्तितं दुष्टं स्वचित्तवशवर्तिना ।
अकार्यँ महदत्युग्रं तच्छ्मं नय केशव ॥
ब्रह्मण्यदेव गोविंद परमार्थपरायण ।
जगन्नाथ जगध्दतः पापं प्रश्मयाच्युत ॥
यथापरह्मे सायाह्मे मध्याह्मे च तथा निशि ।
कायेन मनसा वाचा कृतं पापमजानता ॥
जानता च हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव ।
नामत्रयोच्चारणतः पापं यातु मम क्षयम् ॥
शरीरं में हृषीकेश पुण्डरीकाक्ष माधव ।
पापं प्रशमयाध त्वं वाक्कृतं मम माधव ॥
यद् भुंजन यत् स्वपंस्तिष्ठन् गच्छन् जाग्रद यदास्थितः ।
कृतवान् पापमधाहं कायेन मनसा गिरा ॥
यत् स्वल्पमपि यत् स्थूलं कुयोनिनरकावहम् ।
तद् यातु प्रशमं सर्वं वासुदेवानुकीर्तनात् ॥
परं ब्रहम परं धाम पवित्रं परमं च यत् ।
तस्मिन् प्रकीर्तिते विष्णौ यत् पापं तत् प्रणश्यतु ॥
यत् प्राप्य न निवतॅन्ते गन्धस्पशाॅदिवजिॅतम् ।
सूरयस्तत् पदं विष्णोस्तत् सर्वं शमयत्वधम् ॥
( अग्नि पुराण : १७२.)
माहात्म्यं :-
पापप्रणाशनं स्त्रोत्रं यः पठेच्छृणुयादपि ।
शारीरैमॉनसैवॉग्जैः कृतैः पापैः प्रमुच्यते ॥
सर्वपापग्रहादिभ्यो याति विष्णोः परं पदम् ।
तस्मात् पापे कृते जप्यं स्त्रोत्रं सवॉधमदॅनम्॥
प्रायश्चित्तमधौधानां स्त्रोत्रं व्रतकृते वरम् ।
प्रायश्चित्तैः स्त्रोत्रजपैर्व्रतैनॅश्यति पातकम् ॥
( अग्नि पुराण : १७२.१९ -२१ )
अर्थ: - पुष्कर बोले: “सर्वव्यापी विष्णु को सदा नमस्कार है। श्रीहरी विष्णु को नमस्कार है। मैं अपने चित में स्थित सर्वव्यापी, अहंकारशून्य श्रीहरी को नमस्कार करता हूँ।
मैं अपने मानस में विराजमान अव्यक्त, अनंत और अपराजित परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ।
सबके पूजनीय, जन्म और मरण से रहित, प्रभावशाली श्रीविष्णु को नमस्कार है। विष्णु मेरे चित में निवास करते हैं, विष्णु मेरी बुद्धि में विराजमान हैं, विष्णु मुझमें भी स्थित हैं।
वे श्रीविष्णु ही चराचर प्राणियों के कर्मों के रूप में स्थित हैं, उनके चिंतन से मेरे पाप का विनाश हो।
जो ध्यान करने पर पापों का हरण करते हैं और भावना करने से स्वप्न में दर्शन देते हैं, इन्द्र के अनुज, शरणागतजनों का दुःख दूर करनेवाले उन पापपहारी श्रीविष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ।
मैं इस निराधार जगत में अज्ञानान्धकार में डूबते हुए को हाथ का सहारा देनेवाले परात्परस्वरुप श्रीविष्णु के सम्मुख नतमस्तक होता हूँ।
सर्वेश्वर प्रभो! कमलनयन परमात्मन्! हृषिकेश! आपको नमस्कार है| इन्द्रियों के स्वामी श्रीविष्णो! आपको नमस्कार है| नृसिंह! अनंतस्वरुप गोविन्द! समस्त भूतप्राणियों की सृष्टि करनेवाले केशव! मेरे द्वारा जो दुर्वचन कहा गया हो अथवा पापपूर्ण चिंतन किया गया हो, मेरे उस पाप का प्रशमन कीजिये, आपको नमस्कार है।
केशव! अपने मन के वश में होकर मैंने जो न करने योग्य अत्यंत उग्र पापपूर्ण चिंतन किया है, उसे शांत कीजिये।
परमार्थपरायण, ब्राह्मणप्रिय गोविन्द! अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होनेवाले जगन्नाथ! जगत का भरण-पोषण करनेवाले देवेश्वर! मेरे पाप का विनाश कीजिये।
मैंने मध्यान्ह, अपरान्ह, सायंकल एवं रात्रि के समय जानते हुए अथवा अनजाने, शरीर, मन एवं वाणी के द्वारा जो पाप किया हो, ‘पुन्द्रिकाक्ष’, ‘हृषिकेश’, ‘माधव’- आपके इन तीन नामों के उच्चारण से मेरे वे सब पाप क्षीण हो जायें।
कमलनयन! लक्ष्मीपते! इन्द्रियों के स्वामी माधव! आज आप मेरे शारीर एवं वाणी द्वारा किये हुए पापों का हनन कीजिये।
आज मैंने खाते, सोते, खड़े, चलते अथवा जागते हुए मन, वाणी और शारीर से जो भी नीच योनी एवं नरक की प्राप्ति करनेवाले सूक्ष्म अथवा स्थूल पाप किये हों, भगवान वासुदेव के नामोच्चारण से वे सब विनष्ट हों जायें।
जो परब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं, उन श्रीविष्णु के संकीर्तन से मेरे पाप लुप्त हो जायें। जिसको प्राप्त होकर ज्ञानीजन पुन: लौटकर नहीं आते, जो गंध, स्पर्श आदि तन्मात्राओं से रहित है, श्रीविष्णु का वह परम पद मेरे संपूर्ण पापों का शमन करे।”
महात्म्य : जो मनुष्य पापों का विनाश करनेवाले इस स्तोत्र का पठन अथवा श्रवण करता है, वह शरीर, मन और वाणीजनित समस्त पापों से छूट जाता है एवं समस्त पापग्रहों से मुक्त होकर श्रीविष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।
इसलिए किसी भी पाप के हो जाने पर इस स्तोत्र का जप करें। यह स्तोत्र पापसमुहों के प्रायश्चित के समान है । कृच्छर् आदि व्रत करनेवाले के लिए भी यह श्रेष्ठ है। स्तोत्र-जप और व्रतरूप प्रायश्चित से संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं । इसलिए भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए इनका अनुष्ठान करना चाहिए ।
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Friday, 24 November 2017
Karman ghat hanuman temple करमन घाट हनुमान मंदिर
कर मन घाट हनुमान मंदिर
जहां डर कर बेहोश हो गया था औरंगज़ेब
आज से करीब 1000 साल पहले 12वीं शताब्दी के लगभग काकतीय वंश के राजा प्रताप रुद्र द्वितीय अपने राज्य से बहुत दूर घने जंगल में शिकार खेलने गए और शिकार खेलते खेलते ही अँधेरा हो गया। जब वह बहुत थक गए तो उन्हें उन्होंने सोचा ईसी जंगल में रात बिताई जाए। रात में राजा वही एक पेड़ के नीचे सो गए अचानक आधी रात को उनकी नींद खुली और उन्हें सुनाई पड़ा कि जैसे कोई भगवान श्री राम के नाम का जप कर रहा है।
इस घटना से राजा अत्यंत विस्मित हुए उन्होंने उठकर आसपास देखा और थोड़ी दूर में ढूंढने पर पाया कि वहां पर एक हनुमान जी की मूर्ति ध्यान मुद्रा में बैठी हुई है उस मूर्ति में अवर्णनीय आकर्षण था ध्यान से देखने पर पता चला कि श्री राम नाम का जप उसी मूर्ति की तरफ से आ रहा था।
राजा और भी अधिक आश्चर्यचकित हो गया और सोचने लगा कि कैसे एक मूर्ति भगवान के नाम का जप कर सकती है?
राजा लगातार उसी मूर्ति को देखे जा रहा था थोड़ी देर में उसे ऐसा दिखा जैसे खुद वहां मूर्ति नहीं बल्कि खुद हनुमान जी बैठे हुए हैं और अपने प्रभु श्रीराम का स्मरण कर रहे हैं।
जब राजा को यह एहसास हुआ कि यह मूर्ति नहीं स्वयं हनुमान जी है तब राजा प्रताप रुद्र ने तुरंत उस मूर्ति के आगे दंडवत प्रणाम किया और राजा बहुत देर तक श्रद्धापूर्वक उसी मूर्ति के आगे प्रार्थना की मुद्रा में बैठा रहा और फिर वापस सोने चला गया।
जब राजा को गहरी नींद आई तो उसने स्वप्न देखा और उस स्वप्न में स्वयं हनुमान जी प्रकट हुए और राजा से कहा कि वह यहां पर उनका मंदिर बनाए।
स्वप्न देखकर राजा की नींद खुल गई और वहां से तुरन्त अपने राज्य की ओर वापस चल पड़ा।
अपने राज्य में पहुंचकर राजा ने एक अपने समस्त मंत्रियों सलाहकारों और विद्वानों को बुलाकर एक विशेष आपातकालीन सभा बुलाई और उसमें अपने सपने के बारे में सबको बताया,
राजा द्वारा बताए हुए स्वप्न से आश्चर्यचकित सभी लोगों ने एक सुर में कहा - "हे राजेंद्र निश्चित रूप से यह आपके लिए बहुत ही शुभ स्वप्न है और इससे आपका कीर्तिवर्धन होगा और आपका राजू निरंतर उन्नति करेगा आपको तुरंत यहां पर एक मंदिर बनाना चाहिए ।"
शुभ मुहूर्त में मंदिर का निर्माण शुरू हुआ ठीक उसी स्थान पर जहां राजा ने श्री हनुमान जी की मूर्ति को भगवान श्री राम का जप करते देखा था और राजा ने एक बहुत ही सुंदर मंदिर का निर्माण कर दिया।
श्रीराम का ध्यान करते हनुमान जी के इस मंदिर को नाम दिया गया " ध्यानञ्जनेय स्वामी" मन्दिर।
धीरे-धीरे इस मंदिर की ख्याति चारों तरफ फैल गई और दूर दूर के राज्यों से लोग इस के दर्शन करने आने लगे।
इस दैवीय घटना के लगभग 500 वर्ष बाद अबुल मुजफ्फर मोहीउद्दीन मोहम्मद औरंगजेब जिसे औरंगजेब के नाम से ही सर्वस्व ख्याति प्राप्त थी मुग़ल सल्तनत का बादशाह बना।
इस दुष्ट, लालची और क्रूर औरंगजेब का एक और नाम था आलमगीर जिसका मतलब होता है विश्व विजेता। इस आलमगीर औरंगजेब के सिर्फ दो ही मकसद थे।
1. सबसे पहले पूरे भारतीय महाद्वीप पर अपना मुगल सामराज्य फैलाना ।
2.इस्लाम की स्थापना करना और हिंदू मंदिरों को तोड़ना इस दुनिया से हिंदू धर्म का समापन और सभी जगह इस्लाम का विस्तार वाद।
सूफी फकीर सरमद कासनी और माँ भारती के सिंह सपूत गुरु तेग बहादुर जी ने औरंगजेब के अत्याचारों के खिलाफ बड़ी मुहिम खड़ी कर दी थी जिससे उसकी सल्तनत हिल गई थी ।
औरंगजेब ने उनसे बदला लेने के लिए जहां सूफी संत का सिर कलम करवा दिया था वही जबरन मुसलमान बनाए जाने के विरोध जब गुरु गोविंद गुरु तेग बहादुर जी ने किया और जबरन उसका इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं किया तो औरंगजेब ने उन्हें भी मरवा दिया ।
इतिहासकारों के अनुसार
औरंगज़ेब ने हिंदुओं के 15 मुख्य मंदिर तोड़े और तोड़ने का प्रयास किया। जिसमें काशी विश्वनाथ, सोमनाथ और केशव देव मंदिर भी हैं।
औरंगज़ेब समेत मुग़ल काल में 60 हजार से भी अधिक मंदिर ध्वस्त कर दिए गए थे, जिनमें सबसे अधिक् हानि औरंगज़ेब के समय ही हुई।
अपने मुगल साम्राज्य और इस्लाम के विस्तारवाद के ध्येय से उत्तर भारत के राज्यों को जीत कर और यहां के मंदिरों को लूट और तोड़ कर ज़ालिम औरँगजेब ने दक्खन की तरफ रुख किया।
दक्खन में उसका सबसे बड़ा निशाना था गोलकुंडा का किला क्योंकि बेहद बेशकीमती हिरे जवाहरातों से भरे खजानो से वो दुनिया के सबसे अमीर किलों और राज्यों में से एक था और वहां कुतुबशाही वंश का राज्य कायम था।
अपनी विशाल क्रूर सेना के साथ औरंगजेब के लिए कोई मुश्किल काम नहीं था और सन 1687 में उसने गोलकुंडा के किले पर अपना कब्जा जमा लिया। गोलकुंडा का किला धन से भले ही सबसे अमीर था पर वहां के सुल्तान की शक्ति और सैन्यबल मुग़ल आक्रांता के सामने बेहद क्षीण थी।
किले पर कब्जे के बाद उसने वहां के मंदिरों को ध्वस्त करने का अभियान शुरू किया और इसी क्रम मे उसका वो हैदराबाद के बाहरी इलाके में बसे एक हनुमान मंदिर में पहुंचा और अपीने सेनापति को इस मंदिर को गिराने का आदेश देकर चला गया।
औरँगगज़ेब का दुर्भाग्य था कि ये वही ध्यानञ्जनेय स्वामी का मंदिर था।
मंदिर के बाहर आलमगीर के सेनापति ने कहा कि मंदिर के भीतर से सभी पुजारी, कर्मचारी और भक्त बाहर निकल आये वरना सबको मौत की नींद सुला दिया जायेगा।
मृत्यु के भय से थर थर कांपते मंदिर के अंदर मौजूद सभी पुजारी एवं अन्य लोग भगवान श्रीराम के ध्यान में लीन श्री हनुमान जी को प्रणाम कर इस विपदा को रोकने की प्रार्थना करते हुए बाहर निकल आये।
अपने इष्टदेव का मंदिर टूटते देखनेका साहस किसी में नहीं था इसलिए सबने इस दुर्दांत दृश्य के प्रति अपनी आंखें बंद कर लीं और मन ही मन हनुमान जी का स्मरण करने लगे।
मुग़ल सेनापति ने उन्हें एक तरफ खड़े हो जाने को कहा और अपनी सेना को हुक्म दिया की मंदिर तोड़ दो। सैनिक मंदिर की तरफ बढ़ने लगे।
तभी मंदिर के प्रमुख पुजारी सेनापति के पास आये और बोले - हे सेनापति मुझे आपके हाथों मृत्यु होने का कोई भय नहीं है, मैं आपसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ कृपया कुछ क्षण के लिए मेरी बात सुन लीजिये।
अपने काम के बीच में आने से गुस्से से भरा सेनापति बोला - जल्दी कहो ब्राह्मण
पुजारी जी बोले-
ये श्रीराम के ध्यान में लीन श्री हनुमान जी का मंदिर है। हनुमान जी सभी देवताओं में सबसे बलशाली है, उन्होंने अकेले ही रावण की पूरी लंका को जला कर राख कर दी थी। कृपया उनका ध्यान भंग न करें और मंदिर न तोड़िये अन्यथा वो शांत नहीं बैठेंगे। मैं आपके ही भले के लिए कह रहा हूँ, मेरी बात मानिये और ये काम मत कीजिये, हनुमान जी बहुत दयालु हैं आपको माफ़ कर देंगे।
क्रूर सेनापति इससे अधिक नहीं सुन सकता था। उसे तो इस्लाम का झंडा फहराने की जल्दी थी।
बोला- ऐ ब्राह्मण ... अपना मुंह बंद करो और यहां से दूर हट जाओ वरना मैं पहले तुम्हे मारूँगा और फिर इस मंदिर को तोडूंगा।
देखते हैं कैसे तुम्हारे ताकतवर हनुमान हमारे हाथों से इस मंदिर को टूटने से बचाते हैं? जिन्होंने पहले भी इससे कहिं ज्यादा बड़े मंदिर तोड़े हैं।
सेनापति अपनी सेना की तरफ मुड़ा और उसे मंदिर तोड़ने का आदेश दिया।
अगले कुछ क्षणों में क्या होने वाला है..??
इस बात से अंजान मुगल सैनिक मंदिर तोड़ने के हथियार हथौड़े, सब्बल कुदाल आदि लेकर एक बहुत बड़ी बेवकूफी करने के लिए मंदिर की तरफ बढ़ने लगे।
फिर...
पहले सैनिक ने जैसे ही अपने हाथों में सब्बल लेकर मंदिर की दीवार पर प्रहार करने के लिए हाथ उठाया ...
वो मूर्तिवत खड़ा रह गया जैसे बर्फ में जम गया हो या पत्थर का हो गया हो। वो न अपने हाथ हिला पा रहा था और न ही औजार। भीषण भय से भरी नजरों से वो मंदिर की दीवार की तरफ देखे जा रहा था।
कुछ ऐसी ही स्थिति एक एक कर उन सभी सैनिकों की होती गयी जो मंदिर तोड़ने के लिए औजार लेकर हमला करने बढ़े थे।
सब के सब मूर्ति की तरह खड़े रह गए थे।
महान मुगल बादशाह के सैकड़ों मंदिर तोड़ चुके सेनापति के लिए ये अविश्वसनीय चमत्कार एक बहुत झटका था।
उसने तुरंत छिपी हुई नज़रों से मंदिर के प्रमुख पुजारी के चेहरे की तरफ देखा जिन्होंने कुछ पलों पहले उसे मंदिर तोड़ने से रोका था, और देखा की पुजारी जी शांत भाव से सेनापति को देख रहे थे।
उसने तुरंत पलटते हुए सेना को आदेश दिया की फौरन बादशाह सलामत के दरबार में हाज़िर हों।
सेनापति खुद औरंगज़ेब के सामने पहुँचा और बोला-
" जहाँपनाह, आपके हुक्म के मुताबिक हमने उस हनुमान मंदिर को तोड़ने की कोशिश की, लेकिन हम उसे तोड़ने के लिए एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाये।"
" जहाँपनाह, जरूर उस मंदिर में कोई रूहानी ताकत है... मंदिर के पुजारी ने भी कहा था कि हनुमान हिन्दुओ के सब देवताओं में सबसे ताकतवर देवता है।
जहांपनाह की इजाज़त हो तो मेरी सलाह है कि हम अब उस मंदिर की तरफ नज़र भी न डालें।"
अपने सेनापति की नाकामी और बिन मांगी सलाह से गुस्से में भरा औरंगज़ेब चीखते हुए बोला-
"खामोश, बेवकूफ, अगर तुम्हारी जगह कोई और होता तो हम अपनी तलवार से उसके टुकड़े कर देते। तुम पर इसलिये रहम कर रहे हैं क्योंकि तुमने बहुत सालों से हमारे वफादार हो।"
" सुनो... अब सेना की कमान मेरे हाथ रहेगी, मोर्चा मैं सम्हालूंगा। कल हम उस हनुमान मंदिर जायेंगे और मैं खुद औज़ार से उस मंदिर को तोडूंगा।
देखता हूँ कैसे वो हिन्दू देवता हनुमान मेरे फौलादी हाथों से अपने मंदिर को टूटने से बचाता है।
मैं ललकारता हूँ उस हनुमान को..."
अगले दिन सुबह
आलमगीर औरंगज़ेब एक बड़े से लश्कर के साथ उस हनुमान मंदिर को तोड़ने चल पड़ा।
हालाँकि उसके वो सैनिक पिछले दिन की घटना को याद कर मन में बेहद घबराये हुए थे पर अपने ज़ालिम बादशाह का हुक्म भी उन्हें मानना था वरना वो उन्हें मारकर गोलकुंडा के मुख्य चौक पर टांग देता।
मन ही मन हनुमान जी से क्षमा मांगते हुए वो सिपाही चुपचाप मंदिर की तरफ बढ़ने लगे।
मंदिर पहुंचकर औरंगज़ेब ने आदेश दिया की भीतर जो भी लोग हैं तुरन्त बाहर आ जाएं वरना जान से जायेंगे।
"विनाश काले विपरीत बुद्धि" मन ही मन कहते हुए मंदिर के अंदर से सभी पुजारी और कर्मचारी बाहर आ गए।
उनकी तरफ अपनी अंगारो से भरी लाल ऑंखें तरेरता हुआ गुस्से से भरा औरंगजेब बोला-
" अगर किसी ने भी अपना मुंह खोला तो उसकी ज़बान के टुकड़े टुकड़े कर दूंगा, खामोश एक तरफ खड़े रहो और चुपचाप सब देखते रहो।"
(वो नहीं चाहता था कि पुजारी फिर से कुछ बोले या उसे टोके और उसका काम रुक जाए)
वहां खड़े सब लोग भय से भरे खड़े थे और औरंगज़ेब की बेवकूफी को देख रहे थे। औरंगज़ेब ने एक बड़ा सा सब्बल लिया और बादशाही अकड़ के साथ मंदिर की तरफ बढ़ने लगा।
उस समय जैसे हवा भी रुक गयी थी, एक महापाप होने जा रहा था, भयातुर दृष्टि से सब औरंगजेब की इस करतूत को देख रहे थे जो "पवनपुत्र " को हराने के लिए कदम बढ़ा रहा था।
अगले पलों में क्या होगा इस बात से अंजान और आस पास के माहौल से बेखबर, घमण्ड से भरा हुआ औरंगजेब मंदिर की मुख्य दीवार के पास पहुंचा और जैसे ही उसने दीवार तोड़ने के लिए सब्बल से प्रहार करने के लिए हाथ उठाया...
उसे मंदिर के भीतर से एक भीषण गर्जन सुनाई पड़ा, इतना तेज़ और भयंकर की कान के पर्दे फट जाएँ, जैसे हजारों बिजलियां आकाश में एक साथ गरज पड़ी हों....
यह गर्जन इतना भयंकर था कि हजारों मंदिर तोड़ने वाला और हिंदुस्तान के अधिकतर हिस्से पर कब्जा जमा चूका औरंगज़ेब भी डर के मारे मूर्तिवत स्तब्ध और जड़ हो गया, और..
उसने अपने दोनों हाथों से अपने कान बन्द कर लिए।
वो भीषण गर्जन बढ़ता ही जा रहा था
औरंगज़ेब भौचक्का रह गया था...
औरंगज़ेब जड़ हो चूका था...
निशब्द हो चूका था...
काल को भी कंपा देने वाले उस भीषण गर्जन को सुनकर वो पागल होने वाला था
लेकिन अभी उसे और हैरान होना था
उस भीषण गर्जन के बाद मंदिर से आवाज़ आयी
..." अगर मंदिर तोडना चाहते हो राजन, तो कर मन घाट"
(यानि हे राजा अगर मंदिर तोडना चाहते हो तो पहले दिल मजबूत करो)
डर और हैरानी भरा हुआ औरंगज़ेब इतना सुनते ही बेहोश हो गया।
इसके बाद क्या हुआ उसे पता भी न चला।
मंदिर के भीतर से आते इस घनघोर गर्जन और आवाज़ को वहां खड़े पुजारी और भक्तगण समझ गए की ये उनके इष्ट देव श्री हनुमानजी की ही आवाज़ है
उन सभी ने वहीं से बजरँगबली को दण्डवत प्रणाम किया और उनकी स्तुति की।
उधर बेहोश हुए औरंगज़ेब को सम्हालने उसके सैनिक दौड़े और उसे मंदिर से निकाल कर वापस किले में ले गए।
हनुमान जी के शब्दों से ही उस मंदिर का नया नाम पड़ा जो आज तक उसी नाम से जाना जाता है-
" करमन घाट हनुमान मंदिर"
इस घटना के बाद लोगो में इस मंदिर के प्रति अगाध श्रद्धा हुई और इस मंदिर से जुड़े अनेकों चमत्कारिक अनुभव लोगों को हुए।
सन्तानहीन स्त्रियों को यहां आने से निश्चित ही सन्तान प्राप्त होती है और अनेक गम्भीर लाइलाज बीमारियों के मरीज यहाँ हनुमान जी की कृपा से स्वस्थ हो चुके हैं।
।।जय श्री राम।।
अभिषेक बी. पाण्डेय
नैनीताल, उत्तराखण्ड
जहां डर कर बेहोश हो गया था औरंगज़ेब
आज से करीब 1000 साल पहले 12वीं शताब्दी के लगभग काकतीय वंश के राजा प्रताप रुद्र द्वितीय अपने राज्य से बहुत दूर घने जंगल में शिकार खेलने गए और शिकार खेलते खेलते ही अँधेरा हो गया। जब वह बहुत थक गए तो उन्हें उन्होंने सोचा ईसी जंगल में रात बिताई जाए। रात में राजा वही एक पेड़ के नीचे सो गए अचानक आधी रात को उनकी नींद खुली और उन्हें सुनाई पड़ा कि जैसे कोई भगवान श्री राम के नाम का जप कर रहा है।
इस घटना से राजा अत्यंत विस्मित हुए उन्होंने उठकर आसपास देखा और थोड़ी दूर में ढूंढने पर पाया कि वहां पर एक हनुमान जी की मूर्ति ध्यान मुद्रा में बैठी हुई है उस मूर्ति में अवर्णनीय आकर्षण था ध्यान से देखने पर पता चला कि श्री राम नाम का जप उसी मूर्ति की तरफ से आ रहा था।
राजा और भी अधिक आश्चर्यचकित हो गया और सोचने लगा कि कैसे एक मूर्ति भगवान के नाम का जप कर सकती है?
राजा लगातार उसी मूर्ति को देखे जा रहा था थोड़ी देर में उसे ऐसा दिखा जैसे खुद वहां मूर्ति नहीं बल्कि खुद हनुमान जी बैठे हुए हैं और अपने प्रभु श्रीराम का स्मरण कर रहे हैं।
जब राजा को यह एहसास हुआ कि यह मूर्ति नहीं स्वयं हनुमान जी है तब राजा प्रताप रुद्र ने तुरंत उस मूर्ति के आगे दंडवत प्रणाम किया और राजा बहुत देर तक श्रद्धापूर्वक उसी मूर्ति के आगे प्रार्थना की मुद्रा में बैठा रहा और फिर वापस सोने चला गया।
जब राजा को गहरी नींद आई तो उसने स्वप्न देखा और उस स्वप्न में स्वयं हनुमान जी प्रकट हुए और राजा से कहा कि वह यहां पर उनका मंदिर बनाए।
स्वप्न देखकर राजा की नींद खुल गई और वहां से तुरन्त अपने राज्य की ओर वापस चल पड़ा।
अपने राज्य में पहुंचकर राजा ने एक अपने समस्त मंत्रियों सलाहकारों और विद्वानों को बुलाकर एक विशेष आपातकालीन सभा बुलाई और उसमें अपने सपने के बारे में सबको बताया,
राजा द्वारा बताए हुए स्वप्न से आश्चर्यचकित सभी लोगों ने एक सुर में कहा - "हे राजेंद्र निश्चित रूप से यह आपके लिए बहुत ही शुभ स्वप्न है और इससे आपका कीर्तिवर्धन होगा और आपका राजू निरंतर उन्नति करेगा आपको तुरंत यहां पर एक मंदिर बनाना चाहिए ।"
शुभ मुहूर्त में मंदिर का निर्माण शुरू हुआ ठीक उसी स्थान पर जहां राजा ने श्री हनुमान जी की मूर्ति को भगवान श्री राम का जप करते देखा था और राजा ने एक बहुत ही सुंदर मंदिर का निर्माण कर दिया।
श्रीराम का ध्यान करते हनुमान जी के इस मंदिर को नाम दिया गया " ध्यानञ्जनेय स्वामी" मन्दिर।
धीरे-धीरे इस मंदिर की ख्याति चारों तरफ फैल गई और दूर दूर के राज्यों से लोग इस के दर्शन करने आने लगे।
इस दैवीय घटना के लगभग 500 वर्ष बाद अबुल मुजफ्फर मोहीउद्दीन मोहम्मद औरंगजेब जिसे औरंगजेब के नाम से ही सर्वस्व ख्याति प्राप्त थी मुग़ल सल्तनत का बादशाह बना।
इस दुष्ट, लालची और क्रूर औरंगजेब का एक और नाम था आलमगीर जिसका मतलब होता है विश्व विजेता। इस आलमगीर औरंगजेब के सिर्फ दो ही मकसद थे।
1. सबसे पहले पूरे भारतीय महाद्वीप पर अपना मुगल सामराज्य फैलाना ।
2.इस्लाम की स्थापना करना और हिंदू मंदिरों को तोड़ना इस दुनिया से हिंदू धर्म का समापन और सभी जगह इस्लाम का विस्तार वाद।
सूफी फकीर सरमद कासनी और माँ भारती के सिंह सपूत गुरु तेग बहादुर जी ने औरंगजेब के अत्याचारों के खिलाफ बड़ी मुहिम खड़ी कर दी थी जिससे उसकी सल्तनत हिल गई थी ।
औरंगजेब ने उनसे बदला लेने के लिए जहां सूफी संत का सिर कलम करवा दिया था वही जबरन मुसलमान बनाए जाने के विरोध जब गुरु गोविंद गुरु तेग बहादुर जी ने किया और जबरन उसका इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं किया तो औरंगजेब ने उन्हें भी मरवा दिया ।
इतिहासकारों के अनुसार
औरंगज़ेब ने हिंदुओं के 15 मुख्य मंदिर तोड़े और तोड़ने का प्रयास किया। जिसमें काशी विश्वनाथ, सोमनाथ और केशव देव मंदिर भी हैं।
औरंगज़ेब समेत मुग़ल काल में 60 हजार से भी अधिक मंदिर ध्वस्त कर दिए गए थे, जिनमें सबसे अधिक् हानि औरंगज़ेब के समय ही हुई।
अपने मुगल साम्राज्य और इस्लाम के विस्तारवाद के ध्येय से उत्तर भारत के राज्यों को जीत कर और यहां के मंदिरों को लूट और तोड़ कर ज़ालिम औरँगजेब ने दक्खन की तरफ रुख किया।
दक्खन में उसका सबसे बड़ा निशाना था गोलकुंडा का किला क्योंकि बेहद बेशकीमती हिरे जवाहरातों से भरे खजानो से वो दुनिया के सबसे अमीर किलों और राज्यों में से एक था और वहां कुतुबशाही वंश का राज्य कायम था।
अपनी विशाल क्रूर सेना के साथ औरंगजेब के लिए कोई मुश्किल काम नहीं था और सन 1687 में उसने गोलकुंडा के किले पर अपना कब्जा जमा लिया। गोलकुंडा का किला धन से भले ही सबसे अमीर था पर वहां के सुल्तान की शक्ति और सैन्यबल मुग़ल आक्रांता के सामने बेहद क्षीण थी।
किले पर कब्जे के बाद उसने वहां के मंदिरों को ध्वस्त करने का अभियान शुरू किया और इसी क्रम मे उसका वो हैदराबाद के बाहरी इलाके में बसे एक हनुमान मंदिर में पहुंचा और अपीने सेनापति को इस मंदिर को गिराने का आदेश देकर चला गया।
औरँगगज़ेब का दुर्भाग्य था कि ये वही ध्यानञ्जनेय स्वामी का मंदिर था।
मंदिर के बाहर आलमगीर के सेनापति ने कहा कि मंदिर के भीतर से सभी पुजारी, कर्मचारी और भक्त बाहर निकल आये वरना सबको मौत की नींद सुला दिया जायेगा।
मृत्यु के भय से थर थर कांपते मंदिर के अंदर मौजूद सभी पुजारी एवं अन्य लोग भगवान श्रीराम के ध्यान में लीन श्री हनुमान जी को प्रणाम कर इस विपदा को रोकने की प्रार्थना करते हुए बाहर निकल आये।
अपने इष्टदेव का मंदिर टूटते देखनेका साहस किसी में नहीं था इसलिए सबने इस दुर्दांत दृश्य के प्रति अपनी आंखें बंद कर लीं और मन ही मन हनुमान जी का स्मरण करने लगे।
मुग़ल सेनापति ने उन्हें एक तरफ खड़े हो जाने को कहा और अपनी सेना को हुक्म दिया की मंदिर तोड़ दो। सैनिक मंदिर की तरफ बढ़ने लगे।
तभी मंदिर के प्रमुख पुजारी सेनापति के पास आये और बोले - हे सेनापति मुझे आपके हाथों मृत्यु होने का कोई भय नहीं है, मैं आपसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ कृपया कुछ क्षण के लिए मेरी बात सुन लीजिये।
अपने काम के बीच में आने से गुस्से से भरा सेनापति बोला - जल्दी कहो ब्राह्मण
पुजारी जी बोले-
ये श्रीराम के ध्यान में लीन श्री हनुमान जी का मंदिर है। हनुमान जी सभी देवताओं में सबसे बलशाली है, उन्होंने अकेले ही रावण की पूरी लंका को जला कर राख कर दी थी। कृपया उनका ध्यान भंग न करें और मंदिर न तोड़िये अन्यथा वो शांत नहीं बैठेंगे। मैं आपके ही भले के लिए कह रहा हूँ, मेरी बात मानिये और ये काम मत कीजिये, हनुमान जी बहुत दयालु हैं आपको माफ़ कर देंगे।
क्रूर सेनापति इससे अधिक नहीं सुन सकता था। उसे तो इस्लाम का झंडा फहराने की जल्दी थी।
बोला- ऐ ब्राह्मण ... अपना मुंह बंद करो और यहां से दूर हट जाओ वरना मैं पहले तुम्हे मारूँगा और फिर इस मंदिर को तोडूंगा।
देखते हैं कैसे तुम्हारे ताकतवर हनुमान हमारे हाथों से इस मंदिर को टूटने से बचाते हैं? जिन्होंने पहले भी इससे कहिं ज्यादा बड़े मंदिर तोड़े हैं।
सेनापति अपनी सेना की तरफ मुड़ा और उसे मंदिर तोड़ने का आदेश दिया।
अगले कुछ क्षणों में क्या होने वाला है..??
इस बात से अंजान मुगल सैनिक मंदिर तोड़ने के हथियार हथौड़े, सब्बल कुदाल आदि लेकर एक बहुत बड़ी बेवकूफी करने के लिए मंदिर की तरफ बढ़ने लगे।
फिर...
पहले सैनिक ने जैसे ही अपने हाथों में सब्बल लेकर मंदिर की दीवार पर प्रहार करने के लिए हाथ उठाया ...
वो मूर्तिवत खड़ा रह गया जैसे बर्फ में जम गया हो या पत्थर का हो गया हो। वो न अपने हाथ हिला पा रहा था और न ही औजार। भीषण भय से भरी नजरों से वो मंदिर की दीवार की तरफ देखे जा रहा था।
कुछ ऐसी ही स्थिति एक एक कर उन सभी सैनिकों की होती गयी जो मंदिर तोड़ने के लिए औजार लेकर हमला करने बढ़े थे।
सब के सब मूर्ति की तरह खड़े रह गए थे।
महान मुगल बादशाह के सैकड़ों मंदिर तोड़ चुके सेनापति के लिए ये अविश्वसनीय चमत्कार एक बहुत झटका था।
उसने तुरंत छिपी हुई नज़रों से मंदिर के प्रमुख पुजारी के चेहरे की तरफ देखा जिन्होंने कुछ पलों पहले उसे मंदिर तोड़ने से रोका था, और देखा की पुजारी जी शांत भाव से सेनापति को देख रहे थे।
उसने तुरंत पलटते हुए सेना को आदेश दिया की फौरन बादशाह सलामत के दरबार में हाज़िर हों।
सेनापति खुद औरंगज़ेब के सामने पहुँचा और बोला-
" जहाँपनाह, आपके हुक्म के मुताबिक हमने उस हनुमान मंदिर को तोड़ने की कोशिश की, लेकिन हम उसे तोड़ने के लिए एक इंच भी आगे नहीं बढ़ पाये।"
" जहाँपनाह, जरूर उस मंदिर में कोई रूहानी ताकत है... मंदिर के पुजारी ने भी कहा था कि हनुमान हिन्दुओ के सब देवताओं में सबसे ताकतवर देवता है।
जहांपनाह की इजाज़त हो तो मेरी सलाह है कि हम अब उस मंदिर की तरफ नज़र भी न डालें।"
अपने सेनापति की नाकामी और बिन मांगी सलाह से गुस्से में भरा औरंगज़ेब चीखते हुए बोला-
"खामोश, बेवकूफ, अगर तुम्हारी जगह कोई और होता तो हम अपनी तलवार से उसके टुकड़े कर देते। तुम पर इसलिये रहम कर रहे हैं क्योंकि तुमने बहुत सालों से हमारे वफादार हो।"
" सुनो... अब सेना की कमान मेरे हाथ रहेगी, मोर्चा मैं सम्हालूंगा। कल हम उस हनुमान मंदिर जायेंगे और मैं खुद औज़ार से उस मंदिर को तोडूंगा।
देखता हूँ कैसे वो हिन्दू देवता हनुमान मेरे फौलादी हाथों से अपने मंदिर को टूटने से बचाता है।
मैं ललकारता हूँ उस हनुमान को..."
अगले दिन सुबह
आलमगीर औरंगज़ेब एक बड़े से लश्कर के साथ उस हनुमान मंदिर को तोड़ने चल पड़ा।
हालाँकि उसके वो सैनिक पिछले दिन की घटना को याद कर मन में बेहद घबराये हुए थे पर अपने ज़ालिम बादशाह का हुक्म भी उन्हें मानना था वरना वो उन्हें मारकर गोलकुंडा के मुख्य चौक पर टांग देता।
मन ही मन हनुमान जी से क्षमा मांगते हुए वो सिपाही चुपचाप मंदिर की तरफ बढ़ने लगे।
मंदिर पहुंचकर औरंगज़ेब ने आदेश दिया की भीतर जो भी लोग हैं तुरन्त बाहर आ जाएं वरना जान से जायेंगे।
"विनाश काले विपरीत बुद्धि" मन ही मन कहते हुए मंदिर के अंदर से सभी पुजारी और कर्मचारी बाहर आ गए।
उनकी तरफ अपनी अंगारो से भरी लाल ऑंखें तरेरता हुआ गुस्से से भरा औरंगजेब बोला-
" अगर किसी ने भी अपना मुंह खोला तो उसकी ज़बान के टुकड़े टुकड़े कर दूंगा, खामोश एक तरफ खड़े रहो और चुपचाप सब देखते रहो।"
(वो नहीं चाहता था कि पुजारी फिर से कुछ बोले या उसे टोके और उसका काम रुक जाए)
वहां खड़े सब लोग भय से भरे खड़े थे और औरंगज़ेब की बेवकूफी को देख रहे थे। औरंगज़ेब ने एक बड़ा सा सब्बल लिया और बादशाही अकड़ के साथ मंदिर की तरफ बढ़ने लगा।
उस समय जैसे हवा भी रुक गयी थी, एक महापाप होने जा रहा था, भयातुर दृष्टि से सब औरंगजेब की इस करतूत को देख रहे थे जो "पवनपुत्र " को हराने के लिए कदम बढ़ा रहा था।
अगले पलों में क्या होगा इस बात से अंजान और आस पास के माहौल से बेखबर, घमण्ड से भरा हुआ औरंगजेब मंदिर की मुख्य दीवार के पास पहुंचा और जैसे ही उसने दीवार तोड़ने के लिए सब्बल से प्रहार करने के लिए हाथ उठाया...
उसे मंदिर के भीतर से एक भीषण गर्जन सुनाई पड़ा, इतना तेज़ और भयंकर की कान के पर्दे फट जाएँ, जैसे हजारों बिजलियां आकाश में एक साथ गरज पड़ी हों....
यह गर्जन इतना भयंकर था कि हजारों मंदिर तोड़ने वाला और हिंदुस्तान के अधिकतर हिस्से पर कब्जा जमा चूका औरंगज़ेब भी डर के मारे मूर्तिवत स्तब्ध और जड़ हो गया, और..
उसने अपने दोनों हाथों से अपने कान बन्द कर लिए।
वो भीषण गर्जन बढ़ता ही जा रहा था
औरंगज़ेब भौचक्का रह गया था...
औरंगज़ेब जड़ हो चूका था...
निशब्द हो चूका था...
काल को भी कंपा देने वाले उस भीषण गर्जन को सुनकर वो पागल होने वाला था
लेकिन अभी उसे और हैरान होना था
उस भीषण गर्जन के बाद मंदिर से आवाज़ आयी
..." अगर मंदिर तोडना चाहते हो राजन, तो कर मन घाट"
(यानि हे राजा अगर मंदिर तोडना चाहते हो तो पहले दिल मजबूत करो)
डर और हैरानी भरा हुआ औरंगज़ेब इतना सुनते ही बेहोश हो गया।
इसके बाद क्या हुआ उसे पता भी न चला।
मंदिर के भीतर से आते इस घनघोर गर्जन और आवाज़ को वहां खड़े पुजारी और भक्तगण समझ गए की ये उनके इष्ट देव श्री हनुमानजी की ही आवाज़ है
उन सभी ने वहीं से बजरँगबली को दण्डवत प्रणाम किया और उनकी स्तुति की।
उधर बेहोश हुए औरंगज़ेब को सम्हालने उसके सैनिक दौड़े और उसे मंदिर से निकाल कर वापस किले में ले गए।
हनुमान जी के शब्दों से ही उस मंदिर का नया नाम पड़ा जो आज तक उसी नाम से जाना जाता है-
" करमन घाट हनुमान मंदिर"
इस घटना के बाद लोगो में इस मंदिर के प्रति अगाध श्रद्धा हुई और इस मंदिर से जुड़े अनेकों चमत्कारिक अनुभव लोगों को हुए।
सन्तानहीन स्त्रियों को यहां आने से निश्चित ही सन्तान प्राप्त होती है और अनेक गम्भीर लाइलाज बीमारियों के मरीज यहाँ हनुमान जी की कृपा से स्वस्थ हो चुके हैं।
।।जय श्री राम।।
अभिषेक बी. पाण्डेय
नैनीताल, उत्तराखण्ड
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Thursday, 23 November 2017
Hanuman mantra to accomplish impossible tasks सर्वकार्य साधक हनुमान मन्त्र
सर्वकार्य साधक श्री हनुमान मन्त्र
जब जीवन में कोई ऐसा समय आये जहां कोई रास्ता न मिल रहा हो, काम लंबे समय से अटके हों और आप विभिन्न ज्योतिषीय, तांत्रिक उपाय टोटके आदि सब कर चुके हों फिर भी सफलता न मिल रही हो
तब श्री हनुमान जी की शरण लें एवम निम्न हनुमान मन्त्र का जप करें।
शुद्ध होकर स्वच्छ वस्त्र पहन कर
आसन : ऊनी या कम्बल का
माला : रुद्राक्ष
दिशा: उत्तर
समय : सूर्योदय से पहले या सूर्यास्त के बाद
संख्या: 7 माला
श्री हनुमान ध्यान
उद्यन्मार्तण्ड कोटि प्रकटरूचियुतं चारूवीरासनस्थं।
मौंजीयज्ञोपवीतारूण रूचिर शिखा शोभितं कुंडलांकम्
भक्तानामिष्टदं तं प्रणतमुनिजनं वेदनाद प्रमोदं।
ध्यायेद्नित्यं विधेयं प्लवगकुलपति गोष्पदी भूतवारिम॥
उदय होते हुए करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी, मनोरम, वीर आसन में स्थित मुंज की मेखला और यज्ञोपवीत धारण किए हुए कुंडली से शोभित मुनियों द्वारा वंदित, वेद नाद से प्रहर्षित वानरकुल स्वामी, समुद्र को एक पैर में लांघने वाले देवता स्वरूप, भक्तों को अभीष्ट फल देने वाले श्री हनुमान मेरी रक्षा करें।
मन्त्र:
असाध्यम साधका स्वामी
असाध्यम तव किं वद:।
रामदूत कृपा सिंधु:
मत कार्यं साधका प्रभु:।
श्रद्धा पूर्वक किये जाने पर हनुमान जी प्रसन्न होकर कार्य सिद्ध करते हैं इसमे कोई संशय नहीं है।
अन्य किसी प्रकार की जानकारी ,कुंडली विश्लेषण या समस्या समाधान हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।
।।जय श्री राम।।
7579400465
8909521616(whats app)
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जब जीवन में कोई ऐसा समय आये जहां कोई रास्ता न मिल रहा हो, काम लंबे समय से अटके हों और आप विभिन्न ज्योतिषीय, तांत्रिक उपाय टोटके आदि सब कर चुके हों फिर भी सफलता न मिल रही हो
तब श्री हनुमान जी की शरण लें एवम निम्न हनुमान मन्त्र का जप करें।
शुद्ध होकर स्वच्छ वस्त्र पहन कर
आसन : ऊनी या कम्बल का
माला : रुद्राक्ष
दिशा: उत्तर
समय : सूर्योदय से पहले या सूर्यास्त के बाद
संख्या: 7 माला
श्री हनुमान ध्यान
उद्यन्मार्तण्ड कोटि प्रकटरूचियुतं चारूवीरासनस्थं।
मौंजीयज्ञोपवीतारूण रूचिर शिखा शोभितं कुंडलांकम्
भक्तानामिष्टदं तं प्रणतमुनिजनं वेदनाद प्रमोदं।
ध्यायेद्नित्यं विधेयं प्लवगकुलपति गोष्पदी भूतवारिम॥
उदय होते हुए करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी, मनोरम, वीर आसन में स्थित मुंज की मेखला और यज्ञोपवीत धारण किए हुए कुंडली से शोभित मुनियों द्वारा वंदित, वेद नाद से प्रहर्षित वानरकुल स्वामी, समुद्र को एक पैर में लांघने वाले देवता स्वरूप, भक्तों को अभीष्ट फल देने वाले श्री हनुमान मेरी रक्षा करें।
मन्त्र:
असाध्यम साधका स्वामी
असाध्यम तव किं वद:।
रामदूत कृपा सिंधु:
मत कार्यं साधका प्रभु:।
श्रद्धा पूर्वक किये जाने पर हनुमान जी प्रसन्न होकर कार्य सिद्ध करते हैं इसमे कोई संशय नहीं है।
अन्य किसी प्रकार की जानकारी ,कुंडली विश्लेषण या समस्या समाधान हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।
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Monday, 13 November 2017
एकदशमुख हनुमत कवच Ekadash mukh Hanuman kavach
एकदशमुख हनुमत कवच
यह एकादशमुख हनुमत्कवच साधकों के लिए सौम्य तथा शत्रुसमूह का विशेष संहारक है । यह कवच सम्पूर्ण राक्षसों का विध्वंसक होने से “रक्षोघ्न” कवच के नाम से प्रसिद्ध है । “रक्षोघ्नसूक्त” तो राक्षसों का संहारक ही है पर यह “रक्षोघ्नकवच” राक्षसों का विध्वंसक होते हुए अप्रतिम सुरक्षा भी प्रदान करता है । यह पुत्र, धन, सर्वसम्पत्ति के साथ ही साधक की कामना के अनुसार स्वर्ग तथा अपवर्ग भी प्राप्त करा देता है ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि यह कवच सम्पूर्ण कामनाओं को पू्र्ण करने में सहज ही समर्थ है । इसीलिए इसके विनियोग में “सर्वकामार्थसिद्धयर्थे” बोला जाता है । भगवत्प्राप्ति होने पर ही समस्त कामनाओं का अन्त होता है । अतः मोक्ष इसका विशेष फल है और अन्य फल आनुषंगिक । अर्थात मोक्षेच्छुकों को अन्य फल निष्कामता होने पर भी सहज ही प्राप्त हो जायेंगे ।
अयोध्या में २२वर्ष का एक छात्र मुझसे भागवत पढ़ता था किन्तु वह इतना डरपोक था कि रात को अपनी माँ के साथ सोता था । लघुशंका लगने पर वह अकेला नहीं जा पाता था । माँ खड़ी रहे तब वह लघुशंका करे । एक दिन उसने अपनी समस्या मुझसे व्यक्त की ।
मैंने उसे इस कवच का १पाठ करने को कहा । पाठ प्रातः कर लिया पर रात को उसे स्वप्न में भयंकर राक्षस दिखा और बोला कि अब पाठ करोगे तो मैं तुम्हारा प्राण ले लूंगा । भयभीत छात्र ने मुझसे अपनी व्यथा बतायी और पाठ करने का साहस नही जुटा पा रहा था ।
अन्ततः मैंने कहा कि तुम मरोगे नहीं-यह गारंटी मेरी है और पाठ मत छोड़ो । दूसरी रात को वह राक्षस फिर दिखा और उसे डराते हुए बोला “यदि तुम पाठ नहीं छोड़े तो मैं तुम्हारी जान ले लूँगा । इस बार राक्षस और अधिक उग्र था । वह बालक तीसरे दिन पुनः चिन्तित था और मर जाने के भय से पाठ करने की हिम्मत उसमें नहीं थी । फिर भी किसी प्रकार पाठ कर ही लिया ।
मैंने कहा कि आज तीसरा दिन है । तुमने पाठ कर लिया है, अब कल तुम्हें अवश्य पाठ करना है । आज के स्वप्न से कल के पाठ का निर्णय मत बदलना । तीसरे दिन की रात को स्वप्न में वही राक्षस दिखा और कर्कश स्वर में बोला – “आज मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि तुमने कल पाठ किया तो मैं तुम्हें अवश्य मार डालूँगा ।
छात्र पढ़ने आया और स्वप्न की पूरी बात बतायी । मैंने पूंछा कि पाठ छोड़े तो नही ? उसने कहा – नहीं
छोड़ा । चौथी रात को उसे वह राक्षस न दिखा ।
उस छात्र में इतनी निर्भीकता आ गयी थी कि रात को १२ बजे अयोध्या “बड़ी छावनी” से लगभग ३किमी दूर “हनुमानबाग” नामक आश्रम में भागवत का पाठ करने साइकिल से जाता था । “विचार कीजिए कि इस कवच से कितनी अधिक निर्भीकता आती है ।” – यह श्रीअवध की एक सत्य घटना आपके समक्ष प्रस्तुत की गयी ।
इस कवच के कितने परिणाम हैं ? -इसका निर्णय श्रीहनुमान जी के अतिरिक्त और कौन कर सकता है । किन्तु इसका पाठ उससे- जिसे यह परम्परया प्राप्त हो -श्रवण करने के बाद ही आरम्भ करना चाहिए ।। और कुछ दिन यदि उसके सान्निध्य में रहकर किया जाय तो अत्युत्तम होगा । स्वतः आरम्भ कर देने पर कोई विघ्न आये तो मनोबल को कौन बढ़ायेगा ? आवश्यक सुरक्षा कहाँ से प्राप्त होगी ? अतः इसका आरम्भ पूर्वोक्त रीति से किसी के द्वारा श्रवण़ करने के साथ ही पाठशुद्ध हो जाने पर प्रारम्भ करना चाहिए ।
शरभेश्वरकवच के पाठ में गड़बड़ी होने पर पागल हुए साधकों की स्थिति यथावत् करने के लिए विज्ञ महापुरुष इसी कवच का आश्रय लेते हैं । इसके उनका कुछ अनुभव आपके लिए और प्रस्तुत करेंगे जिन्होंने मेरे निर्देशन में आपत्ति के समय इसका पाठ किया है ।
जो द्विज हैं । वे इस कवच का पाठ करने से पूर्व १माला ब्रह्मगायत्री अवश्य जप लें । जप के पूर्व आसनशुद्धि, देहशुद्धि, शिखाबन्धन तथा प्राणायामादि अत्यावश्यक है । गायत्री जप के पश्चात् ही इस कवच का पाठ करें । अब आपके समक्ष प्रामाणिक पाठ प्रस्तुत किया जा रहा है । बाजार की पुस्तकों से इस पाठ को संशोधित न करें । अन्यथा हानि की सम्भावना है या लाभ न हो; क्योंकि यह पाठ अतिशुद्ध है । आजकल उपलब्ध पुस्तकों में अनेक अशुद्धियाँ हैं ।
“एकादशमुखहनुमत्कवचम्”
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ लोपामुद्रोवाच-
कुम्भोद्भव दयासिन्धो श्रुतं हनुमतः परम् । यन्त्रमन्त्रादिकं सर्वं त्वन्मुखोदीरितं मया ॥१॥
दयां कुरु मयि प्राणनाथ वेदितुमुत्सहे ।कवचं वायुपुत्रस्य एकादशमुखात्मनः ॥२॥
इत्येवं वचनं श्रुत्वा प्रियायाः प्रश्रयान्वितम् । वक्तुं प्रचक्रमे तत्र लोपामुद्रां प्रति प्रभुः ॥३॥
अगस्त्य उवाच -
नमस्कृत्वा रामदूतं हनुमन्तं महामतिम् । ब्रह्मप्रोक्तं तु कवचं शृणु सुन्दरि सादरम् ॥४॥
सनन्दनाय सुमहच्चतुराननभाषितम् । कवचं कामदं दिव्यं सर्वरक्षोनिबर्हणम् ॥५
सर्वसम्पत्प्रदं पुण्यं मर्त्यानां मधुरस्वरे । ॐ अस्य श्रीकवचस्यैकादशवक्त्रस्य धीमतः ॥६॥
हनुमत्कवचमन्त्रस्य सनन्दनऋषिः स्मृतः । प्रसन्नात्मा हनूमांश्च देवताऽत्र प्रकीर्तिता ॥७॥
छन्दोऽनुष्टुप् समाख्यातं बीजं वायुसुतस्तथा । मुख्यः प्राणः शक्तिरिति विनियोगः प्रकीर्तितः ॥८॥
सर्वकामार्थसिद्ध्यर्थे जप एवमुदीरयेत् ।
यहाँ छठें श्लोक के “ॐ अस्य” से आरम्भ दांये हाथ में जल लेकर ही करना है । और “एवमुदीरयेत्” तक बोलकर पुनः विनियोग पढ़ें –
“ॐ अस्य श्रीएकादशवक्त्रहनुमत्कवचमन्त्रस्य सनन्दनऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, प्रसन्नात्मा हनूमान् देवता, वायुसुतो बीजं, मुख्यः प्राणः शक्तिः सर्वकामार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः”-बोलकर हाथ का जल
भूमि पर गिरा दें ।
ऋष्यादिन्यास-
ॐ सनन्दनाय ऋषये नमः शिरसि, ॐ अनुष्टुब्छन्दसे नमो मुखे, ॐ प्रसन्नात्महनुमद्देवतायै नमो हृदि, ॐ वायुसुतबीजाय नमो गुह्ये, ॐ मुख्यप्राणशक्तये नमः पादयोः, ॐ सर्वकामार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
करन्यास-
ॐ स्फ्रेंबीजं शक्तिधृक् पातु शिरो मे पवनात्मजः इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ क्रौंबीजात्मा नयनयोः पातु मां वानरेश्वरः इति तर्जनीभ्यां नमः, ॐ क्षंबीजरूपी कर्णौ मे सीताशोकविनाशनः इति मध्यमाभ्यां नमः, ॐ ग्लौंबीजवाच्यो नासां मे लक्ष्मणप्राणदायकः इत्यनामिकाभ्यां नमः, ॐ वं बीजार्थश्च कण्ठं मे अक्षयक्षयकारकः इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ ऐं बीजवाच्यो हृदयं पातु मे कपिनायकः इति
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादिन्यास-
ॐ स्फ्रेंबीजं शक्तिधृक् पातु शिरो मे पवनात्मजः इति हृदयाय नमः, ॐ क्रौंबीजात्मा नयनयोः पातु मां वानरेश्वरः इति शिरसे स्वाहा, ॐ क्षंबीजरूपी कर्णौ मे सीताशोकविनाशनः इति शिखायै वषट्,
ॐ ग्लौंबीजवाच्यो नासां मे लक्ष्मणप्राणदायकः इति कवचाय हुम्, ॐ वं बीजार्थश्च कण्ठं मे अक्षयक्षयकारकः इति नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ ऐं बीजवाच्यो हृदयं पातु मे कपिनायकः इत्यस्त्राय फट् ।
दिग्बन्धन-
इसके बाद बांये हथेली पर दांये हाथ की चारों अंगुलियों से ३वार ज़ोर से ताली बजाकर दशों दिशाओं ( ४ दिशा, ४ उपदिशा अर्थात् कोने और २ ऊपर तथा नीचे ) की ओर क्रमशः “ॐ भूर्भुवःस्वरोम्” मन्त्र पढ़कर चुटकी बजाता हुआ अपनी सुरक्षा करे । इससे पाठ के विघ्नकर्ता राक्षस आदि से सुरक्षा होती है ।
ध्यान-
उदयकालिक सूर्य की भाँति कान्तिमान् , निखिल पापों के विनाशक, श्रीराम के चरणों में ध्यानमग्न, अनेक वानरभटों से सर्वदा सुसेवित, भयंकर गर्जना से निशाचरों को निरन्तर प्रकम्पित करने वाले और अनेक आभूषणों से विभूषित सुन्दर मन्द मुस्कानयुक्त पवनपुत्र का ध्यान करे-
उद्यद्भानुसमानदीप्तिमनघं श्रीरामपादाम्बुजध्यानासक्तमनेकवानरभटैः संसेवितं सर्वदा ।
नादेनैव निशाचरानविरतं संतर्जयन्तं मुदा नानाभूषणभूषितं पवनजं वन्दे सुमन्दस्मितम् ॥
कवचम्-
ॐ स्फ्रेंबीजं शक्तिधृक् पातु शिरो मे पवनात्मजः ॥९॥
क्रौंबीजात्मा नयनयोः पातु मां वानरेश्वरः । क्षंबीजरूपी कर्णौ मे सीताशोकविनाशनः ॥१०॥
ग्लौंबीजवाच्यो नासां मे लक्ष्मणप्राणदायकः । वं बीजार्थश्च कण्ठं मे अक्षयक्षयकारकः ॥११॥
ऐं बीजवाच्यो हृदयं पातु मे कपिनायकः । वं बीजकीर्तितः पातु बाहू मे चाञ्जनीसुतः ॥१२॥
ह्रां बीजं राक्षसेन्द्रस्य दर्पहा पातु चोदरम् ।ह्र्सौं बीजमयो मध्यं मे पातु लङ्काविदाहकः ॥१३॥
ह्रीं बीजधरो गुह्यं मे पातु देवेन्द्रवन्दितः । रं बीजात्मा सदा पातु चोरू वारिधिलङ्घनः ॥१४॥
सुग्रीवसचिवः पातु जानुनी मे मनोजवः । पादौ पादतले पातु द्रोणाचलधरो हरिः ॥१५॥
आपादमस्तकं पातु रामदूतो महाबलः । पूर्वे वानरवक्त्रो मामाग्नेय्यां क्षत्रियान्तकृत् ॥१६॥
दक्षिणे नारसिंहस्तु नैर्ऋत्यां गणनायकः । वारुण्यां दिशि मामव्यात् खगवक्त्रो हरीश्वरः ॥१७॥
वायव्यां भैरवमुखः कौबेर्यां पातु मां सदा । क्रोडास्यः पातु मां नित्यमीशान्यां रुद्ररूपधृक् ॥१८॥
ऊर्ध्वं हयाननः पातु त्वधः शेषमुखस्तथा । रामास्यः पातु सर्वत्र सौम्यरूपी महाभुजः ॥१९॥
फलश्रुतिः–
इत्येवं रामदूतस्य कवचं प्रपठेत् सदा । एकादशमुखस्यैतद् गोप्यं वै कीर्तितं मया ॥२०॥
रक्षोघ्नं कामदं सौम्यं सर्वसम्पद्विधायकम् । पुत्रदं धनदं चोग्रशत्रुसंघविमर्दनम् ॥२१॥
स्वर्गापवर्गदं दिव्यं चिन्तितार्थप्रदं शुभम् । एतत् कवचमज्ञात्वा मन्त्रसिद्धिर्न जायते ॥२२॥
चत्वारिंशत्सहस्राणि पठेच्छुद्धात्मना नरः । एकवारं पठेन्नित्यं कवचं सिद्धिदं महत् ॥२३॥
द्विवारं वा त्रिवारं वा पठन्नायुष्यमाप्नुयात् । क्रमादेकादशादेवमावर्तनजपात् सुधीः ॥२४॥
वर्षान्ते दर्शनं साक्षाल्लभते नात्र संशयः । यं यं चिन्तयते चार्थं तं तं प्राप्नोति पूरुषः ॥२५॥
ब्रह्मोदीरितमेतद्धि तवाग्रे कथितं महत् ॥२६॥
इत्येवमुक्त्वा कवचं महर्षिस्तूष्णीं बभूवेन्दुमुखीं निरीक्ष्य ।
संहृष्टचित्तापि तदा तदीय पादौ ननामातिमुदा स्वभर्तुः ॥२७॥
॥ इति श्रीअगस्त्यसंहितायाम् एकादशमुखहनुमत्कवचं सम्पूर्णम् ॥
साभार: आचार्य सियारामदास नैयायिक
किसी प्रकार की जानकारी ,कुंडली विश्लेषण या समस्या समाधान हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।
।।जय श्री राम।।
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यह एकादशमुख हनुमत्कवच साधकों के लिए सौम्य तथा शत्रुसमूह का विशेष संहारक है । यह कवच सम्पूर्ण राक्षसों का विध्वंसक होने से “रक्षोघ्न” कवच के नाम से प्रसिद्ध है । “रक्षोघ्नसूक्त” तो राक्षसों का संहारक ही है पर यह “रक्षोघ्नकवच” राक्षसों का विध्वंसक होते हुए अप्रतिम सुरक्षा भी प्रदान करता है । यह पुत्र, धन, सर्वसम्पत्ति के साथ ही साधक की कामना के अनुसार स्वर्ग तथा अपवर्ग भी प्राप्त करा देता है ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि यह कवच सम्पूर्ण कामनाओं को पू्र्ण करने में सहज ही समर्थ है । इसीलिए इसके विनियोग में “सर्वकामार्थसिद्धयर्थे” बोला जाता है । भगवत्प्राप्ति होने पर ही समस्त कामनाओं का अन्त होता है । अतः मोक्ष इसका विशेष फल है और अन्य फल आनुषंगिक । अर्थात मोक्षेच्छुकों को अन्य फल निष्कामता होने पर भी सहज ही प्राप्त हो जायेंगे ।
अयोध्या में २२वर्ष का एक छात्र मुझसे भागवत पढ़ता था किन्तु वह इतना डरपोक था कि रात को अपनी माँ के साथ सोता था । लघुशंका लगने पर वह अकेला नहीं जा पाता था । माँ खड़ी रहे तब वह लघुशंका करे । एक दिन उसने अपनी समस्या मुझसे व्यक्त की ।
मैंने उसे इस कवच का १पाठ करने को कहा । पाठ प्रातः कर लिया पर रात को उसे स्वप्न में भयंकर राक्षस दिखा और बोला कि अब पाठ करोगे तो मैं तुम्हारा प्राण ले लूंगा । भयभीत छात्र ने मुझसे अपनी व्यथा बतायी और पाठ करने का साहस नही जुटा पा रहा था ।
अन्ततः मैंने कहा कि तुम मरोगे नहीं-यह गारंटी मेरी है और पाठ मत छोड़ो । दूसरी रात को वह राक्षस फिर दिखा और उसे डराते हुए बोला “यदि तुम पाठ नहीं छोड़े तो मैं तुम्हारी जान ले लूँगा । इस बार राक्षस और अधिक उग्र था । वह बालक तीसरे दिन पुनः चिन्तित था और मर जाने के भय से पाठ करने की हिम्मत उसमें नहीं थी । फिर भी किसी प्रकार पाठ कर ही लिया ।
मैंने कहा कि आज तीसरा दिन है । तुमने पाठ कर लिया है, अब कल तुम्हें अवश्य पाठ करना है । आज के स्वप्न से कल के पाठ का निर्णय मत बदलना । तीसरे दिन की रात को स्वप्न में वही राक्षस दिखा और कर्कश स्वर में बोला – “आज मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि तुमने कल पाठ किया तो मैं तुम्हें अवश्य मार डालूँगा ।
छात्र पढ़ने आया और स्वप्न की पूरी बात बतायी । मैंने पूंछा कि पाठ छोड़े तो नही ? उसने कहा – नहीं
छोड़ा । चौथी रात को उसे वह राक्षस न दिखा ।
उस छात्र में इतनी निर्भीकता आ गयी थी कि रात को १२ बजे अयोध्या “बड़ी छावनी” से लगभग ३किमी दूर “हनुमानबाग” नामक आश्रम में भागवत का पाठ करने साइकिल से जाता था । “विचार कीजिए कि इस कवच से कितनी अधिक निर्भीकता आती है ।” – यह श्रीअवध की एक सत्य घटना आपके समक्ष प्रस्तुत की गयी ।
इस कवच के कितने परिणाम हैं ? -इसका निर्णय श्रीहनुमान जी के अतिरिक्त और कौन कर सकता है । किन्तु इसका पाठ उससे- जिसे यह परम्परया प्राप्त हो -श्रवण करने के बाद ही आरम्भ करना चाहिए ।। और कुछ दिन यदि उसके सान्निध्य में रहकर किया जाय तो अत्युत्तम होगा । स्वतः आरम्भ कर देने पर कोई विघ्न आये तो मनोबल को कौन बढ़ायेगा ? आवश्यक सुरक्षा कहाँ से प्राप्त होगी ? अतः इसका आरम्भ पूर्वोक्त रीति से किसी के द्वारा श्रवण़ करने के साथ ही पाठशुद्ध हो जाने पर प्रारम्भ करना चाहिए ।
शरभेश्वरकवच के पाठ में गड़बड़ी होने पर पागल हुए साधकों की स्थिति यथावत् करने के लिए विज्ञ महापुरुष इसी कवच का आश्रय लेते हैं । इसके उनका कुछ अनुभव आपके लिए और प्रस्तुत करेंगे जिन्होंने मेरे निर्देशन में आपत्ति के समय इसका पाठ किया है ।
जो द्विज हैं । वे इस कवच का पाठ करने से पूर्व १माला ब्रह्मगायत्री अवश्य जप लें । जप के पूर्व आसनशुद्धि, देहशुद्धि, शिखाबन्धन तथा प्राणायामादि अत्यावश्यक है । गायत्री जप के पश्चात् ही इस कवच का पाठ करें । अब आपके समक्ष प्रामाणिक पाठ प्रस्तुत किया जा रहा है । बाजार की पुस्तकों से इस पाठ को संशोधित न करें । अन्यथा हानि की सम्भावना है या लाभ न हो; क्योंकि यह पाठ अतिशुद्ध है । आजकल उपलब्ध पुस्तकों में अनेक अशुद्धियाँ हैं ।
“एकादशमुखहनुमत्कवचम्”
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ लोपामुद्रोवाच-
कुम्भोद्भव दयासिन्धो श्रुतं हनुमतः परम् । यन्त्रमन्त्रादिकं सर्वं त्वन्मुखोदीरितं मया ॥१॥
दयां कुरु मयि प्राणनाथ वेदितुमुत्सहे ।कवचं वायुपुत्रस्य एकादशमुखात्मनः ॥२॥
इत्येवं वचनं श्रुत्वा प्रियायाः प्रश्रयान्वितम् । वक्तुं प्रचक्रमे तत्र लोपामुद्रां प्रति प्रभुः ॥३॥
अगस्त्य उवाच -
नमस्कृत्वा रामदूतं हनुमन्तं महामतिम् । ब्रह्मप्रोक्तं तु कवचं शृणु सुन्दरि सादरम् ॥४॥
सनन्दनाय सुमहच्चतुराननभाषितम् । कवचं कामदं दिव्यं सर्वरक्षोनिबर्हणम् ॥५
सर्वसम्पत्प्रदं पुण्यं मर्त्यानां मधुरस्वरे । ॐ अस्य श्रीकवचस्यैकादशवक्त्रस्य धीमतः ॥६॥
हनुमत्कवचमन्त्रस्य सनन्दनऋषिः स्मृतः । प्रसन्नात्मा हनूमांश्च देवताऽत्र प्रकीर्तिता ॥७॥
छन्दोऽनुष्टुप् समाख्यातं बीजं वायुसुतस्तथा । मुख्यः प्राणः शक्तिरिति विनियोगः प्रकीर्तितः ॥८॥
सर्वकामार्थसिद्ध्यर्थे जप एवमुदीरयेत् ।
यहाँ छठें श्लोक के “ॐ अस्य” से आरम्भ दांये हाथ में जल लेकर ही करना है । और “एवमुदीरयेत्” तक बोलकर पुनः विनियोग पढ़ें –
“ॐ अस्य श्रीएकादशवक्त्रहनुमत्कवचमन्त्रस्य सनन्दनऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, प्रसन्नात्मा हनूमान् देवता, वायुसुतो बीजं, मुख्यः प्राणः शक्तिः सर्वकामार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः”-बोलकर हाथ का जल
भूमि पर गिरा दें ।
ऋष्यादिन्यास-
ॐ सनन्दनाय ऋषये नमः शिरसि, ॐ अनुष्टुब्छन्दसे नमो मुखे, ॐ प्रसन्नात्महनुमद्देवतायै नमो हृदि, ॐ वायुसुतबीजाय नमो गुह्ये, ॐ मुख्यप्राणशक्तये नमः पादयोः, ॐ सर्वकामार्थसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
करन्यास-
ॐ स्फ्रेंबीजं शक्तिधृक् पातु शिरो मे पवनात्मजः इत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः, ॐ क्रौंबीजात्मा नयनयोः पातु मां वानरेश्वरः इति तर्जनीभ्यां नमः, ॐ क्षंबीजरूपी कर्णौ मे सीताशोकविनाशनः इति मध्यमाभ्यां नमः, ॐ ग्लौंबीजवाच्यो नासां मे लक्ष्मणप्राणदायकः इत्यनामिकाभ्यां नमः, ॐ वं बीजार्थश्च कण्ठं मे अक्षयक्षयकारकः इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः, ॐ ऐं बीजवाच्यो हृदयं पातु मे कपिनायकः इति
करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादिन्यास-
ॐ स्फ्रेंबीजं शक्तिधृक् पातु शिरो मे पवनात्मजः इति हृदयाय नमः, ॐ क्रौंबीजात्मा नयनयोः पातु मां वानरेश्वरः इति शिरसे स्वाहा, ॐ क्षंबीजरूपी कर्णौ मे सीताशोकविनाशनः इति शिखायै वषट्,
ॐ ग्लौंबीजवाच्यो नासां मे लक्ष्मणप्राणदायकः इति कवचाय हुम्, ॐ वं बीजार्थश्च कण्ठं मे अक्षयक्षयकारकः इति नेत्रत्रयाय वौषट्, ॐ ऐं बीजवाच्यो हृदयं पातु मे कपिनायकः इत्यस्त्राय फट् ।
दिग्बन्धन-
इसके बाद बांये हथेली पर दांये हाथ की चारों अंगुलियों से ३वार ज़ोर से ताली बजाकर दशों दिशाओं ( ४ दिशा, ४ उपदिशा अर्थात् कोने और २ ऊपर तथा नीचे ) की ओर क्रमशः “ॐ भूर्भुवःस्वरोम्” मन्त्र पढ़कर चुटकी बजाता हुआ अपनी सुरक्षा करे । इससे पाठ के विघ्नकर्ता राक्षस आदि से सुरक्षा होती है ।
ध्यान-
उदयकालिक सूर्य की भाँति कान्तिमान् , निखिल पापों के विनाशक, श्रीराम के चरणों में ध्यानमग्न, अनेक वानरभटों से सर्वदा सुसेवित, भयंकर गर्जना से निशाचरों को निरन्तर प्रकम्पित करने वाले और अनेक आभूषणों से विभूषित सुन्दर मन्द मुस्कानयुक्त पवनपुत्र का ध्यान करे-
उद्यद्भानुसमानदीप्तिमनघं श्रीरामपादाम्बुजध्यानासक्तमनेकवानरभटैः संसेवितं सर्वदा ।
नादेनैव निशाचरानविरतं संतर्जयन्तं मुदा नानाभूषणभूषितं पवनजं वन्दे सुमन्दस्मितम् ॥
कवचम्-
ॐ स्फ्रेंबीजं शक्तिधृक् पातु शिरो मे पवनात्मजः ॥९॥
क्रौंबीजात्मा नयनयोः पातु मां वानरेश्वरः । क्षंबीजरूपी कर्णौ मे सीताशोकविनाशनः ॥१०॥
ग्लौंबीजवाच्यो नासां मे लक्ष्मणप्राणदायकः । वं बीजार्थश्च कण्ठं मे अक्षयक्षयकारकः ॥११॥
ऐं बीजवाच्यो हृदयं पातु मे कपिनायकः । वं बीजकीर्तितः पातु बाहू मे चाञ्जनीसुतः ॥१२॥
ह्रां बीजं राक्षसेन्द्रस्य दर्पहा पातु चोदरम् ।ह्र्सौं बीजमयो मध्यं मे पातु लङ्काविदाहकः ॥१३॥
ह्रीं बीजधरो गुह्यं मे पातु देवेन्द्रवन्दितः । रं बीजात्मा सदा पातु चोरू वारिधिलङ्घनः ॥१४॥
सुग्रीवसचिवः पातु जानुनी मे मनोजवः । पादौ पादतले पातु द्रोणाचलधरो हरिः ॥१५॥
आपादमस्तकं पातु रामदूतो महाबलः । पूर्वे वानरवक्त्रो मामाग्नेय्यां क्षत्रियान्तकृत् ॥१६॥
दक्षिणे नारसिंहस्तु नैर्ऋत्यां गणनायकः । वारुण्यां दिशि मामव्यात् खगवक्त्रो हरीश्वरः ॥१७॥
वायव्यां भैरवमुखः कौबेर्यां पातु मां सदा । क्रोडास्यः पातु मां नित्यमीशान्यां रुद्ररूपधृक् ॥१८॥
ऊर्ध्वं हयाननः पातु त्वधः शेषमुखस्तथा । रामास्यः पातु सर्वत्र सौम्यरूपी महाभुजः ॥१९॥
फलश्रुतिः–
इत्येवं रामदूतस्य कवचं प्रपठेत् सदा । एकादशमुखस्यैतद् गोप्यं वै कीर्तितं मया ॥२०॥
रक्षोघ्नं कामदं सौम्यं सर्वसम्पद्विधायकम् । पुत्रदं धनदं चोग्रशत्रुसंघविमर्दनम् ॥२१॥
स्वर्गापवर्गदं दिव्यं चिन्तितार्थप्रदं शुभम् । एतत् कवचमज्ञात्वा मन्त्रसिद्धिर्न जायते ॥२२॥
चत्वारिंशत्सहस्राणि पठेच्छुद्धात्मना नरः । एकवारं पठेन्नित्यं कवचं सिद्धिदं महत् ॥२३॥
द्विवारं वा त्रिवारं वा पठन्नायुष्यमाप्नुयात् । क्रमादेकादशादेवमावर्तनजपात् सुधीः ॥२४॥
वर्षान्ते दर्शनं साक्षाल्लभते नात्र संशयः । यं यं चिन्तयते चार्थं तं तं प्राप्नोति पूरुषः ॥२५॥
ब्रह्मोदीरितमेतद्धि तवाग्रे कथितं महत् ॥२६॥
इत्येवमुक्त्वा कवचं महर्षिस्तूष्णीं बभूवेन्दुमुखीं निरीक्ष्य ।
संहृष्टचित्तापि तदा तदीय पादौ ननामातिमुदा स्वभर्तुः ॥२७॥
॥ इति श्रीअगस्त्यसंहितायाम् एकादशमुखहनुमत्कवचं सम्पूर्णम् ॥
साभार: आचार्य सियारामदास नैयायिक
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Friday, 27 October 2017
Akshay Navmi for health and male child पुत्र एवम यौवन के लिए अक्षय नवमी पूजन
पुत्र, यौवन और स्वास्थ्य के लिए अक्षय नवमी पूजन
अक्षय नवमी , 29 अक्टूबर 2017, रविवार
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अक्षय नवमी और आंवला नवमी कहा जाता है।इस तिथि के विषय में भगवान कहते है अक्षय नवमी मे जो भी पुण्य और उत्तम कर्म किये जाते हैं उससे प्राप्त पुण्य कभी नष्ट नहीं होते, यही कारण है कि इसे नवमी तिथि को अक्षय नवमी कहा गया है।
मान्यताओं के अनुसार:-
1. अक्षय नवमी के दिन ही त्रेता युग का आरम्भ हुआ था।
2. इसी दिन कुष्मांडा देवी का प्राकट्य हुआ था इसलिए इसे कुष्मांड नवमी भी कहते हैं और इस दिन कुष्मांड यानी कुम्हड़े का दान बेहद महत्वपूर्ण है।
3. एक अन्य मान्यता अनुसार भगवान विष्णु ने इसी दिन कुष्मांडक नामक राक्षस का वध किया था जिसके शरीर से कुष्मांड की बेले निकली हुई थी।
4. देवी पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण के परामर्श से माता कुंती ने भी अक्षय प्राप्ति के लिए इस दिन व्रत किया था, तभी से इस व्रत का प्रचलन शुरू हो गया ।
5. इस दिन श्रद्धापूर्वक आंवले के नीचे भगवान विष्णु का पूजन करें तो निश्चित ही पुत्र/ सन्तान होती है।
इस दिन प्रात: काल स्नान करके भगवान विष्णु और शिव जी के दर्शन करने से अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है. इस तिथि को पूजा, दान, यज्ञ, तर्पण करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है.
शास्त्रों में ब्रह्महत्या को घोर पाप बताया गया है. यह पाप करने वाला अपने दुष्कर्म का फल अवश्य भोगता है, लेकिन अगर वह अक्षमय नवमी के दिन स्वर्ण, भूमि, वस्त्र एवं अन्नदान करे वह आंवले के वृक्ष के नीचे लोगों को भोजन करायें तो इस पाप से मुक्त हो सकता है। इस नवमी को आंवले के पेड़ के नीचे भोजन करने व कराने का बहुत महत्व है यही कारण है कि इसे धातृ नवमी भी कहा जाता है। संस्कृत में धातृ या धात्री आंवले को कहा जाता है।
अक्षय नवमी कथा
कथा के अनुसार, एक बार देवी लक्ष्मी तीर्थाटन पर निकली तो रास्ते में उनकी इच्छा हुई कि भगवान विष्णु और शिव की पूजा की जाये। देवी लक्ष्मी उस समय सोचने लगीं कि एक मात्र चीज़ क्या हो सकती है जिसे भगवान विष्णु और शिव जी पसंदीद करते हों उसे ही प्रतीक मानकर पूजा की जाये। इस प्रकार काफी विचार करने पर देवी लक्ष्मी को ध्यान पर आया कि धात्री ही ऐसी है जिसमें तुलसी और विल्व दोनों के गुण मजूद हैं फलत: इन्हीं की पूजा करनी चाहिए। देवी लक्ष्मी तब धात्री के वृक्ष की पूजा की और उसी वृक्ष के नीचे प्रसाद ग्रहण किया। इस दिन से ही धात्री के वृक्ष की पूजा का प्रचलन हुआ।
अक्षय नवमी पूजा विधि
अक्षय नवमी के दिन संध्या काल में आंवले के पेड़ के नीचे भोजन बनाकर लोगों को खाना खिलाने से बहुत ही पुण्य मिलता है. ऐसी मान्यता है कि भोजन करते समय थाली में आंवले का पत्ता गिरे तो बहुत ही शुभ माना जाता है साथ ही यह संकेत होता है कि आप वर्ष भर स्वस्थ रहेंगे.
अक्षय दिन का पूजा विधान इस प्रकार है. आंवले के वृक्ष के सामने पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठें. धातृ के वृद्ध की पंचोपचार सहित पूजा करें फिर वृक्ष की जड़ को दूध से सिंचन करें। कच्चे सूत को लेकर धात्री के तने में लपेटें अंत में घी और कर्पूर से आरती और परिक्रमा करें.
आंवला वृक्ष का पूजन
आंवला नवमी के दिन सुबह स्नान कर दाहिने हाथ में जल, चावल, फूल आदि लेकर निम्न प्रकार से व्रत का संकल्प करें-
अद्येत्यादि अमुकगोत्रोमुकम (अपना नाम एवं गोत्र बोलें) ममाखिल-पापक्षयपूर्वक-धर्मार्थकाममोक्ष-सिद्धिद्वारा श्रीविष्णुप्रीत्यर्थं धात्रीमूले विष्णुपूजनं धात्रीपूजनं च करिष्ये।
ऐसा संकल्प कर आंवले के वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा की ओर मुख करके
ॐ धात्र्यै नम:
मंत्र से आवाहनादि पंचोपचार/ षोडशोपचार पूजन करके निम्नलिखित मंत्रों से आंवले के वृक्ष की जड़ में दूध की धारा गिराते हुए पितरों का तर्पण करें-
पिता पितामहाश्चान्ये अपुत्रा ये च गोत्रिण:।
ते पिबन्तु मया दत्तं धात्रीमूलेक्षयं पय:।।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवा:।
ते पिवन्तु मया दत्तं धात्रीमूलेक्षयं पय:।।
इसके बाद आंवले के वृक्ष के तने में निम्न मंत्र से
कच्चे सूत को परिक्रमा कर तने पर लपेटें-
दामोदरनिवासायै धात्र्यै देव्यै नमो नम:।
सूत्रेणानेन बध्नामि धात्रि देवि नमोस्तु ते।।
इसके बाद कर्पूर या शुद्ध घी के दिए से आंवले के वृक्ष की आरती करें तथा निम्न मंत्र से उसकी प्रदक्षिणा करें -
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे।।
इसके बाद आंवले के वृक्ष के नीचे ही ब्राह्मणों को भोजन भी कराना चाहिए और अंत में स्वयं भी आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन करना चाहिए। एक पका हुआ कुम्हड़ा (कद्दू) लेकर उसके अंदर रत्न, सोना, चांदी या रुपए आदि रखकर निम्न संकल्प करें-
ममाखिलपापक्षयपूर्वक सुख सौभाग्यादीनामुक्तरोत्तराभिवृद्धये कूष्माण्डदानमहं करिष्ये।
इसके बाद योग्य ब्राह्मण को तिलक करके दक्षिणा सहित कुम्हड़ा दे दें और यह प्रार्थना करें-
कूष्णाण्डं बहुबीजाढयं ब्रह्णा निर्मितं पुरा।
दास्यामि विष्णवे तुभ्यं पितृणां तारणाय च।।
पितरों के शीत निवारण के लिए यथाशक्ति कंबल आदि ऊनी कपड़े भी योग्य ब्राह्मण को देना चाहिए।
घर में आंवले का वृक्ष न हो तो किसी बगीचे आदि में आंवले के वृक्ष के समीप जाकर पूजा, दानादि करने की भी परंपरा है अथवा गमले में आंवले का पौधा रोपित कर घर में यह कार्य संपन्न कर लेना चाहिए।
क्या करें:-
सुबह घर की अच्छी तरह साफ सफाई करें ताकि अलक्ष्मी दूर हो भगवान विष्णु संग लक्ष्मी आगमन हो।
1. इस दिन आंवले के रस को जल में मिलाकर स्नान करने से सुंदरता और यौवन की प्राप्ति होती है।
2. अक्षय नवमी पर घर में अथवा किसी मंदिर में अथवा किसी पार्क आदि में आंवले का वृक्ष लगाएं।
3.आंवले के पेड़ में भगवान विष्णु का स्मरण कर तर्पण करने से पित्र दोष शांत होता है।
4. इस दिन आंवला फल या उसकी पत्ती घर लाने से धन बढ़ता है और यश व ज्ञान की भी प्राप्ति होती है । पूजन करते समय या भोजन करते समय जो पत्तियां गिरें उन्हें लाना ज्यादा अच्छा माना जाता है।
5. आंवले के पेड़ में नीचे ब्रह्माजी, बीच में विष्णुजी और तने में महेशजी निवास करते हैं । इसलिए इस दिन कुंवारी लड़कियां अगर व्रत रखती हैं तो उनका विवाह और विद्यार्थियों को विद्या की प्राप्ति होती है ।
6. जिन लोगों के सन्तान या पुत्र न हो वे पति पत्नी इस दिन श्रद्धापूर्वक आंवले के नीचे भगवान विष्णु का पूजन करें तो निश्चित ही पुत्र/ सन्तान होती है।
7. अगर दाम्पत्य जीवन कटु चल रहा है तो पति-पत्नी के बीच मिठास पैदा होती है । जिस तरह पेड़ में सूत लपेटा जाता है, उसी तरह रिश्ते भी एक-दूसरे से बंध जाते हैं ।
8. अक्षय नवमी को गौ, जमीन, हिरण, सोना व वस्त्राभूषण आदि दान करने से ब्रह्म हत्या जैसे महापाप भी मिट जाते हैं । इसीलिए इसे धात्री नवमी भी कहा गया है ।
9. जिनकी आंखें कमजोर होती हैं, अगर वह इस दिन कुम्हड़ा के अंदर पैसे, सोना, चांदी आदि रखकर पूजा कर ब्राह्मण को दान करते हैं तो उनको लाभ मिलता है ।
11. फलदार आंवले के पेड़ के नीचे ही पूजा करें, तभी फल मिलेगा ।
12. कुछ पण्डित घर मे आंवले की डाल लेकर पूजन करने की सलाह देते हैं किंतु इस दिन आंवले का पेड़ काटना निषेध है।
मित्रों, ये तो थीं धार्मिक बातें किंतु यदि आयुर्वेद और विज्ञान की दृष्टि से देखें तो शीत ऋतु का आगमन हो चुका है और आंवला नवमी एक शिक्षा भी है ऋतु अनुसार पथ्य अपथ्य का। इस समय से आंवला खाना शुरू करें और आंवला एकादशी तक यानी मार्च- अप्रैल तक तो साल भर स्वस्थ सुंदर निरोगी रहेंगे।
ऊपर कथा में भी बताया गया कि आंवले में तुलसी और बेल दोनो के गुण समाहित होते हैं तो एक आंवला आपकी हजार बीमारियां दूर कर देता है।
च्यवन ऋषि भी आंवले यानी च्यवनप्राश जिसका मुख्य घटक आंवला है खाकर ही पुनःयुवा हुए थे।
सर्दी के मौसम में पित्त बढ़ता है और लोगो को विभिन्न व्याधियां, खुजली इत्यादि हो जाते हैं ऐसे में आंवले का सेवन उस बढ़े हुए पित्त को नियंत्रित कर शरीर की इम्युनिटी यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाकर आपको स्वस्थ रखता है।
इसलिए इस पर्व को परम्परा का ढकोसला न समझें न ही बोझमानकर मनाएं बल्कि अपने पूर्वजों की वैज्ञानिक सोच का सम्मान करते हुए आनन्द और आदरपूर्वक मनाएं।
।।जय श्री राम।।
Abhishek B. Pandey
7579400465
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अक्षय नवमी , 29 अक्टूबर 2017, रविवार
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अक्षय नवमी और आंवला नवमी कहा जाता है।इस तिथि के विषय में भगवान कहते है अक्षय नवमी मे जो भी पुण्य और उत्तम कर्म किये जाते हैं उससे प्राप्त पुण्य कभी नष्ट नहीं होते, यही कारण है कि इसे नवमी तिथि को अक्षय नवमी कहा गया है।
मान्यताओं के अनुसार:-
1. अक्षय नवमी के दिन ही त्रेता युग का आरम्भ हुआ था।
2. इसी दिन कुष्मांडा देवी का प्राकट्य हुआ था इसलिए इसे कुष्मांड नवमी भी कहते हैं और इस दिन कुष्मांड यानी कुम्हड़े का दान बेहद महत्वपूर्ण है।
3. एक अन्य मान्यता अनुसार भगवान विष्णु ने इसी दिन कुष्मांडक नामक राक्षस का वध किया था जिसके शरीर से कुष्मांड की बेले निकली हुई थी।
4. देवी पुराण के अनुसार श्रीकृष्ण के परामर्श से माता कुंती ने भी अक्षय प्राप्ति के लिए इस दिन व्रत किया था, तभी से इस व्रत का प्रचलन शुरू हो गया ।
5. इस दिन श्रद्धापूर्वक आंवले के नीचे भगवान विष्णु का पूजन करें तो निश्चित ही पुत्र/ सन्तान होती है।
इस दिन प्रात: काल स्नान करके भगवान विष्णु और शिव जी के दर्शन करने से अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है. इस तिथि को पूजा, दान, यज्ञ, तर्पण करने से उत्तम फल की प्राप्ति होती है.
शास्त्रों में ब्रह्महत्या को घोर पाप बताया गया है. यह पाप करने वाला अपने दुष्कर्म का फल अवश्य भोगता है, लेकिन अगर वह अक्षमय नवमी के दिन स्वर्ण, भूमि, वस्त्र एवं अन्नदान करे वह आंवले के वृक्ष के नीचे लोगों को भोजन करायें तो इस पाप से मुक्त हो सकता है। इस नवमी को आंवले के पेड़ के नीचे भोजन करने व कराने का बहुत महत्व है यही कारण है कि इसे धातृ नवमी भी कहा जाता है। संस्कृत में धातृ या धात्री आंवले को कहा जाता है।
अक्षय नवमी कथा
कथा के अनुसार, एक बार देवी लक्ष्मी तीर्थाटन पर निकली तो रास्ते में उनकी इच्छा हुई कि भगवान विष्णु और शिव की पूजा की जाये। देवी लक्ष्मी उस समय सोचने लगीं कि एक मात्र चीज़ क्या हो सकती है जिसे भगवान विष्णु और शिव जी पसंदीद करते हों उसे ही प्रतीक मानकर पूजा की जाये। इस प्रकार काफी विचार करने पर देवी लक्ष्मी को ध्यान पर आया कि धात्री ही ऐसी है जिसमें तुलसी और विल्व दोनों के गुण मजूद हैं फलत: इन्हीं की पूजा करनी चाहिए। देवी लक्ष्मी तब धात्री के वृक्ष की पूजा की और उसी वृक्ष के नीचे प्रसाद ग्रहण किया। इस दिन से ही धात्री के वृक्ष की पूजा का प्रचलन हुआ।
अक्षय नवमी पूजा विधि
अक्षय नवमी के दिन संध्या काल में आंवले के पेड़ के नीचे भोजन बनाकर लोगों को खाना खिलाने से बहुत ही पुण्य मिलता है. ऐसी मान्यता है कि भोजन करते समय थाली में आंवले का पत्ता गिरे तो बहुत ही शुभ माना जाता है साथ ही यह संकेत होता है कि आप वर्ष भर स्वस्थ रहेंगे.
अक्षय दिन का पूजा विधान इस प्रकार है. आंवले के वृक्ष के सामने पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठें. धातृ के वृद्ध की पंचोपचार सहित पूजा करें फिर वृक्ष की जड़ को दूध से सिंचन करें। कच्चे सूत को लेकर धात्री के तने में लपेटें अंत में घी और कर्पूर से आरती और परिक्रमा करें.
आंवला वृक्ष का पूजन
आंवला नवमी के दिन सुबह स्नान कर दाहिने हाथ में जल, चावल, फूल आदि लेकर निम्न प्रकार से व्रत का संकल्प करें-
अद्येत्यादि अमुकगोत्रोमुकम (अपना नाम एवं गोत्र बोलें) ममाखिल-पापक्षयपूर्वक-धर्मार्थकाममोक्ष-सिद्धिद्वारा श्रीविष्णुप्रीत्यर्थं धात्रीमूले विष्णुपूजनं धात्रीपूजनं च करिष्ये।
ऐसा संकल्प कर आंवले के वृक्ष के नीचे पूर्व दिशा की ओर मुख करके
ॐ धात्र्यै नम:
मंत्र से आवाहनादि पंचोपचार/ षोडशोपचार पूजन करके निम्नलिखित मंत्रों से आंवले के वृक्ष की जड़ में दूध की धारा गिराते हुए पितरों का तर्पण करें-
पिता पितामहाश्चान्ये अपुत्रा ये च गोत्रिण:।
ते पिबन्तु मया दत्तं धात्रीमूलेक्षयं पय:।।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवा:।
ते पिवन्तु मया दत्तं धात्रीमूलेक्षयं पय:।।
इसके बाद आंवले के वृक्ष के तने में निम्न मंत्र से
कच्चे सूत को परिक्रमा कर तने पर लपेटें-
दामोदरनिवासायै धात्र्यै देव्यै नमो नम:।
सूत्रेणानेन बध्नामि धात्रि देवि नमोस्तु ते।।
इसके बाद कर्पूर या शुद्ध घी के दिए से आंवले के वृक्ष की आरती करें तथा निम्न मंत्र से उसकी प्रदक्षिणा करें -
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च।
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे।।
इसके बाद आंवले के वृक्ष के नीचे ही ब्राह्मणों को भोजन भी कराना चाहिए और अंत में स्वयं भी आंवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन करना चाहिए। एक पका हुआ कुम्हड़ा (कद्दू) लेकर उसके अंदर रत्न, सोना, चांदी या रुपए आदि रखकर निम्न संकल्प करें-
ममाखिलपापक्षयपूर्वक सुख सौभाग्यादीनामुक्तरोत्तराभिवृद्धये कूष्माण्डदानमहं करिष्ये।
इसके बाद योग्य ब्राह्मण को तिलक करके दक्षिणा सहित कुम्हड़ा दे दें और यह प्रार्थना करें-
कूष्णाण्डं बहुबीजाढयं ब्रह्णा निर्मितं पुरा।
दास्यामि विष्णवे तुभ्यं पितृणां तारणाय च।।
पितरों के शीत निवारण के लिए यथाशक्ति कंबल आदि ऊनी कपड़े भी योग्य ब्राह्मण को देना चाहिए।
घर में आंवले का वृक्ष न हो तो किसी बगीचे आदि में आंवले के वृक्ष के समीप जाकर पूजा, दानादि करने की भी परंपरा है अथवा गमले में आंवले का पौधा रोपित कर घर में यह कार्य संपन्न कर लेना चाहिए।
क्या करें:-
सुबह घर की अच्छी तरह साफ सफाई करें ताकि अलक्ष्मी दूर हो भगवान विष्णु संग लक्ष्मी आगमन हो।
1. इस दिन आंवले के रस को जल में मिलाकर स्नान करने से सुंदरता और यौवन की प्राप्ति होती है।
2. अक्षय नवमी पर घर में अथवा किसी मंदिर में अथवा किसी पार्क आदि में आंवले का वृक्ष लगाएं।
3.आंवले के पेड़ में भगवान विष्णु का स्मरण कर तर्पण करने से पित्र दोष शांत होता है।
4. इस दिन आंवला फल या उसकी पत्ती घर लाने से धन बढ़ता है और यश व ज्ञान की भी प्राप्ति होती है । पूजन करते समय या भोजन करते समय जो पत्तियां गिरें उन्हें लाना ज्यादा अच्छा माना जाता है।
5. आंवले के पेड़ में नीचे ब्रह्माजी, बीच में विष्णुजी और तने में महेशजी निवास करते हैं । इसलिए इस दिन कुंवारी लड़कियां अगर व्रत रखती हैं तो उनका विवाह और विद्यार्थियों को विद्या की प्राप्ति होती है ।
6. जिन लोगों के सन्तान या पुत्र न हो वे पति पत्नी इस दिन श्रद्धापूर्वक आंवले के नीचे भगवान विष्णु का पूजन करें तो निश्चित ही पुत्र/ सन्तान होती है।
7. अगर दाम्पत्य जीवन कटु चल रहा है तो पति-पत्नी के बीच मिठास पैदा होती है । जिस तरह पेड़ में सूत लपेटा जाता है, उसी तरह रिश्ते भी एक-दूसरे से बंध जाते हैं ।
8. अक्षय नवमी को गौ, जमीन, हिरण, सोना व वस्त्राभूषण आदि दान करने से ब्रह्म हत्या जैसे महापाप भी मिट जाते हैं । इसीलिए इसे धात्री नवमी भी कहा गया है ।
9. जिनकी आंखें कमजोर होती हैं, अगर वह इस दिन कुम्हड़ा के अंदर पैसे, सोना, चांदी आदि रखकर पूजा कर ब्राह्मण को दान करते हैं तो उनको लाभ मिलता है ।
11. फलदार आंवले के पेड़ के नीचे ही पूजा करें, तभी फल मिलेगा ।
12. कुछ पण्डित घर मे आंवले की डाल लेकर पूजन करने की सलाह देते हैं किंतु इस दिन आंवले का पेड़ काटना निषेध है।
मित्रों, ये तो थीं धार्मिक बातें किंतु यदि आयुर्वेद और विज्ञान की दृष्टि से देखें तो शीत ऋतु का आगमन हो चुका है और आंवला नवमी एक शिक्षा भी है ऋतु अनुसार पथ्य अपथ्य का। इस समय से आंवला खाना शुरू करें और आंवला एकादशी तक यानी मार्च- अप्रैल तक तो साल भर स्वस्थ सुंदर निरोगी रहेंगे।
ऊपर कथा में भी बताया गया कि आंवले में तुलसी और बेल दोनो के गुण समाहित होते हैं तो एक आंवला आपकी हजार बीमारियां दूर कर देता है।
च्यवन ऋषि भी आंवले यानी च्यवनप्राश जिसका मुख्य घटक आंवला है खाकर ही पुनःयुवा हुए थे।
सर्दी के मौसम में पित्त बढ़ता है और लोगो को विभिन्न व्याधियां, खुजली इत्यादि हो जाते हैं ऐसे में आंवले का सेवन उस बढ़े हुए पित्त को नियंत्रित कर शरीर की इम्युनिटी यानी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाकर आपको स्वस्थ रखता है।
इसलिए इस पर्व को परम्परा का ढकोसला न समझें न ही बोझमानकर मनाएं बल्कि अपने पूर्वजों की वैज्ञानिक सोच का सम्मान करते हुए आनन्द और आदरपूर्वक मनाएं।
।।जय श्री राम।।
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Wednesday, 18 October 2017
Diwali 2017 Lakshmi suktam दीपावली 2017 विशेष लक्ष्मी सूक्तं
आप सभी मित्रों को दीपावली एवम लक्ष्मी प्रकटोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं।
माँ महालक्ष्मी आपको आपको धन, सुख, सौभाग्य, आरोग्य, समृद्धि, और सफलता प्रदान करें।
ध्यान:
ॐ या सा पद्मासनस्था,
विपुल-कटि-तटी, पद्म-दलायताक्षी।
गम्भीरावर्त-नाभिः,
स्तन-भर-नमिता, शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया।।
लक्ष्मी दिव्यैर्गजेन्द्रैः। मणि-गज-खचितैः, स्नापिता हेम-कुम्भैः।
नित्यं सा पद्म-हस्ता, मम वसतु गृहे, सर्व-मांगल्य-युक्ता।।
काम, क्रोध, लोभ वृत्ति से मुक्ति प्राप्त कर धन, धान्य, सुख, ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए उपयोगी स्तोत्र ह
श्री लक्ष्मीसूक्त पाठ
पद्मानने पद्मिनि पद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥१।।
- हे लक्ष्मी देवी! आप कमलमुखी, कमल पुष्प पर विराजमान, कमल-दल के समान नेत्रों वाली, कमल पुष्पों को पसंद करने वाली हैं। सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं। आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। हे देवी! आपके चरण-कमल सदैव मेरे हृदय में स्थित हों।
पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसिं पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्॥२।।
- हे लक्ष्मी देवी! आपका श्रीमुख, ऊरु भाग, नेत्र आदि कमल के समान हैं। आपकी उत्पत्ति कमल से हुई है। हे कमलनयनी! मैं आपका स्मरण करता हूँ, आप मुझ पर कृपा करें।
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने।
धनं मे जुष तां देवि सर्वांकामांश्च देहि मे॥३।।
- हे देवी! अश्व, गौ, धन आदि देने में आप समर्थ हैं। आप मुझे धन प्रदान करें। हे माता! मेरी सभी कामनाओं को आप पूर्ण करें।
पुत्र पौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम्।
प्रजानां भवसी माता आयुष्मंतं करोतु मे॥४।।
- हे देवी! आप सृष्टि के समस्त जीवों की माता हैं। आप मुझे पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, हाथी-घोड़े, गौ, बैल, रथ आदि प्रदान करें। आप मुझे दीर्घ-आयुष्य बनाएँ।
धनमाग्नि धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसु।
धन मिंद्रो बृहस्पतिर्वरुणां धनमस्तु मे॥५।।
- हे लक्ष्मी! आप मुझे अग्नि, धन, वायु, सूर्य, जल, बृहस्पति, वरुण आदि की कृपा द्वारा धन की प्राप्ति कराएँ।
वैनतेय सोमं पिव सोमं पिवतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥६।।
- हे वैनतेय पुत्र गरुड़! वृत्रासुर के वधकर्ता, इंद्र, आदि समस्त देव जो अमृत पीने वाले हैं, मुझे अमृतयुक्त धन प्रदान करें।
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभामतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां सूक्त जापिनाम्॥७।।
- इस सूक्त का पाठ करने वाले की क्रोध, मत्सर, लोभ व अन्य अशुभ कर्मों में वृत्ति नहीं रहती, वे सत्कर्म की ओर प्रेरित होते हैं।
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गंधमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरी प्रसीद मह्यम्॥८।।
- हे त्रिभुवनेश्वरी! हे कमलनिवासिनी! आप हाथ में कमल धारण किए रहती हैं। श्वेत, स्वच्छ वस्त्र, चंदन व माला से युक्त हे विष्णुप्रिया देवी! आप सबके मन की जानने वाली हैं। आप मुझ दीन पर कृपा करें।
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम्।
लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम॥९।।
- भगवान विष्णु की प्रिय पत्नी, माधवप्रिया, भगवान अच्युत की प्रेयसी, क्षमा की मूर्ति, लक्ष्मी देवी मैं आपको बारंबार नमन करता हूँ।
महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥१०।।
- हम महादेवी लक्ष्मी का स्मरण करते हैं। विष्णुपत्नी लक्ष्मी हम पर कृपा करें, वे देवी हमें सत्कार्यों की ओर प्रवृत्त करें।
चंद्रप्रभां लक्ष्मीमेशानीं सूर्याभांलक्ष्मीमेश्वरीम्।
चंद्र सूर्याग्निसंकाशां श्रिय देवीमुपास्महे॥११।।
- जो चंद्रमा की आभा के समान शीतल और सूर्य के समान परम तेजोमय हैं उन परमेश्वरी लक्ष्मीजी की हम आराधना करते हैं।
श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाभिधाच्छ्रोभमानं महीयते।
धान्य धनं पशु बहु पुत्रलाभम् सत्संवत्सरं दीर्घमायुः॥१२।।
- इस लक्ष्मी सूक्त का पाठ करने से व्यक्ति श्री, तेज, आयु, स्वास्थ्य से युक्त होकर शोभायमान रहता है। वह धन-धान्य व पशु धन सम्पन्न, पुत्रवान होकर दीर्घायु होता है।
॥ इति श्रीलक्ष्मी सूक्तम् संपूर्णम् ॥
।।जय श्री राम।।
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माँ महालक्ष्मी आपको आपको धन, सुख, सौभाग्य, आरोग्य, समृद्धि, और सफलता प्रदान करें।
ध्यान:
ॐ या सा पद्मासनस्था,
विपुल-कटि-तटी, पद्म-दलायताक्षी।
गम्भीरावर्त-नाभिः,
स्तन-भर-नमिता, शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया।।
लक्ष्मी दिव्यैर्गजेन्द्रैः। मणि-गज-खचितैः, स्नापिता हेम-कुम्भैः।
नित्यं सा पद्म-हस्ता, मम वसतु गृहे, सर्व-मांगल्य-युक्ता।।
काम, क्रोध, लोभ वृत्ति से मुक्ति प्राप्त कर धन, धान्य, सुख, ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए उपयोगी स्तोत्र ह
श्री लक्ष्मीसूक्त पाठ
पद्मानने पद्मिनि पद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विश्वमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥१।।
- हे लक्ष्मी देवी! आप कमलमुखी, कमल पुष्प पर विराजमान, कमल-दल के समान नेत्रों वाली, कमल पुष्पों को पसंद करने वाली हैं। सृष्टि के सभी जीव आपकी कृपा की कामना करते हैं। आप सबको मनोनुकूल फल देने वाली हैं। हे देवी! आपके चरण-कमल सदैव मेरे हृदय में स्थित हों।
पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
तन्मे भजसिं पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम्॥२।।
- हे लक्ष्मी देवी! आपका श्रीमुख, ऊरु भाग, नेत्र आदि कमल के समान हैं। आपकी उत्पत्ति कमल से हुई है। हे कमलनयनी! मैं आपका स्मरण करता हूँ, आप मुझ पर कृपा करें।
अश्वदायी गोदायी धनदायी महाधने।
धनं मे जुष तां देवि सर्वांकामांश्च देहि मे॥३।।
- हे देवी! अश्व, गौ, धन आदि देने में आप समर्थ हैं। आप मुझे धन प्रदान करें। हे माता! मेरी सभी कामनाओं को आप पूर्ण करें।
पुत्र पौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवेरथम्।
प्रजानां भवसी माता आयुष्मंतं करोतु मे॥४।।
- हे देवी! आप सृष्टि के समस्त जीवों की माता हैं। आप मुझे पुत्र-पौत्र, धन-धान्य, हाथी-घोड़े, गौ, बैल, रथ आदि प्रदान करें। आप मुझे दीर्घ-आयुष्य बनाएँ।
धनमाग्नि धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसु।
धन मिंद्रो बृहस्पतिर्वरुणां धनमस्तु मे॥५।।
- हे लक्ष्मी! आप मुझे अग्नि, धन, वायु, सूर्य, जल, बृहस्पति, वरुण आदि की कृपा द्वारा धन की प्राप्ति कराएँ।
वैनतेय सोमं पिव सोमं पिवतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥६।।
- हे वैनतेय पुत्र गरुड़! वृत्रासुर के वधकर्ता, इंद्र, आदि समस्त देव जो अमृत पीने वाले हैं, मुझे अमृतयुक्त धन प्रदान करें।
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभामतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां सूक्त जापिनाम्॥७।।
- इस सूक्त का पाठ करने वाले की क्रोध, मत्सर, लोभ व अन्य अशुभ कर्मों में वृत्ति नहीं रहती, वे सत्कर्म की ओर प्रेरित होते हैं।
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गंधमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरी प्रसीद मह्यम्॥८।।
- हे त्रिभुवनेश्वरी! हे कमलनिवासिनी! आप हाथ में कमल धारण किए रहती हैं। श्वेत, स्वच्छ वस्त्र, चंदन व माला से युक्त हे विष्णुप्रिया देवी! आप सबके मन की जानने वाली हैं। आप मुझ दीन पर कृपा करें।
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम्।
लक्ष्मीं प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम॥९।।
- भगवान विष्णु की प्रिय पत्नी, माधवप्रिया, भगवान अच्युत की प्रेयसी, क्षमा की मूर्ति, लक्ष्मी देवी मैं आपको बारंबार नमन करता हूँ।
महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥१०।।
- हम महादेवी लक्ष्मी का स्मरण करते हैं। विष्णुपत्नी लक्ष्मी हम पर कृपा करें, वे देवी हमें सत्कार्यों की ओर प्रवृत्त करें।
चंद्रप्रभां लक्ष्मीमेशानीं सूर्याभांलक्ष्मीमेश्वरीम्।
चंद्र सूर्याग्निसंकाशां श्रिय देवीमुपास्महे॥११।।
- जो चंद्रमा की आभा के समान शीतल और सूर्य के समान परम तेजोमय हैं उन परमेश्वरी लक्ष्मीजी की हम आराधना करते हैं।
श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाभिधाच्छ्रोभमानं महीयते।
धान्य धनं पशु बहु पुत्रलाभम् सत्संवत्सरं दीर्घमायुः॥१२।।
- इस लक्ष्मी सूक्त का पाठ करने से व्यक्ति श्री, तेज, आयु, स्वास्थ्य से युक्त होकर शोभायमान रहता है। वह धन-धान्य व पशु धन सम्पन्न, पुत्रवान होकर दीर्घायु होता है।
॥ इति श्रीलक्ष्मी सूक्तम् संपूर्णम् ॥
।।जय श्री राम।।
Abhishek B. Pandey
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नरक चतुर्दशी पर पितरो की शांति के लिए उपाय
नरक चतुर्दशी पर एक आसान उपाय
नरक चतुर्दशी यानि की छोटी दिवाली के दिन अपने पितृ की आत्मा की शांति के लिए
एक थाल को सजाकर उसमें एक चौमुख दीया तथा सोलह छोटे दीप तेल के जलाएं ।
पर उन्हें जलाने से पहले व्यक्ति को अपने ईष्ट देव की पूजा करें ।
उसके बाद चौमुख दीया को अपने घर के दरवाजे पर रखें और बाकी दिए को घर के अलग स्थान पर रख दें !
एक दिया दक्षिण की ओर अवश्य जलाएं।
ऐसा करने से अकाल मृत्यु का भय नहीं होता।
।।जय श्री राम।।
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पर उन्हें जलाने से पहले व्यक्ति को अपने ईष्ट देव की पूजा करें ।
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ऐसा करने से अकाल मृत्यु का भय नहीं होता।
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Monday, 16 October 2017
धनतेरस 2017 विशेष उपाय Dhanteras 2017 remedy for money
धनतेरस 2017 का विशेष उपाय
धन प्राप्ति के लिए सबसे आसान और अचूक उपाय
मित्रों
धन तेरस यानी धन त्रयोदशी और लक्ष्मी पूजा बिना शिव के पूर्ण नहीं होता।
उस पर आज भौम प्रदोष है यानी मंगलवार को धनतेरस के होना एक अति लाभदायक संयोग।
ये बेहद सरल और सबसे अचूक उपाय है जो न सिर्फ अचानक धन प्राप्ति करवाता है बल्कि लगातार यहां वहां से धन प्रबन्ध करता करवाता रहता है।
ये प्राचीन , परम्परागत और अनगिनत लोगों का आजमाया हुआ प्रयोग है
इसके लिए बाज़ार से दो कमल के पुष्प , दो बिल्व यानि बेल के फल और कुछ बिल्व पत्र ले आएं।
माह की दोनों प्रदोष यानि त्रयोदशी तिथि पर जो आज भी है प्रदोष काल यानि शाम में भगवान शिव का जल से अभिषेक करें।
फिर भगवान शिव को बेल पत्र, कमल पुष्प और बेल फल चढ़ाएं, धूप दीप से पूजन कर खीर से भोग लगाएं।
शिव पञ्चाक्षरी मन्त्र का जप करें।
ॐ नमः शिवाय
फिर इसी प्रकार माँ महालक्ष्मी का भी धूप दीप से पूजन करें, कमल पुष्प , अर्पित कर बिल्व फल अर्पित करें और खीर का भोग लगाएं।
माँ महालक्ष्मी के मन्त्र का जप करें।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मयै नमः।
जप जितने अधिक करेंगे उतना ही उत्तम और शीघ्र फल मिलेगा।
4 से 5 त्रयोदशी होते होते स्वयं इस पूजन का लाभ देख लेंगे।
सभी सामग्रियाँ सहजता से उपलब्ध हो जाती हैं।
इस उपाय का तांत्रिक रहस्य है। कम से कम 5 प्रदोष अवश्य करें । क्योंकि जब लाभ होने लगेगा तो आप स्वतः हर प्रदोष ये स्वयं करने लगेंगे।
अन्य किसी जानकारी, समस्या समाधान और कुंडली विश्लेषण हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।
।।जय श्री राम।।
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धन प्राप्ति के लिए सबसे आसान और अचूक उपाय
मित्रों
धन तेरस यानी धन त्रयोदशी और लक्ष्मी पूजा बिना शिव के पूर्ण नहीं होता।
उस पर आज भौम प्रदोष है यानी मंगलवार को धनतेरस के होना एक अति लाभदायक संयोग।
ये बेहद सरल और सबसे अचूक उपाय है जो न सिर्फ अचानक धन प्राप्ति करवाता है बल्कि लगातार यहां वहां से धन प्रबन्ध करता करवाता रहता है।
ये प्राचीन , परम्परागत और अनगिनत लोगों का आजमाया हुआ प्रयोग है
इसके लिए बाज़ार से दो कमल के पुष्प , दो बिल्व यानि बेल के फल और कुछ बिल्व पत्र ले आएं।
माह की दोनों प्रदोष यानि त्रयोदशी तिथि पर जो आज भी है प्रदोष काल यानि शाम में भगवान शिव का जल से अभिषेक करें।
फिर भगवान शिव को बेल पत्र, कमल पुष्प और बेल फल चढ़ाएं, धूप दीप से पूजन कर खीर से भोग लगाएं।
शिव पञ्चाक्षरी मन्त्र का जप करें।
ॐ नमः शिवाय
फिर इसी प्रकार माँ महालक्ष्मी का भी धूप दीप से पूजन करें, कमल पुष्प , अर्पित कर बिल्व फल अर्पित करें और खीर का भोग लगाएं।
माँ महालक्ष्मी के मन्त्र का जप करें।
ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्मयै नमः।
जप जितने अधिक करेंगे उतना ही उत्तम और शीघ्र फल मिलेगा।
4 से 5 त्रयोदशी होते होते स्वयं इस पूजन का लाभ देख लेंगे।
सभी सामग्रियाँ सहजता से उपलब्ध हो जाती हैं।
इस उपाय का तांत्रिक रहस्य है। कम से कम 5 प्रदोष अवश्य करें । क्योंकि जब लाभ होने लगेगा तो आप स्वतः हर प्रदोष ये स्वयं करने लगेंगे।
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Wednesday, 4 October 2017
Sharad / Kojagiri purnima for health and wealth शरद/ कोजागिरी पूर्णिमा स्वास्थ्य और धनलाभ का पर्व
शरद पूर्णिमा : स्वास्थ्य और धनलाभ का पर्व
शरद पूर्णिमा पर व्रत कथा :-
शरद पूर्णिमा से संबंधित व्रत कथा इस प्रकार है। एक साहूकार था। उसके दो पुत्रिया थीं, उनमें से एक शरद पूर्णिमा का व्रत रखती थीं व दूसरी व्रत को अधूरा छोड़ देती थीं। परिणामस्वरूप दूसरी के जो संतान होती थी वह मर जाया करती थी।
इससे दुखी होकर उसने पंडितों से इसका कारण जानना चाहा तो मालूम हुआ कि व्रत पूरा न करने की वजह से ऐसा होता है। इसके बाद वह पूरा व्रत करने लगी किंतु फिर भी लड़का होने के बाद वह मर गया तो वह अपनी बहन को बुला लाई। उसकी साड़ी को छूते ही मृतक पुन: जीवित हो गया।
इससे उसके मन में व्रत के प्रति स्नेह हुआ व आस्था बढ़ी। इसके बाद शरद पूर्णिमा के व्रत का महत्व बढ़ गया ओर इसी कारण से इस व्रत को संतान सुख देने वाला भी माना गया है। ऐसी मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की रात को जो औरत गर्भ धारण करती है, वह निश्चित रूप से प्रतिभाशाली, स्वस्थ चंद्र जैसी काति वाले पुत्र को जन्म देती है।
गीता में श्री कृष्ण भगवान ने भी कहा है,
'पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।'
'रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।' (गीताः15.13)
हमारे शास्त्रों में अनेक मान्यताएं है जिनके अनुरूप शरद पूर्णिमा की खीर का विशेष महत्व है ।
शरद पूर्णिमा का अध्यात्मिक महत्व एवं मान्यताएं :-
हिंदू संस्कृति में आश्रि्वन मास की पूर्णिमा का अपना विशेष महत्व है। इसे शरद पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। शरद पूर्णिमा को आनंद व उल्लास का पर्व माना जाता है। इस पर्व का धार्मिक व वैज्ञानिक महत्व भी है।
*ऐसा माना जाता है कि शरद पूर्णिमा की रात्रि में भगवान शकर एवं माँ पार्वती कैलाश पर्वत पर रमण करते हैं, तथा संपूर्ण कैलाश पर्वत पर चंद्रमा जगमगा जाता है।
* भगवान कृष्ण ने भी शरद पूर्णिमा को रास-लीला की थी, तथा मथुरा-वृंदावन सहित अनेक स्थानों पर इस रात को रास-लीलाओं का आयोजन किया जाता है। लोग शरद पूर्णिमा को व्रत भी रखते हैं, तथा शास्त्रों में इसे कौमुदी व्रत भी कहा गया है।
*लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।
* ये भी माना जाता है कि इस रात माता लक्ष्मी अपने धनाधिपति कुबेर संग रात्रि भृमण करती हैं और जो लोग रात में जगते हुए, उनका पूजन स्मरण आदि करते मिलते हैं उन्हें मालामाल कर देती हैं।
*लक्ष्मी प्राप्ति की कामना से लोग चन्द्र दर्शन के प्रथम पहर में चन्द्र अमृत वर्षा उपरांत इस खीर से माता लक्ष्मी का भोग अर्ध रात्रि में लगाते हैं तो कहीं कहीं पर अगले दिन प्रातः काल फिर ब्राह्मण आदि को इसे खिलाकर स्वयम खाते हैं
यानी ऐसा पर्व जो धन और स्वास्थ्य दोनो के लिए लाभकारी है।
*ऐसी भी अति प्रचलित मान्यता है कि इस रात चन्द्रमा की रोशनी में सुई में धागा डालने से नेत्र ज्योति बरकरार रहती है।
* वहीं शरद पूर्णिमा की रात्रि चन्द्रदेव पर त्राटक अभ्यास भी नेत्र ज्योति के लिए लाभदायक माना जाता है।
*पूर्णिमा को चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है
जिससे चंद्रमा के प्रकाश की किरणें पृथ्वी पर स्वास्थ्य की बौछारे करती हैं।
* कहा जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणों से नाग का विष भी अमृत बन जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि प्रकृति इस दिन धरती पर अमृत वर्षा करती है।
*चेहरे पर काति आती है :-
शरद पूर्णिमा की रात को चंद्रमा का पूजन कर भोग लगाया जाता है, जिससे आयु बढ़ती है व चेहरे पर कान्ति आती है , एवं शरीर स्वस्थ रहता है। शरद पूर्णिमा की मनमोहक सुनहरी रात में वैद्यों द्वारा जड़ी बूटियों से औषधि का निर्माण किया जाता है।
चंद्र किरणों में तैयार स्वास्थ्य खीर :-
* इसी प्रकार वैद्य लोग विभिन्न प्रकार के रोगियों के लिए इस रात चंद्र किरणों में खीर तैयार करते है।
सामान्य खीर में कालीमिर्च, सोंठ, पिप्पली, दशमूल, वंशलोचन, अमृता, इलायची, केसर, शहद आदि प्रयोग किये जाते हैं वहीं रोगी एवम रोग अनुसार भी औषधि एवं अनुपात का सामंजस्य किया जाता है।
*व्रत रखने वाले लोग चंद्र किरणों में पकाई गई खीर को अगले रोज प्रसाद के रूप में ग्रहण कर अपना व्रत खोलते है।
*सौंदर्य व छटा मन हर्षित करने वाली शरद पूर्णिमा की रात को नौका विहार करना, नदी में स्नान करना शुभ माना जाता है।
शरद पूर्णिमा की रात प्रकृति का सौंदर्य व छटा मन को हर्षित करने वाली होती है। नाना प्रकार के पुष्पों की सुगंध इस रात में बढ़ जाती है, जो मन को लुभाती है वहीं तन को भी मुग्ध करती है। यह पर्व स्वास्थ्य, सौंदर्य व उल्लास बढ़ाने वाला माना गया है।
* इससे रोगी को सांस और कफ दोष के कारण होने वाली तकलीफों में काफी लाभ मिलता है I रात्रि जागरण के महत्व के कारण ही इसे जागृति (कोजागिरी यानी कौन जग रहा है) पूर्णिमा भी कहा जाता है , इसका एक कारण रात्रि में स्वाभाविक कफ के प्रकोप को जागरण से कम करना हैI
*इस खीर को मधुमेह से पीड़ित रोगी भी ले सकते हैं, बस इसमें मिश्री की जगह प्राकृतिक स्वीटनर स्टीविया की पत्तियों को मिला दें I
हमारी हर प्राचीन परंपरा में वैज्ञानिकता का दर्शन होता हैं अज्ञानता का नहीं..
आप जानते होंगे की शरद ऋतु के प्रारम्भ में दिन थोड़े गर्म और रातें शीतल हो जाया करती हैं I
आयुर्वेद अनुसार यह पित्त दोष के प्रकोप का काल माना जाता है और मधुर तिक्त कषाय रस पित्त दोष का शमन करते हैं।
खीर खाने से पित्त का शमन होता है । शरद में ही पितृ पक्ष (श्राद्ध) आता है पितरों का मुख्य भोजन है खीर । इस दौरान 5-7 बार खीर खाना हो जाता है । इसके बाद शरद पुर्णिमा को रातभर पात्र में रखी खीर सुबह खाई जाती है
(चाँदी का पात्र न हो तो चाँदी का चम्मच खीर मे डाल दे, लेकिन बर्तन मिट्टी, काँसा या पीतल का हो।
क्योंकि स्टील जहर और एल्यूमिनियम, प्लास्टिक, चीनी मिट्टी महा-जहर है)
यह खीर विशेष ठंडक पहुंचाती है । गाय के दूध की हो तो अति उत्तम, विशेष गुणकारी (आयुर्वेद मे घी से अर्थात गौ घी और दूध )
👳ध्यान रहे : अधिक पित्त वाले इस में बनाई खीर में केसर और मेंवों का प्रयोग न करे । ये गर्म प्रवृत्ति के होने से पित्त बढ़ा सकते है। सिर्फ इलायची डाले ।
ऊपर बताई औषधियों का स्वयम प्रयोग न करें। यदि कोई जानकार वैद्य हों तो उनसे परामर्श लें अथवा पारिवारिक परम्परा अनुसार या सिर्फ इलायची मिश्री युक्त खीर बनाएं।
अन्य किसी जानकारी , कुंडली विश्लेषण और समस्या समाधान हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।
।।जय श्री राम।।
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शरद पूर्णिमा पर व्रत कथा :-
शरद पूर्णिमा से संबंधित व्रत कथा इस प्रकार है। एक साहूकार था। उसके दो पुत्रिया थीं, उनमें से एक शरद पूर्णिमा का व्रत रखती थीं व दूसरी व्रत को अधूरा छोड़ देती थीं। परिणामस्वरूप दूसरी के जो संतान होती थी वह मर जाया करती थी।
इससे दुखी होकर उसने पंडितों से इसका कारण जानना चाहा तो मालूम हुआ कि व्रत पूरा न करने की वजह से ऐसा होता है। इसके बाद वह पूरा व्रत करने लगी किंतु फिर भी लड़का होने के बाद वह मर गया तो वह अपनी बहन को बुला लाई। उसकी साड़ी को छूते ही मृतक पुन: जीवित हो गया।
इससे उसके मन में व्रत के प्रति स्नेह हुआ व आस्था बढ़ी। इसके बाद शरद पूर्णिमा के व्रत का महत्व बढ़ गया ओर इसी कारण से इस व्रत को संतान सुख देने वाला भी माना गया है। ऐसी मान्यता है कि शरद पूर्णिमा की रात को जो औरत गर्भ धारण करती है, वह निश्चित रूप से प्रतिभाशाली, स्वस्थ चंद्र जैसी काति वाले पुत्र को जन्म देती है।
गीता में श्री कृष्ण भगवान ने भी कहा है,
'पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः।।'
'रसस्वरूप अर्थात् अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को अर्थात् वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं।' (गीताः15.13)
हमारे शास्त्रों में अनेक मान्यताएं है जिनके अनुरूप शरद पूर्णिमा की खीर का विशेष महत्व है ।
शरद पूर्णिमा का अध्यात्मिक महत्व एवं मान्यताएं :-
हिंदू संस्कृति में आश्रि्वन मास की पूर्णिमा का अपना विशेष महत्व है। इसे शरद पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। शरद पूर्णिमा को आनंद व उल्लास का पर्व माना जाता है। इस पर्व का धार्मिक व वैज्ञानिक महत्व भी है।
*ऐसा माना जाता है कि शरद पूर्णिमा की रात्रि में भगवान शकर एवं माँ पार्वती कैलाश पर्वत पर रमण करते हैं, तथा संपूर्ण कैलाश पर्वत पर चंद्रमा जगमगा जाता है।
* भगवान कृष्ण ने भी शरद पूर्णिमा को रास-लीला की थी, तथा मथुरा-वृंदावन सहित अनेक स्थानों पर इस रात को रास-लीलाओं का आयोजन किया जाता है। लोग शरद पूर्णिमा को व्रत भी रखते हैं, तथा शास्त्रों में इसे कौमुदी व्रत भी कहा गया है।
*लंकाधिपति रावण शरद पूर्णिमा की रात किरणों को दर्पण के माध्यम से अपनी नाभि पर ग्रहण करता था। इस प्रक्रिया से उसे पुनर्योवन शक्ति प्राप्त होती थी। चांदनी रात में 10 से मध्यरात्रि 12 बजे के बीच कम वस्त्रों में घूमने वाले व्यक्ति को ऊर्जा प्राप्त होती है। सोमचक्र, नक्षत्रीय चक्र और आश्विन के त्रिकोण के कारण शरद ऋतु से ऊर्जा का संग्रह होता है और बसंत में निग्रह होता है।
* ये भी माना जाता है कि इस रात माता लक्ष्मी अपने धनाधिपति कुबेर संग रात्रि भृमण करती हैं और जो लोग रात में जगते हुए, उनका पूजन स्मरण आदि करते मिलते हैं उन्हें मालामाल कर देती हैं।
*लक्ष्मी प्राप्ति की कामना से लोग चन्द्र दर्शन के प्रथम पहर में चन्द्र अमृत वर्षा उपरांत इस खीर से माता लक्ष्मी का भोग अर्ध रात्रि में लगाते हैं तो कहीं कहीं पर अगले दिन प्रातः काल फिर ब्राह्मण आदि को इसे खिलाकर स्वयम खाते हैं
यानी ऐसा पर्व जो धन और स्वास्थ्य दोनो के लिए लाभकारी है।
*ऐसी भी अति प्रचलित मान्यता है कि इस रात चन्द्रमा की रोशनी में सुई में धागा डालने से नेत्र ज्योति बरकरार रहती है।
* वहीं शरद पूर्णिमा की रात्रि चन्द्रदेव पर त्राटक अभ्यास भी नेत्र ज्योति के लिए लाभदायक माना जाता है।
*पूर्णिमा को चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है
जिससे चंद्रमा के प्रकाश की किरणें पृथ्वी पर स्वास्थ्य की बौछारे करती हैं।
* कहा जाता है कि इस दिन चंद्रमा की किरणों से नाग का विष भी अमृत बन जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि प्रकृति इस दिन धरती पर अमृत वर्षा करती है।
*चेहरे पर काति आती है :-
शरद पूर्णिमा की रात को चंद्रमा का पूजन कर भोग लगाया जाता है, जिससे आयु बढ़ती है व चेहरे पर कान्ति आती है , एवं शरीर स्वस्थ रहता है। शरद पूर्णिमा की मनमोहक सुनहरी रात में वैद्यों द्वारा जड़ी बूटियों से औषधि का निर्माण किया जाता है।
चंद्र किरणों में तैयार स्वास्थ्य खीर :-
* इसी प्रकार वैद्य लोग विभिन्न प्रकार के रोगियों के लिए इस रात चंद्र किरणों में खीर तैयार करते है।
सामान्य खीर में कालीमिर्च, सोंठ, पिप्पली, दशमूल, वंशलोचन, अमृता, इलायची, केसर, शहद आदि प्रयोग किये जाते हैं वहीं रोगी एवम रोग अनुसार भी औषधि एवं अनुपात का सामंजस्य किया जाता है।
*व्रत रखने वाले लोग चंद्र किरणों में पकाई गई खीर को अगले रोज प्रसाद के रूप में ग्रहण कर अपना व्रत खोलते है।
*सौंदर्य व छटा मन हर्षित करने वाली शरद पूर्णिमा की रात को नौका विहार करना, नदी में स्नान करना शुभ माना जाता है।
शरद पूर्णिमा की रात प्रकृति का सौंदर्य व छटा मन को हर्षित करने वाली होती है। नाना प्रकार के पुष्पों की सुगंध इस रात में बढ़ जाती है, जो मन को लुभाती है वहीं तन को भी मुग्ध करती है। यह पर्व स्वास्थ्य, सौंदर्य व उल्लास बढ़ाने वाला माना गया है।
* इससे रोगी को सांस और कफ दोष के कारण होने वाली तकलीफों में काफी लाभ मिलता है I रात्रि जागरण के महत्व के कारण ही इसे जागृति (कोजागिरी यानी कौन जग रहा है) पूर्णिमा भी कहा जाता है , इसका एक कारण रात्रि में स्वाभाविक कफ के प्रकोप को जागरण से कम करना हैI
*इस खीर को मधुमेह से पीड़ित रोगी भी ले सकते हैं, बस इसमें मिश्री की जगह प्राकृतिक स्वीटनर स्टीविया की पत्तियों को मिला दें I
हमारी हर प्राचीन परंपरा में वैज्ञानिकता का दर्शन होता हैं अज्ञानता का नहीं..
आप जानते होंगे की शरद ऋतु के प्रारम्भ में दिन थोड़े गर्म और रातें शीतल हो जाया करती हैं I
आयुर्वेद अनुसार यह पित्त दोष के प्रकोप का काल माना जाता है और मधुर तिक्त कषाय रस पित्त दोष का शमन करते हैं।
खीर खाने से पित्त का शमन होता है । शरद में ही पितृ पक्ष (श्राद्ध) आता है पितरों का मुख्य भोजन है खीर । इस दौरान 5-7 बार खीर खाना हो जाता है । इसके बाद शरद पुर्णिमा को रातभर पात्र में रखी खीर सुबह खाई जाती है
(चाँदी का पात्र न हो तो चाँदी का चम्मच खीर मे डाल दे, लेकिन बर्तन मिट्टी, काँसा या पीतल का हो।
क्योंकि स्टील जहर और एल्यूमिनियम, प्लास्टिक, चीनी मिट्टी महा-जहर है)
यह खीर विशेष ठंडक पहुंचाती है । गाय के दूध की हो तो अति उत्तम, विशेष गुणकारी (आयुर्वेद मे घी से अर्थात गौ घी और दूध )
👳ध्यान रहे : अधिक पित्त वाले इस में बनाई खीर में केसर और मेंवों का प्रयोग न करे । ये गर्म प्रवृत्ति के होने से पित्त बढ़ा सकते है। सिर्फ इलायची डाले ।
ऊपर बताई औषधियों का स्वयम प्रयोग न करें। यदि कोई जानकार वैद्य हों तो उनसे परामर्श लें अथवा पारिवारिक परम्परा अनुसार या सिर्फ इलायची मिश्री युक्त खीर बनाएं।
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Friday, 29 September 2017
3 birds will give good luck 3 पक्षी जो दशहरे पर करेंगे मनोकामना पूरी
दशहरे पर सभी मनोकामनाएं पूर्ण करेगा इन तीन पक्षियों का दर्शन
1. खंजन पक्षी: सफेद, पीले, सलेटी और नीले रंग में पाया जाने वाला ये पक्षी आध्यत्मिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण है। इसे साक्षात हरिहर का स्वरूप माना गया है यानी भगवान विष्णु और शिव का।
शास्त्रों में दशहरे के पर्व पर इसके दर्शन को सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाला माना गया है। इसके विष्णु और शिव स्वरूप होने और पूजने के लिए लघु स्तोत्र भी हैं।
नदी नहर किनारे, खेत खलिहान नमी वाली जगहों पर अक्सर दिख जाता है।
2. नीलकंठ: इससे परिचय कराने की आवश्यकता ही नहीं, भगवान शिव के रूप में ये सदैव मन को प्रफुल्लित करने वाला और शुभ संकेत देने वाला माना गया है।
3. धनेश: अपने विचित्र रूप के कारण ये विशेष रूप से अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करता है, सम्पूर्ण शरीर 3 भागों में अलग सा नज़र आता है, बड़ी चोंच और सर इसे अलग बनाते हैं। ये पीले हरे स्लेटी लाल और मिश्रित रंगों में होता है।
माता लक्ष्मी और भगवान कुबेर का स्वरूप ये पक्षी भी अत्यंत शुभ फल दायीं है।
छोटे बीजदार फलों के पेड़ों पर अक्सर नज़र आता है।
इन तीनों में से कोई भी दिखे या भाग्यवश तीनों दिखें तो एक बार भगवान शिव, भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का स्मरण अवश्य कर लें। आपका समय अच्छा बीतेगा।
।।जय श्री राम।।
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1. खंजन पक्षी: सफेद, पीले, सलेटी और नीले रंग में पाया जाने वाला ये पक्षी आध्यत्मिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण है। इसे साक्षात हरिहर का स्वरूप माना गया है यानी भगवान विष्णु और शिव का।
शास्त्रों में दशहरे के पर्व पर इसके दर्शन को सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाला माना गया है। इसके विष्णु और शिव स्वरूप होने और पूजने के लिए लघु स्तोत्र भी हैं।
नदी नहर किनारे, खेत खलिहान नमी वाली जगहों पर अक्सर दिख जाता है।
2. नीलकंठ: इससे परिचय कराने की आवश्यकता ही नहीं, भगवान शिव के रूप में ये सदैव मन को प्रफुल्लित करने वाला और शुभ संकेत देने वाला माना गया है।
3. धनेश: अपने विचित्र रूप के कारण ये विशेष रूप से अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करता है, सम्पूर्ण शरीर 3 भागों में अलग सा नज़र आता है, बड़ी चोंच और सर इसे अलग बनाते हैं। ये पीले हरे स्लेटी लाल और मिश्रित रंगों में होता है।
माता लक्ष्मी और भगवान कुबेर का स्वरूप ये पक्षी भी अत्यंत शुभ फल दायीं है।
छोटे बीजदार फलों के पेड़ों पर अक्सर नज़र आता है।
इन तीनों में से कोई भी दिखे या भाग्यवश तीनों दिखें तो एक बार भगवान शिव, भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का स्मरण अवश्य कर लें। आपका समय अच्छा बीतेगा।
।।जय श्री राम।।
Abhishek B. Pandey
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Wednesday, 27 September 2017
Aprajita devi sadhna Dussehra 2017 अपराजिता साधना दशहरा विशेष 2017
अपराजिता साधना दशहरा विशेष 2017
अपराजिता का अर्थ है जो कभी पराजित नहीं होती।
देवी अपराजिता शक्ति की नौ शक्तियों में से एक हैं जिनका पूजन उनकी सहचरी जया और विजया के साथ होता है। इनसे सम्बंधित बहुत सी कथाएं भी प्रचलित हैं जो देवी पार्वती की बहुत ही अभिन्न सखियों के रूप में जानी जाती हैं - शक्ति की बहुत ही संहारकारी शक्ति है अपराजिता जो कभी अपराजित नहीं हो सकती और ना ही अपने साधकों को कभी पराजय का मुख देखने देती है - विषम परिस्थिति में जब सभी रास्ते बंद हों उस स्थिति में भी हंसी-खेल में अपने साधक को बचा ले जाना बहुत मामूली बात है अपराजिता के लिए।
अपराजिता की साधना के सम्बन्ध में" धर्मसिन्धु "जो वर्णन है वह निम्न प्रकार है :-
धर्मसिंधु में अपराजिता की पूजन की विधि संक्षेप में इस प्रकार है :-
"अपराह्न में गाँव के उत्तर पूर्व जाना चाहिए, एक स्वच्छ स्थल पर गोबर से लीप देना चाहिए, चंदन से आठ कोणों का एक चित्र खींच देना चाहिए उसके पश्चात संकल्प करना चहिए :
"मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्ध्यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये"
राजा के लिए विहित संकल्प अग्र प्रकार है :
" मम सकुटुम्बस्य यात्रायां विजयसिद्ध्यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये"
इसके उपरांत उस चित्र (आकृति) के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए और इसी प्रकार उसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चहिए और 'साथ ही क्रियाशक्ति को नमस्कार' एवं 'उमा को नमस्कार' कहना चाहिए।
इसके उपरांत :
"अपराजितायै नम:,
जयायै नम:,
विजयायै नम:,
मंत्रों के साथ अपराजिता, जया, विजया की पूजा 16 उपचारों के साथ करनी चाहिए और
यह प्रार्थना करनी चाहिए,
'हे देवी, यथाशक्ति जो पूजा मैंने अपनी रक्षा के लिए की है, उसे स्वीकर कर आप अपने स्थान को गमन करें जिससे कि मैं अगली बार पुनः आपका आवाहन और पूजन वंदन कर सकूँ "।
राजा के लिए इसमें कुछ अंतर है।
राजा को विजय के लिए ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए :
"वह अपाराजिता जिसने कंठहार पहन रखा है, जिसने चमकदार सोने की मेखला (करधनी) पहन रखी है, जो अच्छा करने की इच्छा रखती है, मुझे विजय दे"
इसके उपरांत उसे उपर्युक्त प्रार्थना करके विसर्जन करना चाहिए। तब सबको गाँव के बाहर उत्तर पूर्व में उगे शमी वृक्ष की ओर जाना चाहिए और उसकी पूजा करनी चाहिए।
शमी की पूजा के पूर्व या या उपरांत लोगों को सीमोल्लंघन करना चाहिए। कुछ लोगों के मत से विजयादशमी के अवसर पर राम और सीता की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि उसी दिन राम ने लंका पर विजय प्राप्त की थी। राजा के द्वारा की जाने वाली पूजा का विस्तार से वर्णन हेमाद्रि तिथितत्त्व में वर्णित है। निर्णय सिंधु एवं धर्मसिंधु में शमी पूजन के कुछ विस्तार मिलते हैं।
निम्न मन्त्र के द्वारा शमी का पूजन करें:-
शमी शमयते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी ।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी ॥
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया ।
तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता।।
(शमी वृक्ष पूजन विधि एवम महत्व जानने के लिए यहां पढ़ें-http://jyotish-tantra.blogspot.com/2015/10/money-tree-shami.html)
यदि शमी वृक्ष ना हो तो अश्मंतक वृक्ष की पूजा की जानी चाहिए।
देवी अपराजिता का पूजन शक्ति क्रम में ही किया जाना चाहिए ठीक जैसे अन्य शक्ति साधनाएं संपन्न की जाती हैं -!
प्रथम गुरु पूजन ,द्वितीय गणपति पूजन ,भैरव पूजन , देवी पूजन
अपनी सुविधानुसार पंचोपचार,षोडशोपचार इत्यादि से पूजन संपन्न करें मन्त्र जप - स्तोत्र जप आदि संपन्न करें और अंत में होम विधि संपन्न करें।
अपराजिता गायत्री मंत्र:
"ॐ सर्वविजयेश्वरी विद्महे शक्तिः धीमहि अपराजितायै प्रचोदयात"
।।अथ श्री अपराजिता स्तोत्र ।।
ॐ नमोऽपराजितायै ।।
ॐ अस्या वैष्णव्याः पराया अजिताया महाविद्यायाः वामदेव-बृहस्पति-मार्केण्डेया ऋषयः ।
गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती छन्दांसि ।
श्री लक्ष्मीनृसिंहो देवता ।
ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं बीजम् ।
हुं शक्तिः ।
सकलकामनासिद्ध्यर्थं अपराजितविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः ।।
ध्यान:
ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजङ्गाभरणान्विताम् ।।
शुद्धस्फटिकसङ्काशां चन्द्रकोटिनिभाननाम् ।।१।।
शङ्खचक्रधरां देवी वैष्ण्वीमपराजिताम् ।।
बालेन्दुशेखरां देवीं वरदाभयदायिनीम् ।।२।।
नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कण्डेयो महातपाः ।।३।।
मार्ककण्डेय उवाच :
शृणुष्वं मुनयः सर्वे सर्वकामार्थसिद्धिदाम् ।।
असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीमपराजिताम् ।।४।।
ॐ नमो नारायणाय, नमो भगवते वासुदेवाय,
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रशीर्षायणे, क्षीरोदार्णवशायिने,
शेषभोगपर्य्यङ्काय, गरुडवाहनाय, अमोघाय -
अजाय अजिताय पीतवाससे ।।
ॐ वासुदेव सङ्कर्षण प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, हयग्रिव, मत्स्य कूर्म्म, वाराह नृसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर राम राम राम ।
वरद, वरद, वरदो भव, नमोऽस्तु ते, नमोऽस्तुते, स्वाहा ।।
ॐ असुर-दैत्य-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत -पिशाच-कूष्माण्ड-सिद्ध-योगिनी-डाकिनी-शाकिनी-स्कन्दग्रहान् उपग्रहान्नक्षत्रग्रहांश्चान्या हन हन पच पच मथ मथ विध्वंसय विध्वंसय विद्रावय विद्रावय चूर्णय चूर्णय शङ्खेन चक्रेण वज्रेण शूलेन गदया मुसलेन हलेन भस्मीकुरु कुरु स्वाहा ।।
ॐ सहस्रबाहो सहस्रप्रहरणायुध, जय जय, विजय विजय, अजित, अमित, अपराजित, अप्रतिहत, सहस्रनेत्र, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, विश्वरूप बहुरूप, मधुसूदन, महावराह, महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण, पद्मनाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषीकेश, केशव, सर्वासुरोत्सादन, सर्वभूतवशङ्कर, सर्वदुःस्वप्नप्रभेदन, सर्वयन्त्रप्रभञ्जन, सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर, सर्वबन्धविमोक्षण, सर्वाहितप्रमर्दन, सर्वज्वरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण, सर्वपापप्रशमन, जनार्दन, नमोऽस्तुते स्वाहा ।।
विष्णोरियमनुप्रोक्ता सर्वकामफलप्रदा ।।
सर्वसौभाग्यजननी सर्वभीतिविनाशिनी ।।५।।
सर्वैंश्च पठितां सिद्धैर्विष्णोः परमवल्लभा ।।
नानया सदृशं किङ्चिद्दुष्टानां नाशनं परम् ।।६।।
विद्या रहस्या कथिता वैष्णव्येषापराजिता ।।
पठनीया प्रशस्ता वा साक्षात्सत्त्वगुणाश्रया ।।७।।
ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ।।८।।
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ह्यभयामपराजिताम् ।।
या शक्तिर्मामकी वत्स रजोगुणमयी मता ।।९।।
सर्वसत्त्वमयी साक्षात्सर्वमन्त्रमयी च या ।।
या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ।।
सर्वकामदुधा वत्स शृणुष्वैतां ब्रवीमि ते ।।१०।।
य इमामपराजितां परमवैष्णवीमप्रतिहतां पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्यां जपति पठति शृणोति स्मरति धारयति कीर्तयति वा न तस्याग्निवायुवज्रोपलाशनिवर्षभयं, न समुद्रभयं, न ग्रहभयं, न चौरभयं, न शत्रुभयं, न शापभयं वा भवेत् ।।
क्वचिद्रात्र्यन्धकारस्त्रीराजकुलविद्वेषि-विषगरगरदवशीकरण-विद्वेष्णोच्चाटनवधबन्धनभयं वा न भवेत् ।।
एतैर्मन्त्रैरुदाहृतैः सिद्धैः संसिद्धपूजितैः ।।
।। ॐ नमोऽस्तुते ।।
अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे, अपराजिते, पठति, सिद्धे जयति सिद्धे, स्मरति सिद्धे, एकोनाशीतितमे, एकाकिनि, निश्चेतसि, सुद्रुमे, सुगन्धे, एकान्नशे, उमे ध्रुवे, अरुन्धति, गायत्रि, सावित्रि, जातवेदसि, मानस्तोके, सरस्वति, धरणि, धारणि, सौदामनि, अदिति, दिति, विनते, गौरि, गान्धारि, मातङ्गी कृष्णे, यशोदे, सत्यवादिनि, ब्रह्मवादिनि, कालि, कपालिनि, करालनेत्रे, भद्रे, निद्रे, सत्योपयाचनकरि, स्थलगतं जलगतं अन्तरिक्षगतं वा मां रक्ष सर्वोपद्रवेभ्यः स्वाहा ।।
यस्याः प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ।।
म्रियते बालको यस्याः काकवन्ध्या च या भवेत् ।।११।।
धारयेद्या इमां विद्यामेतैर्दोषैर्न लिप्यते ।।
गर्भिणी जीववत्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशयः ।।१२।।
भूर्जपत्रे त्विमां विद्यां लिखित्वा गन्धचन्दनैः ।।
एतैर्दोषैर्न लिप्येत सुभगा पुत्रिणी भवेत् ।।१३।।
रणे राजकुले द्यूते नित्यं तस्य जयो भवेत् ।।
शस्त्रं वारयते ह्योषा समरे काण्डदारुणे ।।१४।।
गुल्मशूलाक्षिरोगाणां क्षिप्रं नाश्यति च व्यथाम् ।।
शिरोरोगज्वराणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम् ।।१५।।
इत्येषा कथिता विध्या अभयाख्याऽपराजिता ।।
एतस्याः स्मृतिमात्रेण भयं क्वापि न जायते ।।१६।।
नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्कराः ।।
न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रवः ।।१७।।
यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहाः ।।
अग्नेर्भयं न वाताच्व न स्मुद्रान्न वै विषात् ।।१८।।
कार्मणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ।।
उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा ।।१९।।
न किञ्चित्प्रभवेत्तत्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ।।
पठेद् वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा ।।२०।।
हृदि वा द्वारदेशे वा वर्तते ह्यभयः पुमान् ।।
हृदये विन्यसेदेतां ध्यायेद्देवीं चतुर्भुजाम् ।।२१।।
रक्तमाल्याम्बरधरां पद्मरागसमप्रभाम् ।।
पाशाङ्कुशाभयवरैरलङ्कृतसुविग्रहाम् ।।२२।।
साधकेभ्यः प्रयच्छन्तीं मन्त्रवर्णामृतान्यपि ।।
नातः परतरं किञ्चिद्वशीकरणमनुत्तमम् ।।२३।।
रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ।
प्रातः कुमारिकाः पूज्याः खाद्यैराभरणैरपि ।।
तदिदं वाचनीयं स्यात्तत्प्रीत्या प्रीयते तु माम् ।।२४।।
ॐ अथातः सम्प्रवक्ष्यामि विद्यामपि महाबलाम् ।।
सर्वदुष्टप्रशमनीं सर्वशत्रुक्षयङ्करीम् ।।२५।।
दारिद्र्यदुःखशमनीं दौर्भाग्यव्याधिनाशिनीम् ।।
भूतप्रेतपिशाचानां यक्षगन्धर्वरक्षसाम् ।।२६।।
डाकिनी शाकिनी-स्कन्द-कूष्माण्डानां च नाशिनीम् ।।
महारौद्रिं महाशक्तिं सद्यः प्रत्ययकारिणीम् ।।२७।।
गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वं पार्वतीपतेः ।।
तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः शृणु ।।२८।।
एकान्हिकं द्व्यन्हिकं च चातुर्थिकार्द्धमासिकम् ।।
द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्मासिकम् ।।२९।।
पाञ्चमासिकं षाङ्मासिकं वातिक पैत्तिकज्वरम् ।।
श्लैष्पिकं सात्रिपातिकं तथैव सततज्वरम् ।।३०।।
मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरम् ।
द्व्यहिन्कं त्र्यह्निकं चैव ज्वरमेकाह्निकं तथा ।।
क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणादपराजिता ।।३१।।
ॐ हॄं हन हन, कालि शर शर, गौरि धम्, धम्, विद्ये आले ताले माले गन्धे बन्धे पच पच विद्ये नाशय नाशय पापं हर हर संहारय वा दुःखस्वप्नविनाशिनि कमलस्तिथते विनायकमातः रजनि सन्ध्ये, दुन्दुभिनादे, मानसवेगे, शङ्खिनि, चाक्रिणि गदिनि वज्रिणि शूलिनि अपमृत्युविनाशिनि विश्वेश्वरि द्रविडि द्राविडि द्रविणि द्राविणि केशवदयिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिदमनि दुर्म्मददमनि ।।
शबरि किराति मातङ्गि ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु ।।
ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान् सर्वान् दम दम मर्दय मर्दय तापय तापय गोपय गोपय पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय ब्रह्माणि वैष्णवि माहेश्वरि कौमारि वाराहि नारसिंहि ऐन्द्रि चामुन्डे महालक्ष्मि वैनायिकि औपेन्द्रि आग्नेयि चण्डि नैरृति वायव्ये सौम्ये ऐशानि ऊर्ध्वमधोरक्ष प्रचण्डविद्ये इन्द्रोपेन्द्रभगिनि ।।
ॐ नमो देवि जये विजये शान्ति स्वस्ति-तुष्टि पुष्टि-विवर्द्धिनि ।
कामाङ्कुशे कामदुधे सर्वकामवरप्रदे ।।
सर्वभूतेषु मां प्रियं कुरु कुरु स्वाहा ।
आकर्षणि आवेशनि-, ज्वालामालिनि-, रमणि रामणि, धरणि धारिणि, तपनि तापिनि, मदनि मादिनि, शोषणि सम्मोहिनि ।।
नीलपताके महानीले महागौरि महाश्रिये ।।
महाचान्द्रि महासौरि महामायूरि आदित्यरश्मि जाह्नवि ।।
यमघण्टे किणि किणि चिन्तामणि ।।
सुगन्धे सुरभे सुरासुरोत्पन्ने सर्वकामदुघे ।।
यद्यथा मनीषितं कार्यं तन्मम सिद्ध्यतु स्वाहा ।।
ॐ स्वाहा ।।
ॐ भूः स्वाहा ।।
ॐ भुवः स्वाहा ।।
ॐ स्वः स्वहा ।।
ॐ महः स्वहा ।।
ॐ जनः स्वहा ।।
ॐ तपः स्वाहा ।।
ॐ सत्यं स्वाहा ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा ।।
यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छतु स्वाहेत्योम् ।।
अमोघैषा महाविद्या वैष्णवी चापराजिता ।।३२।।
स्वयं विष्णुप्रणीता च सिद्धेयं पाठतः सदा ।।
एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजिता ।।३३।।
नानया सद्रशी रक्षा. त्रिषु लोकेषु विद्यते ।।
तमोगुणमयी साक्षद्रौद्री शक्तिरियं मता ।।३४।।
कृतान्तोऽपि यतो भीतः पादमूले व्यवस्थितः ।।
मूलधारे न्यसेदेतां रात्रावेनं च संस्मरेत् ।।३५।।
नीलजीमूतसङ्काशां तडित्कपिलकेशिकाम् ।।
उद्यदादित्यसङ्काशां नेत्रत्रयविराजिताम् ।।३६।।
शक्तिं त्रिशूलं शङ्खं च पानपात्रं च विभ्रतीम् ।।
व्याघ्रचर्मपरीधानां किङ्किणीजालमण्डिताम् ।।३७।।
धावन्तीं गगनस्यान्तः तादुकाहितपादकाम् ।।
दंष्ट्राकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषिताम् ।।३८।।
व्यात्तवक्त्रां ललज्जिह्वां भृकुटीकुटिलालकाम् ।।
स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पानपात्रतः ।।३९।।
सप्तधातून् शोषयन्तीं क्रुरदृष्टया विलोकनात् ।।
त्रिशूलेन च तज्जिह्वां कीलयनतीं मुहुर्मुहः ।।४०।।
पाशेन बद्ध्वा तं साधमानवन्तीं तदन्तिके ।।
अर्द्धरात्रस्य समये देवीं धायेन्महाबलाम् ।।४१।।
यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मन्त्रं निशान्तके ।।
तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापि योगिनी ।।४२।।
ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति ।।
अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्ण्वीम् ।।४३।।
श्रीमदपराजिताविद्यां ध्यायेत् ।।
दुःस्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमित्ते तथैव च ।।
व्यवहारे भेवेत्सिद्धिः पठेद्विघ्नोपशान्तये ।।४४।।
यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्वऽक्षरहीनमीडितम् ।।
तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सङ्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायताम् ।।४५।।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशासि महेश्वरि ।।
यादृशासि महादेवी तादृशायै नमो नमः ।।४६।।
इस स्तोत्र का विधिवत पाठ करने से सब प्रकार के रोग तथा सब प्रकार के शत्रु और बन्ध्या दोष नष्ट हो जाते हैं ।
विशेष रूप से मुकदमादि में सफलता और राजकीय कार्यों में अपराजित रहने के लिये यह पाठ रामबाण है ।
अन्य किसी जानकारी, समस्या समाधान एवम कुंडली विश्लेषण के लिए के लिए सम्पर्क कर सकते हैँ।
।।जय श्री राम ।।
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अपराजिता का अर्थ है जो कभी पराजित नहीं होती।
देवी अपराजिता शक्ति की नौ शक्तियों में से एक हैं जिनका पूजन उनकी सहचरी जया और विजया के साथ होता है। इनसे सम्बंधित बहुत सी कथाएं भी प्रचलित हैं जो देवी पार्वती की बहुत ही अभिन्न सखियों के रूप में जानी जाती हैं - शक्ति की बहुत ही संहारकारी शक्ति है अपराजिता जो कभी अपराजित नहीं हो सकती और ना ही अपने साधकों को कभी पराजय का मुख देखने देती है - विषम परिस्थिति में जब सभी रास्ते बंद हों उस स्थिति में भी हंसी-खेल में अपने साधक को बचा ले जाना बहुत मामूली बात है अपराजिता के लिए।
अपराजिता की साधना के सम्बन्ध में" धर्मसिन्धु "जो वर्णन है वह निम्न प्रकार है :-
धर्मसिंधु में अपराजिता की पूजन की विधि संक्षेप में इस प्रकार है :-
"अपराह्न में गाँव के उत्तर पूर्व जाना चाहिए, एक स्वच्छ स्थल पर गोबर से लीप देना चाहिए, चंदन से आठ कोणों का एक चित्र खींच देना चाहिए उसके पश्चात संकल्प करना चहिए :
"मम सकुटुम्बस्य क्षेमसिद्ध्यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये"
राजा के लिए विहित संकल्प अग्र प्रकार है :
" मम सकुटुम्बस्य यात्रायां विजयसिद्ध्यर्थमपराजितापूजनं करिष्ये"
इसके उपरांत उस चित्र (आकृति) के बीच में अपराजिता का आवाहन करना चाहिए और इसी प्रकार उसके दाहिने एवं बायें जया एवं विजया का आवाहन करना चहिए और 'साथ ही क्रियाशक्ति को नमस्कार' एवं 'उमा को नमस्कार' कहना चाहिए।
इसके उपरांत :
"अपराजितायै नम:,
जयायै नम:,
विजयायै नम:,
मंत्रों के साथ अपराजिता, जया, विजया की पूजा 16 उपचारों के साथ करनी चाहिए और
यह प्रार्थना करनी चाहिए,
'हे देवी, यथाशक्ति जो पूजा मैंने अपनी रक्षा के लिए की है, उसे स्वीकर कर आप अपने स्थान को गमन करें जिससे कि मैं अगली बार पुनः आपका आवाहन और पूजन वंदन कर सकूँ "।
राजा के लिए इसमें कुछ अंतर है।
राजा को विजय के लिए ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए :
"वह अपाराजिता जिसने कंठहार पहन रखा है, जिसने चमकदार सोने की मेखला (करधनी) पहन रखी है, जो अच्छा करने की इच्छा रखती है, मुझे विजय दे"
इसके उपरांत उसे उपर्युक्त प्रार्थना करके विसर्जन करना चाहिए। तब सबको गाँव के बाहर उत्तर पूर्व में उगे शमी वृक्ष की ओर जाना चाहिए और उसकी पूजा करनी चाहिए।
शमी की पूजा के पूर्व या या उपरांत लोगों को सीमोल्लंघन करना चाहिए। कुछ लोगों के मत से विजयादशमी के अवसर पर राम और सीता की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि उसी दिन राम ने लंका पर विजय प्राप्त की थी। राजा के द्वारा की जाने वाली पूजा का विस्तार से वर्णन हेमाद्रि तिथितत्त्व में वर्णित है। निर्णय सिंधु एवं धर्मसिंधु में शमी पूजन के कुछ विस्तार मिलते हैं।
निम्न मन्त्र के द्वारा शमी का पूजन करें:-
शमी शमयते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी ।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी ॥
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया ।
तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता।।
(शमी वृक्ष पूजन विधि एवम महत्व जानने के लिए यहां पढ़ें-http://jyotish-tantra.blogspot.com/2015/10/money-tree-shami.html)
यदि शमी वृक्ष ना हो तो अश्मंतक वृक्ष की पूजा की जानी चाहिए।
देवी अपराजिता का पूजन शक्ति क्रम में ही किया जाना चाहिए ठीक जैसे अन्य शक्ति साधनाएं संपन्न की जाती हैं -!
प्रथम गुरु पूजन ,द्वितीय गणपति पूजन ,भैरव पूजन , देवी पूजन
अपनी सुविधानुसार पंचोपचार,षोडशोपचार इत्यादि से पूजन संपन्न करें मन्त्र जप - स्तोत्र जप आदि संपन्न करें और अंत में होम विधि संपन्न करें।
अपराजिता गायत्री मंत्र:
"ॐ सर्वविजयेश्वरी विद्महे शक्तिः धीमहि अपराजितायै प्रचोदयात"
।।अथ श्री अपराजिता स्तोत्र ।।
ॐ नमोऽपराजितायै ।।
ॐ अस्या वैष्णव्याः पराया अजिताया महाविद्यायाः वामदेव-बृहस्पति-मार्केण्डेया ऋषयः ।
गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहती छन्दांसि ।
श्री लक्ष्मीनृसिंहो देवता ।
ॐ क्लीं श्रीं ह्रीं बीजम् ।
हुं शक्तिः ।
सकलकामनासिद्ध्यर्थं अपराजितविद्यामन्त्रपाठे विनियोगः ।।
ध्यान:
ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजङ्गाभरणान्विताम् ।।
शुद्धस्फटिकसङ्काशां चन्द्रकोटिनिभाननाम् ।।१।।
शङ्खचक्रधरां देवी वैष्ण्वीमपराजिताम् ।।
बालेन्दुशेखरां देवीं वरदाभयदायिनीम् ।।२।।
नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कण्डेयो महातपाः ।।३।।
मार्ककण्डेय उवाच :
शृणुष्वं मुनयः सर्वे सर्वकामार्थसिद्धिदाम् ।।
असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीमपराजिताम् ।।४।।
ॐ नमो नारायणाय, नमो भगवते वासुदेवाय,
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रशीर्षायणे, क्षीरोदार्णवशायिने,
शेषभोगपर्य्यङ्काय, गरुडवाहनाय, अमोघाय -
अजाय अजिताय पीतवाससे ।।
ॐ वासुदेव सङ्कर्षण प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, हयग्रिव, मत्स्य कूर्म्म, वाराह नृसिंह, अच्युत, वामन, त्रिविक्रम, श्रीधर राम राम राम ।
वरद, वरद, वरदो भव, नमोऽस्तु ते, नमोऽस्तुते, स्वाहा ।।
ॐ असुर-दैत्य-यक्ष-राक्षस-भूत-प्रेत -पिशाच-कूष्माण्ड-सिद्ध-योगिनी-डाकिनी-शाकिनी-स्कन्दग्रहान् उपग्रहान्नक्षत्रग्रहांश्चान्या हन हन पच पच मथ मथ विध्वंसय विध्वंसय विद्रावय विद्रावय चूर्णय चूर्णय शङ्खेन चक्रेण वज्रेण शूलेन गदया मुसलेन हलेन भस्मीकुरु कुरु स्वाहा ।।
ॐ सहस्रबाहो सहस्रप्रहरणायुध, जय जय, विजय विजय, अजित, अमित, अपराजित, अप्रतिहत, सहस्रनेत्र, ज्वल ज्वल, प्रज्वल प्रज्वल, विश्वरूप बहुरूप, मधुसूदन, महावराह, महापुरुष, वैकुण्ठ, नारायण, पद्मनाभ, गोविन्द, दामोदर, हृषीकेश, केशव, सर्वासुरोत्सादन, सर्वभूतवशङ्कर, सर्वदुःस्वप्नप्रभेदन, सर्वयन्त्रप्रभञ्जन, सर्वनागविमर्दन, सर्वदेवमहेश्वर, सर्वबन्धविमोक्षण, सर्वाहितप्रमर्दन, सर्वज्वरप्रणाशन, सर्वग्रहनिवारण, सर्वपापप्रशमन, जनार्दन, नमोऽस्तुते स्वाहा ।।
विष्णोरियमनुप्रोक्ता सर्वकामफलप्रदा ।।
सर्वसौभाग्यजननी सर्वभीतिविनाशिनी ।।५।।
सर्वैंश्च पठितां सिद्धैर्विष्णोः परमवल्लभा ।।
नानया सदृशं किङ्चिद्दुष्टानां नाशनं परम् ।।६।।
विद्या रहस्या कथिता वैष्णव्येषापराजिता ।।
पठनीया प्रशस्ता वा साक्षात्सत्त्वगुणाश्रया ।।७।।
ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ।।८।।
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि ह्यभयामपराजिताम् ।।
या शक्तिर्मामकी वत्स रजोगुणमयी मता ।।९।।
सर्वसत्त्वमयी साक्षात्सर्वमन्त्रमयी च या ।।
या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ।।
सर्वकामदुधा वत्स शृणुष्वैतां ब्रवीमि ते ।।१०।।
य इमामपराजितां परमवैष्णवीमप्रतिहतां पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्यां जपति पठति शृणोति स्मरति धारयति कीर्तयति वा न तस्याग्निवायुवज्रोपलाशनिवर्षभयं, न समुद्रभयं, न ग्रहभयं, न चौरभयं, न शत्रुभयं, न शापभयं वा भवेत् ।।
क्वचिद्रात्र्यन्धकारस्त्रीराजकुलविद्वेषि-विषगरगरदवशीकरण-विद्वेष्णोच्चाटनवधबन्धनभयं वा न भवेत् ।।
एतैर्मन्त्रैरुदाहृतैः सिद्धैः संसिद्धपूजितैः ।।
।। ॐ नमोऽस्तुते ।।
अभये, अनघे, अजिते, अमिते, अमृते, अपरे, अपराजिते, पठति, सिद्धे जयति सिद्धे, स्मरति सिद्धे, एकोनाशीतितमे, एकाकिनि, निश्चेतसि, सुद्रुमे, सुगन्धे, एकान्नशे, उमे ध्रुवे, अरुन्धति, गायत्रि, सावित्रि, जातवेदसि, मानस्तोके, सरस्वति, धरणि, धारणि, सौदामनि, अदिति, दिति, विनते, गौरि, गान्धारि, मातङ्गी कृष्णे, यशोदे, सत्यवादिनि, ब्रह्मवादिनि, कालि, कपालिनि, करालनेत्रे, भद्रे, निद्रे, सत्योपयाचनकरि, स्थलगतं जलगतं अन्तरिक्षगतं वा मां रक्ष सर्वोपद्रवेभ्यः स्वाहा ।।
यस्याः प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ।।
म्रियते बालको यस्याः काकवन्ध्या च या भवेत् ।।११।।
धारयेद्या इमां विद्यामेतैर्दोषैर्न लिप्यते ।।
गर्भिणी जीववत्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशयः ।।१२।।
भूर्जपत्रे त्विमां विद्यां लिखित्वा गन्धचन्दनैः ।।
एतैर्दोषैर्न लिप्येत सुभगा पुत्रिणी भवेत् ।।१३।।
रणे राजकुले द्यूते नित्यं तस्य जयो भवेत् ।।
शस्त्रं वारयते ह्योषा समरे काण्डदारुणे ।।१४।।
गुल्मशूलाक्षिरोगाणां क्षिप्रं नाश्यति च व्यथाम् ।।
शिरोरोगज्वराणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम् ।।१५।।
इत्येषा कथिता विध्या अभयाख्याऽपराजिता ।।
एतस्याः स्मृतिमात्रेण भयं क्वापि न जायते ।।१६।।
नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्कराः ।।
न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रवः ।।१७।।
यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहाः ।।
अग्नेर्भयं न वाताच्व न स्मुद्रान्न वै विषात् ।।१८।।
कार्मणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ।।
उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा ।।१९।।
न किञ्चित्प्रभवेत्तत्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ।।
पठेद् वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा ।।२०।।
हृदि वा द्वारदेशे वा वर्तते ह्यभयः पुमान् ।।
हृदये विन्यसेदेतां ध्यायेद्देवीं चतुर्भुजाम् ।।२१।।
रक्तमाल्याम्बरधरां पद्मरागसमप्रभाम् ।।
पाशाङ्कुशाभयवरैरलङ्कृतसुविग्रहाम् ।।२२।।
साधकेभ्यः प्रयच्छन्तीं मन्त्रवर्णामृतान्यपि ।।
नातः परतरं किञ्चिद्वशीकरणमनुत्तमम् ।।२३।।
रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ।
प्रातः कुमारिकाः पूज्याः खाद्यैराभरणैरपि ।।
तदिदं वाचनीयं स्यात्तत्प्रीत्या प्रीयते तु माम् ।।२४।।
ॐ अथातः सम्प्रवक्ष्यामि विद्यामपि महाबलाम् ।।
सर्वदुष्टप्रशमनीं सर्वशत्रुक्षयङ्करीम् ।।२५।।
दारिद्र्यदुःखशमनीं दौर्भाग्यव्याधिनाशिनीम् ।।
भूतप्रेतपिशाचानां यक्षगन्धर्वरक्षसाम् ।।२६।।
डाकिनी शाकिनी-स्कन्द-कूष्माण्डानां च नाशिनीम् ।।
महारौद्रिं महाशक्तिं सद्यः प्रत्ययकारिणीम् ।।२७।।
गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वं पार्वतीपतेः ।।
तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः शृणु ।।२८।।
एकान्हिकं द्व्यन्हिकं च चातुर्थिकार्द्धमासिकम् ।।
द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्मासिकम् ।।२९।।
पाञ्चमासिकं षाङ्मासिकं वातिक पैत्तिकज्वरम् ।।
श्लैष्पिकं सात्रिपातिकं तथैव सततज्वरम् ।।३०।।
मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरम् ।
द्व्यहिन्कं त्र्यह्निकं चैव ज्वरमेकाह्निकं तथा ।।
क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणादपराजिता ।।३१।।
ॐ हॄं हन हन, कालि शर शर, गौरि धम्, धम्, विद्ये आले ताले माले गन्धे बन्धे पच पच विद्ये नाशय नाशय पापं हर हर संहारय वा दुःखस्वप्नविनाशिनि कमलस्तिथते विनायकमातः रजनि सन्ध्ये, दुन्दुभिनादे, मानसवेगे, शङ्खिनि, चाक्रिणि गदिनि वज्रिणि शूलिनि अपमृत्युविनाशिनि विश्वेश्वरि द्रविडि द्राविडि द्रविणि द्राविणि केशवदयिते पशुपतिसहिते दुन्दुभिदमनि दुर्म्मददमनि ।।
शबरि किराति मातङ्गि ॐ द्रं द्रं ज्रं ज्रं क्रं क्रं तुरु तुरु ॐ द्रं कुरु कुरु ।।
ये मां द्विषन्ति प्रत्यक्षं परोक्षं वा तान् सर्वान् दम दम मर्दय मर्दय तापय तापय गोपय गोपय पातय पातय शोषय शोषय उत्सादय उत्सादय ब्रह्माणि वैष्णवि माहेश्वरि कौमारि वाराहि नारसिंहि ऐन्द्रि चामुन्डे महालक्ष्मि वैनायिकि औपेन्द्रि आग्नेयि चण्डि नैरृति वायव्ये सौम्ये ऐशानि ऊर्ध्वमधोरक्ष प्रचण्डविद्ये इन्द्रोपेन्द्रभगिनि ।।
ॐ नमो देवि जये विजये शान्ति स्वस्ति-तुष्टि पुष्टि-विवर्द्धिनि ।
कामाङ्कुशे कामदुधे सर्वकामवरप्रदे ।।
सर्वभूतेषु मां प्रियं कुरु कुरु स्वाहा ।
आकर्षणि आवेशनि-, ज्वालामालिनि-, रमणि रामणि, धरणि धारिणि, तपनि तापिनि, मदनि मादिनि, शोषणि सम्मोहिनि ।।
नीलपताके महानीले महागौरि महाश्रिये ।।
महाचान्द्रि महासौरि महामायूरि आदित्यरश्मि जाह्नवि ।।
यमघण्टे किणि किणि चिन्तामणि ।।
सुगन्धे सुरभे सुरासुरोत्पन्ने सर्वकामदुघे ।।
यद्यथा मनीषितं कार्यं तन्मम सिद्ध्यतु स्वाहा ।।
ॐ स्वाहा ।।
ॐ भूः स्वाहा ।।
ॐ भुवः स्वाहा ।।
ॐ स्वः स्वहा ।।
ॐ महः स्वहा ।।
ॐ जनः स्वहा ।।
ॐ तपः स्वाहा ।।
ॐ सत्यं स्वाहा ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहा ।।
यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छतु स्वाहेत्योम् ।।
अमोघैषा महाविद्या वैष्णवी चापराजिता ।।३२।।
स्वयं विष्णुप्रणीता च सिद्धेयं पाठतः सदा ।।
एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजिता ।।३३।।
नानया सद्रशी रक्षा. त्रिषु लोकेषु विद्यते ।।
तमोगुणमयी साक्षद्रौद्री शक्तिरियं मता ।।३४।।
कृतान्तोऽपि यतो भीतः पादमूले व्यवस्थितः ।।
मूलधारे न्यसेदेतां रात्रावेनं च संस्मरेत् ।।३५।।
नीलजीमूतसङ्काशां तडित्कपिलकेशिकाम् ।।
उद्यदादित्यसङ्काशां नेत्रत्रयविराजिताम् ।।३६।।
शक्तिं त्रिशूलं शङ्खं च पानपात्रं च विभ्रतीम् ।।
व्याघ्रचर्मपरीधानां किङ्किणीजालमण्डिताम् ।।३७।।
धावन्तीं गगनस्यान्तः तादुकाहितपादकाम् ।।
दंष्ट्राकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषिताम् ।।३८।।
व्यात्तवक्त्रां ललज्जिह्वां भृकुटीकुटिलालकाम् ।।
स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पानपात्रतः ।।३९।।
सप्तधातून् शोषयन्तीं क्रुरदृष्टया विलोकनात् ।।
त्रिशूलेन च तज्जिह्वां कीलयनतीं मुहुर्मुहः ।।४०।।
पाशेन बद्ध्वा तं साधमानवन्तीं तदन्तिके ।।
अर्द्धरात्रस्य समये देवीं धायेन्महाबलाम् ।।४१।।
यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मन्त्रं निशान्तके ।।
तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापि योगिनी ।।४२।।
ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति ।।
अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्ण्वीम् ।।४३।।
श्रीमदपराजिताविद्यां ध्यायेत् ।।
दुःस्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमित्ते तथैव च ।।
व्यवहारे भेवेत्सिद्धिः पठेद्विघ्नोपशान्तये ।।४४।।
यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्वऽक्षरहीनमीडितम् ।।
तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सङ्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायताम् ।।४५।।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशासि महेश्वरि ।।
यादृशासि महादेवी तादृशायै नमो नमः ।।४६।।
इस स्तोत्र का विधिवत पाठ करने से सब प्रकार के रोग तथा सब प्रकार के शत्रु और बन्ध्या दोष नष्ट हो जाते हैं ।
विशेष रूप से मुकदमादि में सफलता और राजकीय कार्यों में अपराजित रहने के लिये यह पाठ रामबाण है ।
अन्य किसी जानकारी, समस्या समाधान एवम कुंडली विश्लेषण के लिए के लिए सम्पर्क कर सकते हैँ।
।।जय श्री राम ।।
Abhishek B. Pandey
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manyavar shatru bahut pareshan kiye hai batlaiye kya karen
Replyhanumat bisa kavach sidhh karwa ke pahne
ReplyAap ka mandhan
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