Friday, 30 May 2025

Vaishnavbi

 

कामकलाकाली

कामकलाकाली

कामकलाकाली का वर्णन महाकालसंहिता के कामकलाखण्ड में किया गया है । ग्रन्थ का प्रारम्भ २४१ वें पटल से होता है तथा इसकी अन्तिम पटलसंख्या २५५ है । पन्द्रह पटलों में कामकलाखण्ड नामक सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है।

कामकलाकाली

कामकलाकाली तंत्र

कामकलाकाली खण्ड पटल 1

कामकलाकाली खण्ड पटल 2

कामकलाकाली खण्ड पटल 3

कामकलाकाली खण्ड पटल 4

कामकलाकाली खण्ड पटल 5

कामकलाकाली खण्ड पटल 6

भाग 1 भाग 2

कामकलाकाली खण्ड पटल 7

भाग 1 भाग 2

कामकलाकाली खण्ड पटल 8

भाग 1 भाग 2  भाग 3 भाग 4

कामकलाकाली खण्ड पटल 9

कामकलाकाली खण्ड पटल 10

भाग 1 भाग 2

कामकलाकाली खण्ड पटल 11

कामकलाकाली खण्ड पटल 12

भाग 1 भाग 2

कामकलाकाली खण्ड पटल 13

कामकलाकाली खण्ड पटल 14

कामकलाकाली खण्ड पटल 15

भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 

कामकलाकाली महाकालसंहिता कामकलाखण्ड

परापर परेशान शशांककृतशेखर ।

योगाधियोगिन्सर्वज्ञ सर्वभूतदयापर ।।

२४१ वें पटल में सर्वप्रथम गणेश तथा परदेवता को नमस्कार किया गया है।

अन्य तन्त्रों के सदृश इस संहिता में भी प्रश्नकर्ता देवी है तथा उत्तर स्वयं महाकाल देते हैं । देवी प्रार्थना करती है कि-

तारा च छिन्नमस्ता च तथा त्रिपुरसुन्दरी ।

बाला च बगला चापि त्रिपुरा भैरवी तथा ।।

काली दक्षिणकाली च कुब्जिका शवरेश्वरी ।

अघोरा राजमातंगी सिद्धिलक्ष्मीररुंधती ।।

अश्वारूढा भोगवती नित्यक्लिन्ना व कुक्कुटी ।

कौमारी चापि वाराही चामुण्डा चण्डिकापि च ।।

भुवनेशी तथोछिष्ट चाण्डाली चण्डघण्टिका ।

कालसंकर्षणी चापि गुह्यकाली तथापरा ।।

एताश्चान्याश्च वै देव्यः समन्त्रा: कथितास्त्वया ।

किन्तु कामकलाकाली नोक्तवानसि मे प्रभो ।।

तत्ति मय्यपि गोप्यन्ते प्रायशः परमेश्वर ।

 (1) तारा (२) छिन्नमस्ता (३) त्रिपुरसुन्दरी (४) बाला (५) बगला (६) त्रिपुरभैरवी (७) काली (4) दक्षिणकाली (8) कुब्जिका (१०) शवरेश्वरि (११) अघोरा (१२) राजमातङ्गी (१३) सिद्धिलक्ष्मी (१४) अरुन्धती (१५) अश्वारुढ़ा (१६) भोगवती (१७) नित्यक्लिन्ना (१८) कुक्कुटी (१९) कौमारी (२०) वाराही (२१) चामुण्डा (२२) चण्डिका (२३) भुवनेशी (२४) उच्छिष्टचाण्डाली (२५) चण्डघंटिका (२६) कालसंकर्षिणी तथा (२७) गुह्यकाली।

प्रभृति देवियों की पूजा तथा मन्त्र का रहस्य उद्घाटित व  उल्लिखित हुए हैं किन्तु कामकलाकाली के सम्बन्ध में पहले कुछ भी नहीं कहा गया है। इस कामकलाकाली का मन्त्रध्यानरहस्य तभा कवच सुनने के लिए देवी प्रार्थना करती है। महाकाल प्रसन्न होकर उत्तर देते हैं कि कामकलाकाली के उपासक अधोनिर्दिष्ट व्यक्तिगण है-

(१) इन्द्र (२) वरुण (३) कुबेर (४) ब्रह्मा (५) महाकाल स्वयं (६) बाण (७) रावण (८) यम (२) चन्द्र (१०) विष्णु तथा (११) महर्षिगण।

कामकला की उपासना का फल विद्यालक्ष्मीमोक्षलक्ष्मी तथा राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति है । धनलाभयशोलाभकान्तालाभअष्टसिद्धिवशीकरणस्तम्भनआकर्षणद्रावणग्रहों का स्तम्भनअनल एवं अनिल का स्तम्भनधारास्तम्भनशत्रुओं के शैन्यों का स्तम्भन तया वाक् स्तम्भन आदि कामकलाकाली की उपासना के फल प्रनिहित है।

बहुत भाग्योदय होने पर इस विद्या की प्राप्ति होती है। प्राणदान तथा इस विद्या के दान को तुला में रखने पर इस विद्या का ही महत्व अधिक होता हैं। सर्वस्व दान करने पर भी गुरु की पादवन्दना करके इस विद्या की उपलब्धि कर लेनी चाहिए।

काली के १२ एवं ९ भेद है ।

काली नवविधा प्रोक्ता सर्वतन्त्रेषु गोपिता ।

यथा त्रिभेदा तारा स्यात् सुन्दरी सप्तसप्ततिः ॥

॥ कामकलाकाली- नवकाली ॥

(१) दक्षिणकाली, (२) भद्रकाली (३) श्मशानकाली (४) कालकाली (५) गुह्यकाली (६) कामकलाकाली (७) धनकाली (८) सिद्धिकाली (९) चण्डकाली ।

नवविध कालियों का वर्णन भिन्न भिन्न तंत्रों में तथा डामरों में किया गया है। दक्षिणकाली के संबन्ध में महाकालसंहिता में ही कहा गया है एवं भद्रकाली का भी ध्यान तथा पूजन यहाँ वर्णित है । श्मशानकाली के नाना भेद डामरों में एवं कालकाली विषयक मन्त्र भीमातन्त्र में बताये गये है। गुह्यकाली के विषय में भी इस तन्त्र में वर्णन मिलता है।

गुह्यकाली तथा कामकलाकाली अभिन्न हैं ।

महाकालसंहिता में महाकाल कहते है-

या गुह्यकाली सैवेयं काली कामकलाभिधा ।

मंत्रभेदाद् ध्यानभेदाद् भवेत् कामकलात्मिका ॥

मन्त्रध्यान तथा प्रयोगों के भेद से इन दोनों में भिन्नता पाई जाती है। जैसे तारा के तीन भेदसुन्दरी के सतहत्तर भेद तथा दक्षिणा के पाँच भेद होते हैंउसी तरह गुह्यकाली भी ध्यान तथा मन्त्र के भेद से सात प्रकार की हैं।

विभिन्न देवीमन्त्रों की मन्त्र-संख्या।।

दक्षिणाकाली का मन्त्र २२ वर्ण युक्त है। देवी एकजटा का मन्त्र ५ वर्ण युक्त हैतथा कामकलाकाली के मन्त्र में १८ वर्ण विद्यमान हैं। जिन नव कालियों की चर्चा पहले हुई है उनमें काम कला काली मुख्यतया है । इसके समर्थन में महाकाल कहते हैं-

'षोडशार्ण यथा मुख्या सर्वश्रीचक्रमध्यगा ।

तथेयं नवकालीषु सदा मुख्यतमा स्मृता'

२४२वें पटल में मन्त्रोद्धार वर्णित हैं। पाँच श्लोकों में देवी के मन्त्रों का उद्धार है । इस मन्त्र के आदि में भूतबीज तथा अन्त में स्वाहा है । कामकला काली के सात मन्त्रों में १८ वर्ण युक्त मन्त्र ही मुख्य है। इस मन्त्र का ऋषि महाकाल हैछन्द बृहती हैबीज आद्यबीज हैशक्ति क्रोधवर्ण है तथा विनियोग सर्वसिद्धि है । इस मन्त्र का नाम त्रैयलोक्याकर्षण है।

कामकलाकाली त्रैलोक्यार्षण मन्त्र विनियोगः-

अस्य श्री कामकलाकालि त्रैलोक्यार्षण मन्त्रस्य महाकाल ऋषिःबृहती छन्दःकामकलाकालि देवताक्लीं बीजं हूँ शक्तिःसर्वार्थसिद्धये जपे विनियोगः ।

षडङ्गन्यास :-

क्लीं का हृदयाय नमः ।

क्रीं म शिरसे स्वाहा ।

हूं क शिखायै वषट् ।

क्रों ला नेत्रत्रयाय वौषट् ।

स्फ्रों का कवचाय हुं ।

ली कामकलाकाली अस्त्राय फट् ।

॥ अथ कामकलाकाली त्रैलोक्यार्षण मन्त्रः ॥

मन्त्र – क्लीं क्रीं हूं क्रों स्फ्रें (स्फ्रों) कामकलाकालि स्फ्रें (स्फ्रों) क्रों हूं क्रीं क्लीं स्वाहा ॥

कामकलाकाली का ध्यान

॥ अथ कामकलाकाली ध्यानम् महाकालसंहिता कामकलाखण्ड ॥

उद्यद्घनाघनाश्लिष्यज्जवा कुसुम सन्निभाम् । 

मत्तकोकिलनेत्राभां पक्वजम्बूफलप्रभाम् ॥ १ ॥

यह देवी उगते हुए (सूर्य के साथ संश्लिष्ट रक्तवर्ण वाले) बादल के समानसघन परस्पर संश्लिष्ट जवाकुसुम के समानमत्त कोकिल के नेत्र के समानपके हुए जामुन के फल की कान्तिवाली है ।

सुदीर्घप्रपदालम्बि विस्रस्तघनमूर्द्धाजाम् ।

ज्वलदङ्गार वच्छोण नेत्रत्रितयभूषिताम् ॥ २ ॥

इसके बाल लम्बेपैरों तक लटकने वाले बिखरे हुए तथा सघन हैं । जलते हुए अङ्गार के समान लाल रंग के तीन नेत्रों से यह विभूषित है ।

उद्यच्छारदसंपूर्णचन्द्रकोकनदाननाम् ।

दीर्घदंष्ट्रायुगोदञ्चद् विकराल मुखाम्बुजाम् ॥  

इसका मुख उगते हुए शारदीय पूर्णचन्द्र तथा लाल कमल के समान है । दो लम्बे दाँत बाहर ऊपर की ओर निकलने से विकराल मुखकमल वाली बतलायी गयी हैं ।

वितस्तिमात्र निष्क्रान्त ललज्जिह्वा भयानकाम् ।

व्यात्ताननतया दृश्यद्वात्रिंशद् दन्तमण्डलाम् ॥ ४ ॥

एक बीत्ता बाहर निकली हुई लपलपाती जीभ के कारण यह भयानक है । मुख के खोल देने के कारण बत्तीसो दाँत दिखलायी दे रहे हैं ।

निरन्तरम् वेपमानोत्तमाङ्गा घोररूपिणीम् । 

अंसासक्तनृमुण्डासृक् पिबन्ती वक़कन्धराम् ॥ ५ ॥

इसका शिर निरन्तर काँप रहा है अतएव घोर रूप वाली है । गले में लटके हुए नरमुण्ड से निकलने वाले रक्त को पीती हुई अतएव वक्रकन्धे वाली कही गयी हैं ।

सृक् कद्वन्द्वस्रवद्रक्त स्नापितोरोजयुग्मकाम् ।

उरोजा भोग संसक्त संपतद्रुधिरोच्चयाम् ॥  

इसके दोनों स्तन दोनों जबड़ों से स्रवित होने वाले रक्त से उपलिप्त हैं । उसके विस्तृत स्तनों से लिपट कर रक्त की धारा गिर रही है ।

सशीत्कृतिधयन्तीं तल्लेलिहानरसज्ञया ।

ललाटे घननारासृग् विहितारुणचित्रकाम् ॥  

उस रक्त को लेलिहान जिह्वा से सीत्कार के साथ वह पी रही है । ललाट पर मनुष्य के सघन रक्त से लालरंग का चित्र बनायी हुई हैं ।

सद्यश्छिन्नगलद्रक्त नृमुण्डकृतकुण्डलाम् ।

श्रुतिनद्धकचालम्बिवतंसलसदंसकाम ॥  

तत्काल कटे हुए अतएव गिरते हुए रक्त वाले नरमुण्ड का उसने कुण्डल धारण किया है । कानों में बँधे हुए बालों से लटकने वाला अवतंस (अंगूठी के आकार वाला कर्णाभूषण) कन्धे तक लटक रहा है ।

स्रवदस्रौघया शश्वन्मानव्या मुण्डमालया ।

आकण्ठ गुल्फलंबिन्यालङ्कृतां केशबद्धया ॥ ९ ॥

(शिर के) बालों से परस्पर बँधे हुए नरमुण्डों की मालाजिससे कि निरन्तर रक्त टपक रहा हैकण्ठ से लेकर गुल्फ तक लटक रही है । इस माला से वे अलङ्कृत हैं ।

श्वेतास्थि गुलिका हारग्रैवेयकमहोज्ज्वलाम् ।

शवदीर्घाङ्गुली पंक्तिमण्डितोरः स्थलस्थिराम् ॥१०॥  

श्वेतवर्ण की हड्डी की गोली से बने हुए हार एवं ग्रैवेयक (धारण करने के कारण वे) अत्यन्त उज्ज्वल हैं । शव की लम्बी अङ्गुलियों की माला से उनका दृढ़ उरस्थल अलङ्कृत है ।

कठोर पीवरोत्तुङ्ग वक्षोज युगलान्विताम् ।

महामारकतग्राववेदि श्रोणि परिष्कृताम् ॥११॥

वे कठोर विशाल और ऊँचे दो स्तनों वाली हैं । इनके उत्तम नितम्ब महा मरकत पत्थर से निर्मित वेदी के समान (चिकनेकठोर और समतल) हैं ।

विशाल जघना भोगामतिक्षीण कटिस्थलाम् ।

अंत्रनद्धार्भक शिरोवलत्किङ्किणि मण्डिताम् ॥१२॥  

उनके जघन का विस्तार अत्यधिक है और कटि अत्यन्त क्षीण है । आँतों से बँधे हुए बच्चों के शिररूपी किङ्किणी (करधनी) से वे मण्डित हैं ।

सुपीनषोडश भुजां महाशङ्खाञ्चदङ्गकाम् ।

शवानां धमनीपुञ्जैर्वेष्टितैः कृतकङ्कणाम् ॥१३॥  

वे लम्बी सोलह भुजा वाली हैं । मनुष्य के कपाल उनके अङ्गों में शोभामान है । शवों की धमनियों को हाथ में लपेट कर कङ्कण बना लिया है ।

ग्रथितैः शवकेशस्रग्दामभिः कटिसृत्रिणीम् ।

शवपोतकरश्रेणी ग्रथनैः कृतमेखलाम् ॥१४ ॥

शव के गुँथे बालों की रस्सी से उनका कटिसूत्र रचा गया है । मृत शिशु के हाथों को गूंथ कर उन्होंने करधनी बनायी है ।

शोभामानांगुलीं मांसमेदोमज्जांगुलीयकैः ।

असिं त्रिशूलं चक्रं च शरमंकुशमेव च ॥१५ ॥

लालनं च तथा कर्त्रीमक्षमालां च दक्षिणे ।

पाशं च परशुं नागं चापं मुद्गरमेव च ॥१६॥  

शिवापोतं खर्परं च वसासृङ्मेदसान्वितम् ।

लम्बत्कचं नृमुण्डं च धारयन्तीं स्ववामतः ॥१७॥

अङ्गुलियों में मांसमेदामज्जा की अङ्गुठियाँ पहन रखी हैं । (वे अपने) दायें हाथों में खड्गत्रिशूलचक्रबाणअङ्कुशलालन (=मूषक की आकृतिवाला विषधर जन्तु)कैंची और अक्षमाला तथा अपने बायें हाथों में पाशपरशुनागधनुषमुद्गरसियार का बच्चा तथा वसा रक्त और मेदा से भरा कपाल ली हुई हैं।

विलसन्नूपुरां देवीं ग्रथितैः शवपञ्जरैः ।

श्मशान प्रज्वलद् घोरचिताग्निज्वाल मध्यगाम् ॥१८॥  

अधोमुख महादीर्घ प्रसुप्त शवपृष्ठगाम् ।

वमन्मुखानल ज्वालाजाल व्याप्त दिगन्तरम् ॥१९॥

गूंथे हुए शवपञ्जरों के नूपुर से शोभायमान हैं । श्मशान में जलती हुई घोर चिताग्नि की ज्वाला के मध्य में स्थितऔंधे मुँह सोये हुए विशाल शव की पीठ पर खड़ी हैं । उनके मुख से उगली हुई अग्नि की ज्वालायें दिग् दिगन्तर में फैली हुई हैं।

प्रोत्थायैव हि तिष्ठन्तीं प्रत्यालीढ पदक्रमाम् ।

वामदक्षिण संस्थाभ्या नदन्तीभ्यां मुहुर्मुहुः ॥२०॥

शिवाभ्यां घोररूपाभ्यां वमन्तीभ्यां महानलम् ।

विद्युङ्गार वर्णाभ्यां वेष्टितां परमेश्वरीम् ॥२१॥  

एक पैर पर खड़ी होकर दूसरे को उठाकर आगे रखने की स्थिति में वर्तमान हैं । उनके बायें और दायें भयङ्कर रूपों वाली दो सियारिने खड़ी हैं जो अपने मुख से आग उगल रही हैं । विद्युत और अङ्गार के वर्ण वाली ये दोनों सियारिने कामकलाकाली को घेरे हुए हैं ।

सर्वदैवानुलग्नाभ्यां पश्यन्तीभ्यां महेश्वरीम् ।

अतीव भाषमाणाभ्यां शिवाभ्यां शोभितां मुहुः ॥२२॥

कपालसंस्थं मस्तिष्कं ददतीं च तयोर्द्वयोः ।

दिगम्बरां मुक्तकेशीमट्टहासां भयानकाम् ॥२३॥  

वे सदा उनके सन्निकट रहकर उनको देखती रहती हैं । वह देवी कपाल में स्थित मस्तिष्क को उन दोनों को देती रहती हैं और वे शिवायें उसको निरन्तर खाती रहती हैं । यह देवी नग्नखुले बालों वालीअट्टहास करती हुई और भयानक हैं ।

सप्तधानद्धनारान्त्रयोगपट्ट विभूषिताम् ।

संहारभैरवेणैव सार्द्धं संभोगमिच्छतीम् ॥२४॥

सात बार ग्रथित नर की आँत के योगपट्ट से विभूषित हैं । वह काली संहारभैरव के साथ निरन्तर सम्भोग चाहती हैं ।

अतिकामातुरां कालीं हसन्तीं खर्वविग्रहाम् ।

कोटि कालानल ज्वालान्यक्कारोद्यत् कलेवरम् ॥२५॥  

महाप्रलय कोट्यर्क्क विद्युदर्बुद सन्निभाम् ।

अत्यन्त कामातुर वह नाटे कद की हैं तथा हँसती रहती हैं । उनका शरीर करोड़ों कालानल को तिरस्कृत करने वाला है तथा महाप्रलय के समय दीप्यमान करोड़ों सूर्य और अरबों विद्युत् के समान है ।

कल्पान्तकारणीं कालीं महाभैरवरूपिणीम् ॥२६॥

महाभीमां दुर्निरीक्ष्यां सेन्द्रैरपि सुरासुरैः ।

शत्रुपक्षक्षयकरीं दैत्यदानवसूदनीम् ॥

चिन्तयेदीदृशीं देवीं काली कामकलाभिधाम् ॥२७॥

यह काली कल्प का अन्त करने वालीमहाभैरवरूपिणीमहाभयङ्करीइन्द्र के सहित सुरों और असुरों के द्वारा दुर्निरीक्ष्य हैं । शत्रुपक्ष का नाश करने वालीदैत्यदानव का संहार करने वाली कामकला नामक काली का ध्यान करना चाहिये ।

कामकलाकाली साधना

अथ कामकलाकाली साधना मन्त्र 

मरीचिसमुपासिताया सप्तदशाक्षर मन्त्रः

ओं ऐं ह्रीं श्रीं क्रीं क्लीं हूं छ्रीं स्त्रीं फ्रें क्रों हौं क्षौं आं स्फ्रों स्वाहा ।

कपिलोपास्याया षोडशाक्षर मन्त्रः

ह्रीं फ्रें क्रों ग्लूं छ्रीं स्त्रीं हूं स्फ्रों खफ्रें हसफ्रीं हसखफ्रें क्ष्रौं स्हौः फट् स्वाहा ॥

हिरण्याक्षोपासिताया नवाक्षर मन्त्रः

खफ्रें रह्रीं रज्रीं रक्रीं रक्ष्रीं रछ्रीं रफ्रीं हसखफ्रीं फट् ।

लवणोपास्या दशाक्षर मन्त्रः

ह्रीं खफ्रें हूं स्फ्रों क्लीं छ्रीं स्त्रीं फ्रें स्वाहा ।

वैवस्वतोपास्या पञ्चदशाक्षर मन्त्रः

हूं फट् फ्रें कामकलाकालिकायै नमः स्वाहा ।

दत्तात्रेयोपास्या नवाक्षर मन्त्रः

ओं ऐं छ्रीं फ्रें क्लीं स्त्रीं स्फ्रों हूँ ह्रीं ।

दुर्वासा उपास्याया पञ्चाक्षर मन्त्रः

क्रों स्फ्रों फ्रें ख्फ्रें स्फ्रों ।

उत्तङ्कौपास्या चतुर्दशाक्षर मन्त्रः

ऐं ओं फ्रें खफ्रें हसफ्रीं हसखफ्रें ह्रीं श्रीं क्लीं छ्रीं स्त्रीं हूं नमः ।

कौशिकोपास्याया सप्तदशाक्षर मन्त्रः

क्षुस्रां ह्रीं फ्रें नमः विकरालायै क्लीं ख्फ्रें स्फ्रों नमः हूं स्वाहा ।

और्वोपास्या मन्त्रः

ह्रीं छ्रीं हूं स्त्रीं फ्रें भगवत्यै कामकलाकालिकायै ओं ऐं क्रों क्रीं श्रीं क्लीं स्फ्रों स्फ्रों फट् फट् स्वाहा ।

पाराशरोपासितायाः पञ्चाक्षर मन्त्रः

छ्रीं स्फ्रों हूं क्लीं फट् ।

भागीरथोपासितायाः त्र्यक्षर मन्त्रः

हस्लक्षकमहब्रूं स्हकह्रलह्रीं सक्लह्रकह्रं ।

बल्युपास्याया षडक्षर मन्त्रः

ह्रीं स्फ्रों हूँ ख्फ्रें क्लीं ख्फ्रें ।

संवर्तोपास्ययायाः षोडशाक्षर मन्त्रः

क्लीं श्रीं ह्रीं हूं छ्रीं फ्रें खफ्रें क्षूं ग्लू हूं हौं रफ्रें क्रों क्रीं ओं ऐं ।

नारदोपास्याः पञ्चदशाक्षर मन्त्रः

ओं ऐं क्लीं स्फ्रों ह्रीं खफ्रें छ्रीं हसफ्रीं स्त्रीं हसखफ्रें हूं सफहलक्षूं फट् स्वाहा।

गरुडोपास्याः सप्तदशाक्षर मन्त्रः

स्हजहलक्षम्लवनऊं ह्रीं सग्लक्षमहरह्रूं छ्रीं क्कलह्रझकह्रनसक्लईं (कूर्मकूट) ।

गरुडोपास्यायाः सप्तदशाक्षर मन्त्रः

लक्षमह्रजरक्रव्य्रऊं (वधूकूट) क्लक्षसहमव्य्रऊं फ्रें फ्लक्षह्रस्हव्य्रऊं ह्रसलहसकह्रीं फट् नमः स्वाहा ।

भार्गवोपास्याः एकादशाक्षर मन्त्रः

ओं आं क्रों हौं क्ष्रूं ग्लू फ्रें स्त्रीं छ्रीं स्वाहा ।

परशुरामोपास्यायाः सप्ताक्षर मन्त्रः

श्रीं ह्रीं क्लीं छ्रीं स्त्रीं क्रीं फट् ।

सहस्रबाहूपासितायाश्चतुर्दशाक्षर मन्त्रः

ऐं क्रों स्फ्रों फ्रें खफ्रें हसफ्रीं हसखफ्रें फट् फट् फट् नमः स्वाहा ।

पृथूपासिताया पञ्चाक्षर मन्त्रः

क्लीं स्फ्रों स्फ्रों क्लीं फट् ।

हनुमदुपास्यायाः द्वादशाक्षर मन्त्रः

ओं आं ऐं ओं ईं ओं ह्रीं हूं श्रीं क्लीं कालि करालि विकरालि फट् फट् ।

भार्गवोपास्या एकादशाक्षर मन्त्रः

ओं आं क्रों हौं क्ष्रूं ग्लूं फ्रें स्त्रीं छ्रीं स्वाहा ।

कामकला काल्याः शताक्षर मन्त्रः

ह्रीं क्लीं हूं नमः कामकलाकालिकायै ऐं क्रों श्रीं क्रीं छ्रीं स्त्रीं फ्रें खफ्रें सकच नरमुण्डकुण्डलायै हसखफ्रीं हसखफ्रूं हसखफ्रैं हसखफ्रों महाविकराल वदनायै महाप्रलय समय ब्रह्माण्डनिष्पेषणकरायै रह्रीं रश्रीं रफ्रें रस्फ्रों हूं हूं हूं फट् फट् फट् भयङ्कररूपायै ह्रक्षम्लैं लक्षों क्षरह्रीं क्षस्त्रीं रक्षश्री खं रध्रें सैं ठं ठं ठं फें फें नमः स्वाहा ।

कामकला काल्याः सहस्राक्षर मन्त्रोद्धारः

ओं नमो भगवत्यै कामकलाकालिकायै ओं ओं ओं ओं ओं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं हूं हूं हूं हूं हूं छ्रीं छ्रीं छ्रीं छ्रीं छ्रीं स्त्रीं स्त्रीं स्त्रीं स्त्रीं स्त्रीं संहार भैरवसुरतरसलोलुपायै क्रों क्रों क्रों क्रों क्रों हौं हौं हौं हौं हौं फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें ख्फ्रें क्षूं क्षूं क्षूं क्षूं क्षूं स्फ्रों स्फ्रों स्फ्रों स्फ्रों स्फ्रों स्हौः स्हौः स्हौः स्हौः स्हौः ग्लूं ग्लूं ग्लूं ग्लूं ग्लूं क्षौं क्षौं क्षौं क्षौं क्षौं फ्रों फ्रों फ्रों फ्रों फ्रों क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रीं क्रौं क्रौं क्रौं क्रौं क्रौं जूं जूं जूं जूं जूं क्लूं क्लूं क्लूं क्लूं क्लूं प्रकटविकटदशन विकरालवदनायै क्लौं क्लौं क्लौं क्लौं क्लौं ब्लौं ब्लौं ब्लौं ब्लौं ब्लौं क्षूं क्षूं क्षूं क्षूं क्षूं ठ्रीं ठ्रीं ठ्रीं ठ्रीं ठ्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं प्रीं हभ्रीं हभ्रीं हभ्रीं हभ्रीं हश्रीं स्हें स्हें स्हें स्हें स्हें घ्रीं घ्रीं घ्रीं घ्रीं घ्रीं सृष्टिस्थितिसंहारकारिण्यै मदनातुरायै क्रैं क्रैं क्रैं क्रैं क्रैं थ्रीं थ्रीं थ्रीं थ्रीं थ्रीं ढ्रीं ढ्रीं ढ्रीं ढ्रीं ढ्रीं ठौं ठौं ठौं ठौं ठौं ब्लूं ब्लूं ब्लूं ब्लूं ब्लूं भ्रूं भ्रूं भ्रूं भ्रूं भ्रूं फहलक्षां फहलक्षां फहलक्षां फहलक्षां फहलक्षां भयङ्करदंष्ट्रायुगल मुखररसनायै घ्रीं घ्रीं घ्रीं घ्रीं घ्रीं ख्रैं ख्रैं ख्रैं ख्रैं ख्रैं क्रूं क्रूं क्रूं क्रूंक्रूं श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं श्रीं चफलक्रों चफलक्रों चफलक्रों चफलक्रों चफलक्रों (सुरतपिनी) क्रूं क्रूं क्रूं क्रूं क्रूं गं गं गं गं गं ह्रूः ह्रूः ह्रूः ह्रूः ह्रूः सकचनरमुण्ड कृत (कुण्डलात्त्यै) कुलायै ल्यूं ल्यूं ल्यूं ल्यूं ल्यूं णूं णूं णूं णूं णूं हैं हैं हैं हैं हैं क्लौं क्लौं क्लौं क्लौं क्लौं ब्रूं ब्रूं ब्रूं ब्रूं ब्रूं स्कीः स्कीः स्कीः स्कीः स्कीः ब्जं ब्जं ब्जं ब्जं ब्जं स्हीं स्हीं स्हीं स्हीं स्हीं महाकल्पान्तब्रह्माण्ड चर्वणकरायै हैं हैं हैं हैं हैं अं अं अं अं अं इं इं इं इं इं उं उं उं उं उं स्हें स्हें स्हें स्हें स्हें रां रां रां रां रां गं गं गं गं गं गां गां गां गां गां युगभेद भिन्नगुह्यकाल्येकमूर्तिधरायै फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें फ्रें खफ्रें खफ्रें खरें खफ्रें खफ्रें हसफ्रीं हसफ्रीं हसफ्रीं हसफ्रीं हसफ्रीं हसखफ्रें हसखफ्रें हसखफ्रें हसखफ्रें हसखफ्रें क्षरह्रीं क्षरह्रीं क्षरह्रीं क्षरह्रीं क्षरह्रीं ह्रक्षम्लैं ह्रक्षम्लैं ह्रक्षम्लैं ह्रक्षम्लैं ह्रक्षम्लैं (जरक्रीं जरक्रीं जरक्रीं जरक्रीं जरक्रीं) रह्रीं रह्रीं रह्रीं रह्रीं रह्रीं रक्ष्रीं रक्ष्रीं रक्ष्रीं रक्ष्रीं रक्ष्रीं रफ्रीं रफ्रीं रफ्रीं रफ्रीं रफ्रीं क्षह्रम्लव्यूऊं क्षह्रम्लव्यूऊं क्षह्रम्लव्यूऊं क्षहृम्लव्यूउं क्षहृम्लव्यूऊं शतवदनान्तरितैकवदनायै फट् फट् फट् ओं तुरु ओं मुरु ओं हिलि ओं किलिं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः महाघोररावे कालि कापालि महाकापालि विकटदंष्ट्रे शोषिणि संमोहिनि करालवदने मदनोन्मादिनि ज्वालामालिनि शिवारूपि भगमालिनि भगप्रिये भैरवीचामुण्डायोगिन्यादिशतकोटि गणपरिवृते प्रत्यक्षं परोक्षं मां द्विषतो जहि जहि नाशय नाशय त्रासय त्रासय मारय मारय उच्चाटय उच्चाटय स्तम्भय स्तम्भय विध्वंसय विध्वंसय हन हन त्रुट त्रुट विद्रावय विद्रावय छिन्धि छिन्धि पच पच शोषय शोषय मोहय मोहय उन्मूलय उन्मूलय भस्मीकुरु भस्मीकुरु दह दह क्षोभय क्षोभय हर हर प्रहर प्रहर पातय पातय मर्दय मर्दय दम दम मथ मथ स्फोटय स्फोटय जम्भय जम्भय भ्रामय भ्रामय सर्वभूतभयङ्करि सर्वजनवशंकरि सर्वशत्रुशयंकरि ओं ह्रीं ओं क्लीं ओं हूं ओं क्रों ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल कह कह हस हस राज्यधनायुः सुखैश्वर्यं देहि देहि दापय दापय कृपाकटाक्षं मयि वितर वितर छ्रीं स्त्रीं फ्रें हभ्रीं ठ्रीं भ्रीं प्रीं क्रीं क्लीं हां हीं हूं मुण्डे सुमुण्डे चामुण्डे मुण्डमालिनि मुण्डावतंसिके मुण्डासने ग्लूं ब्लूं ज्लूं शवारूढे षोडशभुजे सोद्यते पाशपरशुनागचाप मुद्गर शिवापोत खर्पर नरमुण्डाक्षमाला कर्त्रीनानाङ्कशशवचक्र त्रिशूल करवाल धारिणि स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर मम हृदि तिष्ठ तिष्ठ स्थिरा भव त्वं ऐं ओं स्वाहा स्हौः क्लीं स्फ्रों खं खं खं खां खां खां (पदवी) हीं हीं हीं हूं हूं हूं जय जय जय विजय विजय विजय फट् फट् फट् नमः स्वाहा ॥ दशाक्षरत्रुटिरिह कथं पूरणीय इति जिज्ञासाशान्तिः साधकैः सुधीभिः विचार्योहेन कर्तव्या ।

कामकलाकाल्याः प्राणायुताक्षर मन्त्रः- इस प्राणायुताक्षर मन्त्र में अनकों देवियों के मन्त्र हैं । इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें- कामकलाकाली अयुताक्षर मन्त्र   

कामकलाकाली पारिभाषिक शब्दकोश

पारिभाषिक शब्दकोश

अनङ्गगन्ध - अठारह वर्ष अथवा उससे कम आयु की स्त्री का प्रथम दिन का आर्त्तव रक्त ।

अन्तरात्मा - पञ्चतन्मात्र मन बुद्धि और अहङ्कार रूप पुर्यष्टक के साथ समस्त योनियों में शुभ-अशुभ कर्म से बँधा तथा नाना योनियों में भटकने वाला जीव ।

अर्ध्य- देवता या विशिष्ट महापुरुष के सत्कार के लिये एकत्रित सामग्री। इसमें जल गन्ध चन्दन पुष्प फल दूर्वा दक्षिणा आदि वस्तुयें संगृहीत होती हैं ।

आत्मा - प्रधान अर्थात् प्रकृति तत्त्व के साथ साम्य स्थापित कर सुख दुःख से रहित जीव ।

आधार - इसे मूलाधार चक्र कहते हैं। यह लिङ्ग के मूल में स्थित होता है । यहाँ चतुर्दल कमल की कल्पना है। यह पृथ्वी तत्त्व का प्रतीक है। आवरण-प्रधान देवता के चारो ओर आगे पीछे कई पंक्तियों में विराजमान उनके सहवासी या अङ्गभूत देवता आदि ।

इडा – कन्द से निकल कर रीढ़ की हड्डी के बाँयीं ओर ऊपर चलने वाली मुख्य नाडी जो बाँयें नासारन्ध्र में पहुँचकर समाप्त हो जाती है। इसे चन्द्र नाडी भी कहते हैं।

कन्द - नाभि के नीचे तथा लिङ्गमूल के ऊपर स्थित पक्षी के अण्डे के समान वह मांसपिण्ड जहाँ से ७२००० नाड़ियाँ निकल कर सम्पूर्ण शरीर को व्याप्त करती हैं ।

कवच - वह मन्त्र अथवा स्तोत्र जिसके द्वारा साधक देवताओं से तत्तत् अङ्गों की रक्षा के लिए याचना कर अपने को सुरक्षित करता है ।

कामकला – कामेश्वर (शिव) से अभिन्न उसकी विमर्श शक्ति । महात्रिपुरसुन्दरी का नामान्तर ।

काली-पार्वती की उपाधि या शिव की पत्नी का नाम ।

कुबेर- धन के देवता । ये रावण के बड़े भाई हैं तथा उत्तर दिशा में अधिष्ठातृ रूप में विराजमान रहते हैं ।

चतुर्भद्र – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ।

चतुर्वर्ग – धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ।

चन्द्रहास खड्ग - रावण की तलवार का नाम ।

डाकिनी - यह देवी रक्तवर्ण चतुर्बाहु द्वादश सूर्य के सदृश देदीप्यमान मूलाधार चक्र में निवास करती हैं। पक्षान्तर में यह एक प्रकार की आसुरी शक्ति या आत्मा हैजिसे भूतिनी भी कहते हैं। यह बच्चों तथा स्त्रियों को अभिभूत कर कष्ट पहुँचाती है ।

तीर्थ- सुरा । गुड़अन्नफल आदि अनेक प्रकार के द्रव्यों से बनायी गयी यह अनेक प्रकार की होती है।

परमात्मा — त्रिविध मलोंकर्मकला से रहित तथा देशाध्वा कालाध्वा से परे निर्मल जीव ।

परमीकरण - किसी भी पदार्थ या व्यक्ति को संस्कार के द्वारा परमेश्वर सदृश अत्यन्त उत्कृष्ट बनाना ।

पिङ्गला - कन्द से निकल कर रीढ़ की हड्डी के दायीं ओर ऊपर चलने वाली मुख्य नाड़ी जो दाँयें नासारन्ध्र मे जाकर समाप्त हो जाती है। इसे सूर्य नाड़ी भी कहते हैं ।

पुरश्चरण - किसी मन्त्र में जितने अक्षर होते हैं। उस मन्त्र का उतने हजार जप लघु पुरश्चरण तथा उतने लाख जप का वृहत् पुरश्चरण होता है । पुरश्चरण की एक निश्चित प्रक्रिया होती है ।

बलिकिसी भी देवता या असुर के लिये पूजा के अन्त में अर्पणीय वस्तु । यह पशु-पक्षी उनका मांस या अन्न आदि कुछ भी हो सकता है। भक्त प्रह्लाद के पुत्र विरोचन के पुत्र का नाम ।

बाणासुर - राजा बलि का पुत्र । माहेश्वर (मध्य प्रदेश) में इसका मन्दिर नर्मदा नदी के मध्य में स्थित है ।

बाह्यात्मा - स्थूल देह से संसक्त तथा रूप रस आदि विषयों का भोग करने वाला जीव ।

ब्रह्मा - ये सत्यलोक में रहते हैं। प्रजापति के नाम से अंशतः अवतीर्ण होकर ये संसार की सृष्टि करते रहते हैं। देवताओं के एक सौ वर्ष का इनका एक दिन होता है । इस परिमाण से इनकी आयु १०० वर्ष की होती है ।

निरात्मा - स्थूल सूक्ष्म भूतों से अप्रभावित तथा मायीय मल से युक्त जीव ।

मधुपर्क - दहीघी और मधु का मिश्रण (दध्ना मधुसर्पिम्यां मधुपर्क इहोच्यते) । वाममार्ग मे पशु का रक्त-मांस आदि ।

मणिपुर - यह चक्र अग्नितत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी स्थिति स्वाधिष्ठान के ऊपर है। यह दशदल चक्र है।

मन्त्र - वे अक्षर या अक्षरसमूह जो किसी सिद्धपुरुष द्वारा प्रवर्तित किये जाते हैं । उनमे वर्णों या शब्दों का परिवर्तन नहीं हो सकता। ये अक्षरसमूह दिव्य शक्ति से सञ्चालित होते हैं ।

मलमास - हिन्दू पञ्चाङ्ग में मास की व्यवस्था चन्द्रमा के उदयास्त की दृष्टि से की गयी है। उसके अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष में एक महीना बढ़ जाता है इस प्रकार वह वर्ष तेरह महीनों का होता है। यह पूर्ववर्ती दो वर्षों का अवशिष्ट काल होता है। किसी भी महीने के कृष्ण पक्ष के बाद से प्रारम्भ होकर शुक्ल कृष्ण दो पक्षों का यह मास पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है।

महाकाल - शिव का दूसरा नाम । प्रलयकर्त्ता के रूप में शिव का एक रूप ।

महाशङ्ख- मनुष्य की खोपड़ी ।

मातृका - 'से लेकर 'क्षतक का वर्णसमूह। यह परा संवित् का ही रूपान्तर है। 'मातृशब्द से अज्ञात अर्थ में 'कन्प्रत्यय जोड़कर 'मातृकाशब्द निष्पन्न हुआ है। अज्ञाता माता = मातृका । आदि क्षान्त वर्णों का वास्तविक स्वरूप सामान्य लोगों को ज्ञात नहीं होता ।

मुद्रा - १. शरीर अथवा अङ्गों का विशेष रूप से तोड़ना या मरोड़ना । जैसे- योगमुद्राजालन्धरमुद्राशङ्खमुद्रापल्लवमुद्रा आदि । २. भुना या तला खाद्य पदार्थ जो सुरा के साथ खाया जाता है।

योगिनी - शिव या दुर्गा की सेविकायें। इनकी संख्या आठ है ।

यक्षिणी- दुर्गा देवी की सेवा में रहने वाली विशेष प्रकार की स्त्रियाँ कभी-कभी ये मृत्युलोक में पुरुषों से भी सम्बन्ध रखती हैं । इसे शाकिनी भी कहते हैं।

विशुद्ध यह चक्र कण्ठ मे स्थित है और सोलह दलों वाला है। इसे आकाश तत्त्व का प्रतीक मानते हैं ।

वज्र - देवराज इन्द्र का अस्त्र जिसे महर्षि दधीचि की हड्डियों से बनाया गया था।

वरुण - जल तत्त्व के अधिष्ठातृ देव । इनकी दिशा पश्चिम है जिसमें ये विराजमान रहते हैं ।

वसुये ऊर्ध्व लोक में रहने वाले देवता हैं। इनकी संख्या आठ है । महाभारत के भीष्मपितामह आठवें वसु के अवतार थे।

शक्ति – वह स्त्री जो वाममार्गी साधना में मैथुन के लिये प्रयुक्त होती है ।

शाकिनी—– एक प्रकार की आसुरी या पिशाचिनी या परी जो कि दुर्गा की सेविका होती है।

षडङ्गन्यास – हृदयशिरशिखादोनों भुजायेंतीनों नेत्र और सम्पूर्ण शरीर । ये छह अङ्ग न्यास के लिये माने गये हैं। इसमें मन्त्र या बीजाक्षर का उच्चारण करते हुए सम्बद्ध देवता का आवाहन किया जाता है ।

समित् - हवन आदि कार्यों के लिये शिष्यों के द्वारा जङ्गल से लायी गयी लकड़ी आदि।

सामरस्य- चक्रों का भेदन करने के बाद अथवा अन्य उपायों के द्वारा अत्यन्त निर्मल होकर जीव का शिवशक्ति स्वरूप होना ।

स्वाधिष्ठान - मूलाधार के ऊपर वर्त्तमान छह दलों वाला चक्र । यह जल तत्त्व का प्रतीक माना जाता है। यह चक्र मूत्राशय के आस पास स्थित है। इस चक्र का भेदन करते समय कामवासना सर्वाधिक उद्दीप्त होती है ।

सुषुम्ना - यह नाड़ी भी कन्द से निकलती है और रीढ़ की अँड़तीस हड्डियों के बीच से होकर ऊपर जाती है। आगे चलकर यह दो भागों में बँट जाती है । एक भाग आज्ञाचक्र में और दूसरा सहस्त्रार में चला जाता है । समाधिस्थ योगी का प्राणवायु इसी में सञ्चरण करता रहता है। इसे मध्यनाड़ी भी कहते हैं ।

सदाशिव - परमेश्वर का तीसरा अवतार। इनमें माया का स्पर्श नहीं रहता। ये सदा परमेश्वर के ध्यान में मग्न रहते हुए सृष्टि का सञ्चालन करते रहते हैं । इन्हें सर्वदा 'अहम्का ही बोध होता है। ये आणव भक्त से अल्पमात्रा में संश्लिष्ट रहते हैं।

स्वयम्भू पुष्प - किसी भी स्त्री का प्रथम दिन का आर्तव रक्त ।

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  1. दशाक्षर क्षिप्रप्रसादगणपति (विघ्नराज) मंत्र August 30, 2019 | aspundir | Leave a comment ॥ अथ दशाक्षर क्षिप्रप्रसादगणपति (विघ्नराज) मंत्र ॥ मन्त्र – गं क्षिप्रप्रसादनाय नमः । क्षिप्र प्रसाद गणपति का पूजन श्रीविद्या ललिता सुन्दरी उपासना में मुख्य है । इनके बिना श्री विद्या अधूरी है। जो साधक श्री साधना करते हैं उन्हें सर्वप्रथम इनकी साधना कर इन्हें प्रसन्न करना चाहिए। कामदेव की भस्म से उत्पन्न दैत्य से श्री ललितादेवी के युद्ध के समय देवी एवं सेना के सम्मोहित होने पर इन्होंने ही उसका वध किया था। इनकी उपासना से विघ्न, आलस्य, कलह़, दुर्भाग्य दूर होकर ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। विनियोगः- ॐ अस्य श्री क्षिप्र प्रसाद गणपति मंत्रस्य गणक ऋषिः । विराट् छन्दः, क्षिप्र प्रसादनाय देवता, गं बीजं, आं शक्तिं, सर्वाभीष्ट सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । करन्यास अंग न्यास ॐ गं अंगुष्ठाभ्यां नमः । हृदयाय नमः । ॐ गं तर्जनीभ्यां नमः । शिरसे स्वाहा । ॐ गं मध्यमाभ्यां नमः । शिखायै वषट् । ॐ गं अनामिकाभ्यां नमः । कवचाय हुम् । ॐ गं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । नैत्रत्रयाय वौषट् । ॐ गं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः । अस्त्राय फट् । ध्यानम् पाशांकुशौ कल्पलतां विषाणं दधत् स्वशुण्डाहित बीजपूरः । रक्तस्त्रिनेत्रस्तरुणेन्दु मौलिर्हारोज्ज्वलो हस्तिमुखोऽवताद् वः ॥ रक्त वर्ण, पाश, अंकुश, कल्पलता हाथ ‍में लिए वरमुद्रा देते हुए, शुण्डाग्र में बीजापुर लिए हुए, तीन नेत्र वाले, उज्ज्वल हार इत्यादि आभूषणों से सज्जित, हस्ति मुख गणेश का मैं ध्यान करता हूं। यंत्रार्चनम् :- यंत्र देवता वक्रतुण्ड गणेश के ही है, प्रथमावरणम् – षट्कोण में हृदयशक्ति, शिरशक्ति, शिखाशक्ति, कवचशक्ति, नेत्रशक्ति एवं अस्त्रशक्ति का पूजन करें । द्वितीयावरणम् – अष्ट दलों में निम्न (क्षिप्रप्रसाद स्वरूपों का पूजन करे – ॐ विघ्नाय नमः ॥ १ ॥ ॐ विनायकाय नमः ॥ २ ॥ ॐ शूराय नमः ॥ ३ ॥ ॐ वीराय नमः ॥ ४ ॥ ॐ वरदाय नमः ॥ ५ ॥ ॐ इभक्त्राय नमः ॥ ६ ॥ ॐ एकरदाय नमः ॥ ७ ॥ ॐ लंबोदराय नमः ॥ ८ ॥ तृतीय व चतुर्थावरण में इसके बाद भूपूर में इन्द्रादि लोकपालों व आयुधों की पूर्व यंत्रार्चन विधि अनुसार करें । चार लाख जप कर, चालीस हजार आहुति मोदक से तथा नित्य चार सौ चवालीस (444) तर्पण करने से अपार धन-संपत्ति प्राप्त होती है । तर्पण में नारियल का जल या गुड़ोदक प्रयोग कर सकते हैं । त्रिकाल (सुबह-दोपहर-संध्या) को जप का विशेष महत्व है । अंगुष्ठ बराबर प्रतिमा बनाकर श्री क्षिप्रप्रसाद गणेश यं‍त्र के ऊपर स्थापित कर पूजन करें । श्री गणेश शीघ्र प्रसन्न होने वाले देवता हैं । ADD https://vadicjagat.co.in/sitemap/
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  2. श्री विश्वावसु गन्धर्व-राज कवच स्तोत्रम् July 24, 2015 | aspundir | 2 Comments श्री विश्वावसु गन्धर्व-राज कवच स्तोत्रम् प्रणाम-मन्त्रः- ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।। ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।। ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।। ।। पूर्व-पीठिका ।। ॐ नमस्कृत्य महा-देवं, सर्वज्ञं परमेश्वरम् ।। ।। श्री पार्वत्युवाच ।। भगवन् देव-देवेश, शंकर परमेश्वर ! कथ्यतां मे परं स्तोत्रं, कवचं कामिनां प्रियम् ।। जप-मात्रेण यद्वश्यं, कामिनी-कुल-भृत्यवत् । कन्यादि-वश्यमाप्नोति, विवाहाभीष्ट-सिद्धिदम् ।। भग-दुःखैर्न बाध्येत, सर्वैश्वर्यमवाप्नुयात् ।। ।। श्रीईश्वरोवाच ।। अधुना श्रुणु देवशि ! कवचं सर्व-सिद्धिदं । विश्वावसुश्च गन्धर्वो, भक्तानां भग-भाग्यदः ।। कवचं तस्य परमं, कन्यार्थिणां विवाहदं । जपेद् वश्यं जगत् सर्वं, स्त्री-वश्यदं क्षणात् ।। भग-दुःखं न तं याति, भोगे रोग-भयं नहि । लिंगोत्कृष्ट-बल-प्राप्तिर्वीर्य-वृद्धि-करं परम् ।। महदैश्वर्यमवाप्नोति, भग-भाग्यादि-सम्पदाम् । नूतन-सुभगं भुक्तवा, विश्वावसु-प्रसादतः ।। विनियोगः- ॐ अस्यं श्री विश्वावसु-गन्धर्व-राज-कवच-स्तोत्र-मन्त्रस्य विश्व-सम्मोहन वाम-देव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-देवता, ऐं क्लीं बीजं, क्लीं श्रीं शक्तिः, सौः हंसः ब्लूं ग्लौं कीलकं, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-प्रसादात् भग-भाग्यादि-सिद्धि-पूर्वक-यथोक्त॒पल-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगः ।। ऋष्यादि-न्यासः- विश्व-सम्मोहन वाम-देव ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-देवतायै नमः हृदि, ऐं क्लीं बीजाय नमः गुह्ये, क्लीं श्रीं शक्तये नमः पादयो, सौः हंसः ब्लूं ग्लौं कीलकाय नमः नाभौ, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-प्रसादात् भग-भाग्यादि-सिद्धि-पूर्वक-यथोक्त॒पल-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।। षडङ्ग-न्यास – कर-न्यास – अंग-न्यास – ॐ क्लीं ऐं क्लीं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः ॐ क्लीं श्रीं गन्धर्व-राजाय क्लीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा ॐ क्लीं कन्या-दान-रतोद्यमाय क्लीं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट् ॐ क्लीं धृत-कह्लार-मालाय क्लीं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम् ॐ क्लीं भक्तानां भग-भाग्यादि-वर-प्रदानाय कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् ॐ क्लीं सौः हंसः ब्लूं ग्लौं क्लीं करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट् मन्त्रः- ॐ क्लीं विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय नमः ॐ ऐं क्लीं सौः हंसः सोहं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं सौः ब्लूं ग्लौं क्लीं विश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय कन्या-दान-रतोद्यमाय धृत-कह्लार-मालाय भक्तानां भग-भाग्यादि-वर-प्रदानाय सालंकारां सु-रुपां दिव्य-कन्या-रत्नं मे देहि-देहि, मद्-विवाहाभीष्टं कुरु-कुरु, सर्व-स्त्री वशमानय, मे लिंगोत्कृष्ट-बलं प्रदापय, मत्स्तोकं विवर्धय-विवर्धय, भग-लिंग-रोगान् अपहर, मे भग-भाग्यादि-महदैश्वर्यं देहि-देहि, प्रसन्नो मे वरदो भव, ऐं क्लीं सौः हंसः सोहं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं सौं ब्लूं ग्लौं क्लीं नमः स्वाहा ।। (२०० अक्षर, १२ बार जपें) गायत्री मन्त्रः- ॐ क्लीं गन्धर्व-राजाय विद्महे कन्याभिः परिवारिताय धीमहि तन्नो विश्वावसु प्रचोदयात् क्लीं ।। (१० बार जपें) ध्यानः- क्लीं कन्याभिः परिवारितं, सु-विलसत् कह्लार-माला-धृतन्, स्तुष्टयाभरण-विभूषितं, सु-नयनं कन्या-प्रदानोद्यमम् । भक्तानन्द-करं सुरेश्वर-प्रियं मुथुनासने संस्थितम्, स्रातुं मे मदनारविन्द-सुमदं विश्वावसुं मे गुरुम् क्लीं ।। ध्यान के बाद, उक्त मन्त्र को १२ बार तथा गायत्री-मन्त्र को १० बार जपें । कवच मूल पाठ ।। कवच मूल पाठ ।। क्लीं कन्याभिः परिवारितं, सु-विलसत् माला-धृतन्- स्तुष्टयाभरण-विभूषितं, सु-नयनं कन्या-प्रदानोद्यमम् । भक्तानन्द-करं सुरेश्वर-प्रियं मिथुनासने संस्थितं, त्रातुं मे
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  3. श्रीबटुक-भैरव-साधना श्रीबटुक-भैरव-साधना विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबटुक-भैरव-त्रिंशदक्षर-मन्त्रस्य श्रीकालाग्नि-रुद्र ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीआपदुद्धारक देव बटुकेश्वर देवता, ‘ह्रीं’ बीजं, भैरवी-वल्लभ शक्तिः, दण्ड-पाणि कीलकं, मम समस्त-शत्रु-दमने, समस्तापन्निवारणे, सर्वाभीष्ट-प्रदाने वा जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- श्रीकालाग्नि-रुद्र ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीआपदुद्धारक देव बटुकेश्वर देवतायै नमः हृदि, ‘ह्रीं’ बीजाय नमः गुह्ये, भैरवी-वल्लभ शक्तये नमः नाभौ, दण्ड-पाणि कीलकाय नमः पादयो, मम… Read More आपदुद्धारक श्रीबटुक-भैरव-अष्टोत्तर-शत-नामावली के प्रयोग आपदुद्धारक श्रीबटुक-भैरव-अष्टोत्तर-शत-नामावली के प्रयोग “भैरव-तन्त्र” के अनुसार आपदुद्धारक श्रीबटुक-भैरव-अष्टोत्तर-शत-नामावली के कुछ प्रयोग इस प्रकार हैं – १॰ रात्रि में तीन मास तक प्रति-दिन ३८ पाठ करने से (कुल ११४० पाठ) विद्या और धन की प्राप्ति होती है। २॰ तीन मास तक रात्रि में नौ अथवा बारह पाठ प्रति-दिन करने से ‘इष्ट-सिद्धि’ प्राप्त होती है ।… Read More श्रीबटुक-अपराध-क्षमापन-स्तोत्र श्रीबटुक-अपराध-क्षमापन-स्तोत्र ॐ गुरोः सेवां त्यक्त्वा गुरुवचन-शक्तोपि न भवे भवत्पूजा-ध्यानाज्जप 1 हवन-यागा 2 द्विरहितः । त्वदर्च-निर्माणे क्वचिदपि न यत्नं व कृतवान् जगज्जाल-ग्रसतो झटिति कुरु हार्दं मयि विभो ।।१ प्रभो ! दुर्गासूनो ! तव शरणतां सोऽधिगतवान् कृपालो ! दुःखार्तः कमपि भवदन्यं प्रकथये । सुहृत् 3 ! सम्पत्तेऽहं सरल 4-विरलः 5 साधकजन स्त्वदन्यः 6 कस्त्राता भव-दहन-दाहं शमयति ।।२… Read More गो-मय गणपति उपासना गो-मय गणपति उपासना ‘गो-मय गणपति उपासना’– २१ दिनों की अति-प्रभावी उपासना है। यह उपासना किसी भी मास की शुक्ल चतुर्थी या शुभ दिन से प्रारम्भ की जा सकती है। संकल्पः- ॐ तत्सत् अद्यैतस्य ब्रह्मणोऽह्यि द्वितीय-प्रहरार्द्धे श्वेत-वराह-कल्पे जम्बू-द्वीपे भरत-खण्डे आर्यावर्त्त-देशे अमुक पुण्य-क्षेत्रे कलि-युगे कलि-प्रथम-चरणे ‘अमुक’-नाम संवत्सरे भाद्रपद-मासे शुक्ल-पक्षे चतुर्थी-तिथौ अमुक-वासरे अमुक-गोत्रोत्पन्नो अमुक नाम-शर्मा-वर्मा-दास गणपति-देवता -प्रीति-पूर्वक त्वरित… Read More श्रीगणेशोपासनाः- शीघ्र विवाह हेतु श्रीगणेशोपासनाः- शीघ्र विवाह हेतु (१) ‘संकष्टी-चतुर्थी’ को उपासना प्रारम्भ करे। स्नान आदि से निवृत्त होकर श्रीगणेश जी के सामने बैठे। तथा-शक्ति ‘पूजन’ करे। ‘पूजा’ में रक्त अक्षत्, रक्त पुष्प, शमी-पत्र तथा दूर्वा चढ़ाए। फिर, हृदय में ‘श्रीगणेश’ का ‘ध्यान’ करे- “श्वेताभं शशि-शेखरं त्रिनयनं श्वेताम्बरालंकृतं। श्रीवाणी-सहितं रमेश-वरदं पीयूष-मूर्ति प्रभुम्।। पीयूषं निज-बाहुभिश्चदधतं पाशांकुशौ मुद्-गरं। नागास्यं सततं सुरैश्च… Read More श्रीगणेशोपासनाः-पुत्र-प्राप्ति हेतु श्रीगणेशोपासनाः-पुत्र-प्राप्ति हेतु (१) श्रीसुधा-गणेश-साधनाः- यह एक निश्चित फल-प्रद साधना है। इसके लिए पहले दूर्वा (दूब) ले आए। दूर्वा तोड़ते समय निम्न मन्त्र पढ़ें- “दूर्वे अमृत-सम्पन्ने, शत-मूले शतांकुरे ! क्षमस्वोत्पाटनं देवि ! महद्दोषोऽत्र विद्यते।।” पूजन-सामग्री एकत्र करने के बाद स्वच्छ होकर भगवान् श्रीगणेश का यथा-शक्ति पूजन करे। पूजन के बाद निम्न-लिखित मन्त्र का जप करे। यथा-… Read More भगवान् श्री गणेश की साधनाएँ भगवान् श्री गणेश की साधनाएँ (१) श्री सिद्ध-विनायक-व्रत ‘श्री सिद्ध-विनायक-व्रत’ भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को करे। पहले निम्न-लिखित मन्त्र का १००० या अधिक ‘जप’ करे। यथा- “सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवन्ता हतः। सुकुमार कामरोदीस्तव ह्येषः स्यमन्तकः।।” फिर श्री गणेश जी का षोडशोपचार पूजन कर, २१ मोदकों का नैवेद्य रखे। तब २१ दूर्वा लेकर उन्हें गन्ध-युक्त करे और… Read More श्रीऋद्धि-सिद्धि सहित श्रीगणेश-साधना श्रीऋद्धि-सिद्धि सहित श्रीगणेश-साधना ‘कलौ चण्डी-विनायकौ’– कलियुग में ‘चण्डी’ और ‘गणेश’ की साधना ही श्रेयस्कर है। सच पूछा जाए, तो विघ्न-विनाशक गणेश और सर्व-शक्ति-रुपा माँ भगवती चण्डी के बिना कोई उपासना पूर्ण हो ही नहीं सकती। ‘भगवान् गणेश’ सभी साधनाओं के मूल हैं, तो ‘चण्डी
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  4. Category: कवच-स्तोत्र जययुक्त श्रीदेवी – अष्टोत्तर-सहस्रनाम श्रीदुर्गा कवचम् श्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्रम् दुर्गास्तुतिः कामेश्वरीस्तुतिः दुर्गासहस्रनाम स्तोत्रम् / नामावली खंजनदर्शन तथा शुभाशुभ फलानि शमी पूजन प्रयोगः नवदुर्गा प्रार्थना व ध्यान श्रीराम कृत कात्यायनी स्तुति पाण्डवाः कृत कात्यायनी स्तुति शैलपुत्री सहस्रनाम हिमालयराज कृत शैलपुत्री स्तुति दुर्गम संकटनाशन स्तोत्र ब्रह्माण्डमोहनाख्यं दुर्गाकवचम् ब्रह्माण्डविजय दुर्गा कवचम् वंशवृद्धिकरं दुर्गाकवचम् अथवा वंशकवचम् दुर्गाभुवनवर्णनम् वेदोक्त पितृसूक्त पुराणोक्त पितृस्तोत्र गौरिकृतम् हेरम्बस्तोत्रं एकाक्षर गणपति कवचम् अथवा त्रैलोक्यमोहन कवचम् शत्रुसंहारकमेकदन्तस्तोत्रम् विघ्न-निवारकं सिद्धिविनायक स्तोत्रम् उच्छिष्ट गणेश स्तवराजः श्रीउच्छिष्ट गणपति सहस्रनाम स्तोत्रम् श्रीराधास्तोत्रम् गोपालस्तोत्रं अथवा गोपालस्तवराजस्तोत्रम् श्रीकृष्ण सहस्रनाम स्तोत्र श्रीकृष्णस्तोत्रम् चतुर्विंशति-मूर्तिस्तोत्र एवं द्वादशाक्षर स्तोत्र नागपत्नीकृत कृष्ण स्तुतिः गर्भगत कृष्णस्तुतिः श्रीकृष्ण कवचम् श्रीकृष्ण कवचम् – ब्रह्माणं प्रति योगनिद्रयोपदिष्टं मालावतीकृतं महापुरुष स्तोत्रम् श्रीकृष्णसहस्रनामम् – गर्गसंहितान्तर्गतं त्रैलोक्यविजयं श्रीकृष्ण कवचम् कृष्णप्रेमामृतं स्तवं अथवा श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् शिव स्तुतिः श्रीमहाशास्त्रनुग्रहकवचम् स्तोत्रम् श्रीमहाकाल सहस्रनाम स्तोत्रम् महाकाल स्तुतिः श्रीमहाकाल ककाराद्यष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम् श्री महाकाल स्तोत्रम् श्रीमहाकाल स्तोत्रम् शिवाष्टोत्तरनामशतक स्तोत्रम् – स्कन्दपुराण शिवाष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रम् मृत्युञ्जय सहस्रनाम स्तोत्रम् महामृत्युञ्जय कवचम् शिव पञ्चावरण देवानां स्तुतिः श्रीशिवसहस्रनामस्तोत्रम् – महाभारतान्तर्गतम् शिव ताण्डव स्तोत्रम् द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग स्तोत्रम् शिव मानस पूजा श्रीशिवापराधक्षमापणस्तोत्रम् अथवा शिवापराधभञ्जनस्तोत्रम् शिवपंचाक्षरस्तोत्र श्री शिवमहिम्नस्तोत्रम् श्रीशिव प्रातः स्मरण स्तोत्रम् भगवान् शिव को नमस्कार अष्टमूर्तिस्तव अथवा मूर्त्यष्टकस्तोत्र गुह्यकाली शान्ति स्तोत्रम् विश्वमङ्गल गुह्यकाली कवचम् कामाख्या कवचम् जगन्मङ्ल काली-कवचम् – हिन्दी भावार्थ के साथ कालीरहस्ये कालीस्तोत्रम् जगन्मङ्गल काली कवचम् अथवा श्यामा कवचम् गुह्यकाल्याः क्रमस्तवो कामकलाकाल्याः रावणकृतं भुजङ्गप्रयातस्तोत्रम् कामकलाकाली संजीवन गद्यस्तोत्रम् श्रीकामकलाकालीसहस्रनामस्तोत्रम् “ह्रीं श्रीराधायै स्वाहा” श्रीराधा-उपासना – देवी भागवत अनुसार गुह्यकाली संजीवन स्तोत्रम् गुह्यकाली सहस्रनाम स्तोत्रम् गोपिका विरह गीत श्रीयुगलकिशोराष्टक राधामाधव प्रातः स्तवराज श्रीराधा-माधवप्रेम की प्राप्ति के लिये श्रीकृष्ण स्तोत्रम् – भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा तथा दिव्य प्रेम की प्राप्ति के लिये श्रीराधा-षडक्षरी महाविद्या की उपासना पाण्डवकृत कात्यायनी स्तुति श्रीराधिका सहस्रनाम स्तोत्रम् (वासुदेवरहस्ये राधातन्त्रे ) श्रीराधिकासहस्रनामस्तोत्रम् श्रीराधा अष्टादशशतीनाम स्तोत्र भुवनेश्वरीकृत राधास्तुतिः त्रिपुरसुन्दर्यादूती वशिनीकृत राधा स्तुतिः श्रीराधा कृपाकटाक्ष स्तोत्र श्रीराधिका त्रैलोक्यमङ्गल कवचम् सर्वरक्षाकर श्रीराधाकवचम् श्रीराधा भक्तिज्ञान कवचम् श्रीराधाकवचस्तोत्रम् ब्रह्मयामले सरस्वतीस्तोत्रं अथवा वाणीस्तवनं याज्ञवल्क्योक्त वृन्दावन-महिमा युगलसरकार-प्रार्थना ब्रह्मणा कृतं श्रीराधास्तोत्रम् श्रीराधास्तोत्रं उद्धवकृतम् श्रीराधास्तवनम् गणेशकृतम् श्रीनारायणकृतं राधाषोडशनामवर्णनम् श्रीराधाप्रार्थना उद्धवकृता श्रीराधास्तोत्रं ब्रह्मेशशेषादिकृतम् श्रीराधिका जगन्मङ्गलकवचम् श्रीकृष्णकृतं श्रीराधास्तोत्रम् श्रीराधायाः परिहार स्तोत्रम् श्रीराधाजी का ‘आनन्दचन्द्रिका’ नामक स्तोत्र श्रीराधा अष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् श्रीकृष्णाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् श्रीजानकीजीवनाष्टकम् श्री नृसिंह कवच Read more at: https://vadicjagat.co.in/sitemap/ ADD
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  5. Gopal Kavach ADD
    गोपाल कवच
    भगवान श्री कृष्ण जो कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड के आध्यात्मिक गुरु माने जाते हैं। वही इस सृष्टि का पालन और रक्षा करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के स्मरण मात्र से ही मनुष्य अपने जीवन की परेशानियों से मुक्ति पा सकता है। भगवान श्रीकृष्ण के इस दिव्य एवं परम अद्भुत गोपाल कवच (Gopal Kavach) स्तोत्र का को जो भी व्यक्ति प्रतिदिन ध्यान लगाकर पाठ करता है उसकी शत्रुजनित विपत्तियाँ शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं और वो हर स्थान पर विजयी होता है। इस कवच पाठ के बिना भगवान गोपाल की पूजा करने से कोई फल नही मिलता।

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    Gopal Sahastranaam: रोग, कर्ज, चिंता और परेशानियों से मुक्ति पाने के लिये करें गोपाल सहस्त्रनाम का पाठ

    When & How To Recite Gopal Kavacham?
    कब और कैसे करें गोपाल कवचम् का पाठ?
    प्रतिदिन गोपाल कवच के तीन पाठ करने चाहिये। यदि संभव ना हो तो प्रात:काल नियमित रूप से गोपाल कवच (Gopal Kavach) का पाठ करें। इस कवच पाठ को करने से एक अदृश्य सुरक्षा कवच साधक को सभी संकटो से सुरक्षित करता है। इस स्तोत्र का पाठ करने की विधि इस प्रकार से है:-

    प्रात:काल स्नानादि नित्य क्रिया से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
    पूजा स्थान पर बैठकर भगवान कृष्ण की ध्यान करें और पूर्ण श्रद्धा-भक्ति के साथ एकाग्रचित्त होकर गोपाल कवचम् (Gopal Kavacham) का शुद्ध उच्चारण के साथ पाठ करें।
    फिर उनकी गोपाल रूप की मूर्ति या चित्र की पूजा करें।
    धूप – दीप जलाकर भगवान को माखन-मिश्री का भोग लगायें।
    भगवान की आरती करें। फिर उनसे अपनी गलतियों के लिये क्षमा माँगें और अपना मनोरथ निवेदन करें। भगवान श्री कृष्ण आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण करेंगे ऐसा मन में विश्वास रखें।
    Benefits of Reciting Gopal Kavach
    गोपाल कवचम पाठ के लाभ
    गोपाल कवच (Gopal Kavach) एक बहुत ही अद्भुत और प्रभावशाली कवच स्तोत्र है। इस कवच स्तोत्र से सुरक्षित मनुष्य

    सभी प्रकार के खतरों से सुरक्षित होता है।
    हर क्षेत्र में विजय प्राप्त होती है।
    संतानहीन को संतान की प्राप्ति होती है।
    रोगों से छुटकारा मिलता है।
    जादू-टोनों का प्रभाव समाप्त होता है।
    धन लाभ के अवसर प्रस्तुत होते हैं।
    ग्रहों की बुरी स्थिति और उनके दुष्प्रभावों से छुटकारा मिलता है।
    नकारत्मक शक्तियों का प्रभाव हो जाता है।
    सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
    मन विचलित नही होता और विचारों में दृढ़ता आती है।
    शत्रुओं द्वारा उत्पन्न की गई परेशानियों से मुक्ति मिलती है। शत्रु का पराजित होता है।
    दुख और पीड़ा का नाश होता है।
    साधक जीवन के सुखों को भोगकर अंत समय में विष्णु लोक को प्राप्त करता है।
    Shri Gopal Kavach Lyrics
    श्री गोपाल कवच
    श्रीगणेशाय नमः ॥

    श्रीमहादेव उवाच ॥

    अथ वक्ष्यामि कवचं गोपालस्य जगद्गुरोः ।
    यस्य स्मरणमात्रेण जीवनमुक्तो भवेन्नरः ॥ १ ॥

    श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि सावधानावधारय ।
    नारदोऽस्य ऋषिर्देवि छंदोऽनुष्टुबुदाह्रतम् ॥ २ ॥


    देवता बालकृष्णश्र्च चतुर्वर्गप्रदायकः ।
    शिरो मे बालकृष्णश्र्च पातु नित्यं मम श्रुती ॥ ३ ॥

    नारायणः पातु कंठं गोपीवन्द्यः कपोलकम् ।
    नासिके मधुहा पातु चक्षुषी नंदनंदनः ॥ ४ ॥

    जनार्दनः पातु दंतानधरं माधवस्तथा ।
    ऊर्ध्वोष्ठं पातु वाराहश्र्चिबुकं केशिसूदनः ॥ ५ ॥

    ह्रदयं गोपिकानाथो नाभिं सेतुप्रदः सदा ।
    हस्तौ गोवर्धनधरः पादौ पीतांबरोऽवतु ॥ ६ ॥

    करांगुलीः श्रीधरो मे पादांगुल्यः कृपामयः ।
    लिंगं पातु गदापाणिर्बालक्रीडामनोरमः ॥ ७ ॥

    जग्गन्नाथः पातु पूर्वं श्रीरामोऽवतु पश्र्चिमम् ।
    उत्तरं कैटभारिश्र्च दक्षिणं हनुमत्प्रभुः ॥ ८ ॥

    आग्नेयां पातु गोविंदो नैर्ऋत्यां पातु केशवः ।
    वायव्यां पातु दैत्यारिरैशान्यां गोपनंदनः ॥ ९ ॥

    ऊर्ध्वं पातु प्रलंबारिरधः कैटभमर्दनः ।
    शयानं पातु पूतात्मा गतौ पातु श्रियःपतिः ॥ १० ॥


    शेषः पातु निरालम्बे जाग्रद्भावे ह्यपांपतिः ।
    भोजने केशिहा पातु कृष्णः सर्वांगसंधिषु ॥ ११ ॥

    गणनासु निशानाथो दिवानाथो दिनक्षये ।
    इति ते कथितं दिव्यं कवचं परमाद्भुतम् ॥ १२ ॥

    यः पठेन्नित्यमेवेदं कवचं प्रयतो नरः ।
    तस्याशु विपदो देवि नश्यंति रिपुसंधतः ॥ १३ ।

    अंते गोपालचरणं प्राप्नोति परमेश्र्वरि ।
    त्रिसंध्यमेकसंध्यं वा यः पठेच्छृणुयादपि ॥ १४ ॥

    तं सर्वदा रमानाथः परिपाति चतुर्भुजः ।
    अज्ञात्वा कवचं देवि गोपालं पूजयेद्यदि ॥ १५ ॥

    सर्व तस्य वृथा देवि जपहोमार्चनादिकम् ।
    सशस्रघातं संप्राप्य मृत्युमेति न संशयः ॥ १६ ॥

    ॥ इति नारदपंचरात्रे ज्ञानामृतसारे चतुर्थरात्रे श्रीगोपालकवचं संपूर्णम् ॥
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  6. श्री वाराही कवचम् श्री वाराही कवचम् विनियोगः- ॐ अस्य श्रीवाराही-कवच-मन्त्रस्य श्रीत्रिलोचन-ऋषिः, अनुष्टुप्-छन्दः, श्रीआदि-वाराही-देवता, ग्लैं वीजं, स्वाहा शक्तिः, ऐं कीलकं, अभीष्ट-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- श्रीत्रिलोचन-ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप्-छन्दसे नमः मुखे, श्रीआदि-वाराही-देवतायै नमः हृदि, ग्लैं वीजाय नमः गुह्ये, स्वाहा शक्तये नमः नाभौ, ऐं कीलकाय नमः पादयो, अभीष्ट-सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।… Read More श्री वाराही मन्त्र प्रयोग श्री वाराही मन्त्र प्रयोग विनियोगः- ॐ अस्य श्रीवाराही मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, सकल-वशीकरणार्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- ब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, सकल-वशीकरणार्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।… Read More सर्प-भय-नाशक मनसा-स्तोत्र सर्प-भय-नाशक मनसा-स्तोत्र ध्यानः- चारु-चम्पक-वर्णाभां, सर्वांग-सु-मनोहराम् । नागेन्द्र-वाहिनीं देवीं, सर्व-विद्या-विशारदाम् ।। ।। मूल-स्तोत्र ।। ।। श्रीनारायण उवाच ।।… Read More सर्प-भय-विनाशक नागिनी द्वादश नाम स्तोत्र सर्प-भय-विनाशक नागिनी द्वादश नाम स्तोत्र जरत्कारुर्जगद्-गौरी, मनसा सिद्ध-योगिनी । वैष्णवी नाग-भगिनी, शैवी नागेश्वरी तथा ।। जरत्कारु-प्रियाऽऽस्तोक-माता विष-हरेति च । महा-ज्ञान-युता चैव, सा देवी विश्व-पूजिता ।। द्वादशैतानि नामानि, पूजा-काले तु यः पठेत् । तस्य नाग-भयं नास्ति, सर्वत्र विजयी भवेत् ।।… Read More नव-दुर्गा-स्तुति नव-दुर्गा-स्तुति अमर-पति-मुकुट-चुम्बित-चरणाम्बुज-सकल-भुवन-सुख-जननी। जयति जगदीश-वन्दिता सकलामल-निष्कला दुर्गा।।१ विकृत-नख-दशन-भूषण-रुधिर-वसाच्क्षुरित-खड्ग-कृत-हस्ता। जयति नर-मुण्ड-मण्डित-पिशित-सुरासव-रता चण्डी।।२… Read More श्रीपर-देवी-सूक्तम् श्रीपर-देवी-सूक्तम् विनियोगः- ॐ अस्य श्रीपर-देवी-सूक्त-माला-मन्त्रस्य मार्कण्डेय-मेधा-ऋषी । गायत्र्यादि-नाना-विधानि छन्दांसि । त्रि-शक्ति-रुपिणी चण्डिका देवता । ऐं वीजं । ह्रीं शक्तिः । क्लीं कीलकं । मम-चिन्तित-सकल-मनोरथ-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- मार्कण्डेय-मेधा-ऋषिभ्यां नमः शिरसि । गायत्र्यादि-नाना-विधानि छन्दोभ्यो नमः मुखे । त्रि-शक्ति-रुपिणी चण्डिका देवतायै नमः हृदि । ऐं वीजाय नमः गुह्ये । ह्रीं शक्तये नमः पादयोः । क्लीं कीलकाय… Read More श्रीदुर्गा-कर्पूर-स्तवम् श्रीदुर्गा-कर्पूर-स्तवम् ‘ऐं’ जपन्ति तव देवि ! ये मनुं भक्ति-नम्र-मनुजा विचक्षणाः। गद्य-पद्य-प्रभवः सुविलाशो भासते हि वचसा खलु तेषाम्।।१ ‘ह्रीं-ह्रीमि’त्येव मन्त्रं जपति यदि जनो भक्ति-नम्रो नितान्तम्, तद्-गेहे नैव लक्ष्मीस्त्यजति गिरि-सुते ! ते प्रसादात् कदापि। दासो-भूताश्च सर्वे भगवति ! मनुजाऽधीश्वरास्तस्य को वा, वक्तुं भूयात् समर्थः तव शिव-दयिते ! ह्रीं-मनोर्वै प्रभावम्।।२… Read More भगवती मंगल-चण्डिका भगवती मंगल-चण्डिका ‘चण्डी’ शब्द का प्रयोग ‘दक्षा’ (चतुरा) के अर्थ में होता है और ‘मंगल’ शब्द कल्याण का वाचक है। जो मंगल-कल्याण करने में दक्ष हो, वही “मंगल-चण्डिका” कही जाती है। ‘दुर्गा’ के अर्थ में भी चण्डी शब्द का प्रयोग होता है और मंगल शब्द भूमि-पुत्र मंगल के अर्थ में भी आता है। अतः जो… Read More श्रीदुर्गा-स्तवन श्री अर्जुन-कृत ‘श्रीदुर्गा-स्तवन’ ।। संजय उवाच ।। धार्तराष्ट्र-बलं दृष्ट्वा, युद्धाय समुपस्थितम । अर्जुनस्य हितार्थाय, कृष्णो वचनमब्रवीत् ।। 1 ।। ।। श्रीभगवानुवाच ।। शुचिर्भूत्वा महा-बाहि, संग्रामाभिमुखे स्थितः । पराजयाय शत्रूणां, दुर्गा-स्तोत्रमुदीरय ।। 2 ।।… Read More श्री दुर्गा कवचम् (रुद्रयामलोक्त) श्री दुर्गा कवचम् (रुद्रयामलोक्त) ।।श्री भैरव उवाच।। अधुना देवि वक्ष्येऽहं कवचं मन्त्रगर्भकम् । दुर्गायाः सारसर्वस्वं कवचेश्वरसञ्ज्ञकम् ।।१ परमार्थप्रदं नित्यं महापातकनाशनम् । योगिप्रियं योगीगम्यं देवानामपि दुर्लभम् ।।२ विना दानेन मन्त्रस्य सिद्धिर्देवि कलौ भवेत् । धारणादस्य देवेशि शिवस्त्रैलोक्यनायकः ।।३… Read More ADDhttps://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/6/6c/Akkalot_maharaj.png
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  7. शरभहृदय स्तोत्रम् ॥ शरभहृदय स्तोत्रम् ॥ किसी भी देवता का हृदय मित्र के समान कार्य करता है, शतनाम अंगरक्षक के समान एवं सहस्रनाम सेना के समान रखा करता है अत: इनका अलग-अलग महत्व है । भूमिका के अनुसार समुन्द्र मंथन के समय विष्णु ने शरभ हृदय की २१ आवृति ३ मास तक की तब शरभराज प्रकट ने… Read More प्रत्यंगिरा स्तोत्रम् ॥ प्रत्यंगिरा स्तोत्रम् ॥ ॥ ॐ नमः श्री कालसंकर्षिण्यै ॥ ॥ भगवान शिव उवाच ॥ एँ ख्फ्रें नमोऽस्तु ते महामाये देहातीते निरञ्जने । प्रत्यंगिरा जगद्धात्रि राजलक्ष्मी नमोऽस्तु ते ॥ वर्ण देहा महागौरी साधकेच्छा प्रवर्तते । पददेहामहास्फार परासिद्धि समुत्थिता ॥ तत्त्वदेहास्थिता देवि साधकान् ग्रहा स्मृता । महाकुण्डलिनी प्रोक्ता सहस्रदलस्य च भेदिनी ॥… Read More कालीदास कृत प्रत्यङ्गिरा मालामन्त्र ॥ कालीदास कृत प्रत्यङ्गिरा मालामन्त्र ॥ Pratyangira Mala Mantra ॥ ॐ नमः शिवाये ॥ ॥ श्री भैरव उवाच ॥ ” निवसति करवीरे सर्वदाया श्मशाने विनत-जन हिताय प्रेत-रूढे महेशो हि मकर हिम-शुभ्रां पञ्च-वक्त्राम्-माद्यांदिशतु-दश-भुजाया सा श्रियं सिद्धि-लक्ष्मीः ॥ ऐं ख्फ्रे जय जय जगदम्ब प्रणत-हरिहर हिरण्य-गर्भ ।… Read More ॥ गायत्री स्तवराजः ॥ ॥ गायत्री स्तवराजः ॥ इस स्तव में श्लोक ४, ५, ८, १०, ११, २५, २६ में अन्य मंत्रों के प्रयोग हैं। विनियोगः- “ॐ अस्य श्री गायत्री स्तवराज मन्त्रस्य श्रीविश्वामित्रः ऋषिः सकल जननी चतुष्पदा गायत्री परमात्मा देवता। सर्वोत्कृष्टं परम धाम तत्-सवितुर्वरेण्यं बीजं भर्गो देवस्य धीमहि शक्तिः। धियो यो नः प्रचोदयात् कीलकं। ॐ भूः ॐ भुव ॐ… Read More श्रीगायत्री सहस्रनामस्तोत्रम् एवं नामावली श्रीमद्देवी भागवतांतर्गत ॥ श्रीगायत्रीसहस्रनामस्तोत्रम् श्रीमद्देवी भागवतांतर्गत ॥ विनियोगः- ॐ अस्य श्रीगायत्री अष्टोत्तर सहस्रनाम स्तोत्रस्य श्री ब्रह्मा ऋषिः अनुष्टुप् छन्दः श्रीदेवी गायत्री देवता हलो बीजानि स्वराः शक्त्यः सर्वाभीष्ट सिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः । ऋष्यादिन्यासः- श्रीब्रह्मा ऋषये नमः शिरसि । अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे । श्रीदेवी गायत्र्यै नमः हृदि । हल्भ्यो बीजेभ्यो नमः गुह्ये । स्वरेभ्यः शक्तिभ्यः नमः पादयोः ।… Read More ॥ गायत्र्यथर्वशीर्षम् ॥ ॥ गायत्र्यथर्वशीर्षम् ॥ ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ नमस्कृत्य भगवान् याज्ञवल्क्यः स्वयं परिपृच्छति- त्वं ब्रूहि भगवन् ! गायत्र्या उत्पत्तिं श्रोतुमिच्छामि ॥ १ ॥ ब्रह्मोवाच – प्रणवेन व्याहृतयः प्रवर्तन्ते । तमसस्तु परं ज्योतिः कः पुरुषः स्वयम्भूर्विष्णुरिति हताः स्वाङ्गुल्याः मथयेत् पाठान्तर – … Read More ॥ गायत्रीहृदयम् ॥ ॥ गायत्रीहृदयम् ॥ ॥ अथ श्रीमद्देवीभागवते महापुराणे गायत्रीहृदयम् ॥ ॥ नारद उवाच ॥ भगवन् देवदेवेश भूतभव्य जगत्प्रभो । कवचं च श्रृतं दिव्यं गायत्रीमन्त्रविग्रहम् ॥ १ ॥ अधुना श्रोतुमिच्छामि गायत्रीहृदयं परम् । यद्धारणाद्भवेत्पुण्यं गायत्रीजपतोऽखिलम् ॥ २ ॥ ॥ श्रीनारायण उवाच ॥ देव्याश्च हृदयं प्रोक्तं नारदाथर्वणे स्फुटम् । तदेवाहं प्रवक्ष्यामि रहस्यातिरहस्यकम् ॥ ३ ॥ विराड्रूपां महादेवीं गायत्रीं… Read More ॥ गायत्री पञ्जर स्तोत्रम् ॥ ॥ गायत्री पञ्जर स्तोत्रम् ॥ गायत्री पञ्जर स्तोत्र (Gayatri Panjara Stotram) को नियमित पाठ करने से व्यक्ति की सभी मनोकामनाए पूर्ण होती है गायत्री पञ्जर स्तोत्र पढ़ने से साधना में सफ़लता, अपने शरीर की रक्षा कवच का कार्य करता हैं ! पीपल की छाया (पीपल मूल) में जप करने से राजा का वशीकरण, बिल्व मूल… Read More कालभैरव ( कालभैरवाष्टमी ) कालभैरव ( कालभैरवाष्टमी ) ।। ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नम:।। भगवान शंकर के अवतारों में भैरव का अपना एक विशिष्ट महत्व है। तांत्रिक पद्धति में भैरव शब्द की निरूक्ति उनका विराट रूप प्रतिबिम्बित करती हैं। वामकेश्वर तंत्र की योगिनी-हदय-दीपिका टीका में अमृतानंद नाथ कहते हैं- ‘विश्वस्य भरणाद् रमणाद् वमनात्‌… Read More मंत्रात्मक गायत्री कवच ॥ मंत्रात्मक गायत्री कवच ॥ देव देव महादेव! संसारार्णव तारक ! गायत्री कवचं देव ! कृपया कथय प्रभो । ॥ महादेव उवाच ॥ मूलाधारेषु या नित्या कुण्डली तत्त्व-रूपिणी । सूक्ष्माति सूक्ष्मा परमा विसतन्तु-स्वरूपिणी ॥ विद्युत-पुञ्ज-प्रतीकाशा कुण्डलाकृति-रूपिणी । परम-ब्रह्म गृहिणी पञ्चाशद् वर्ण-रूपिणी ॥ शिवस्य नर्तकी नित्या परम् ब्रह्म-पूजिता । ब्रह्मणः सैव गायत्री सच्चिदानन्दरूपिणी ॥ तद् भ्रमावर्त्तवातोऽयं… Read More ttps://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/
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  8. श्रीकामकलाकालीसहस्रनामस्तोत्रम् ॥ श्रीकामकलाकालीसहस्रनामस्तोत्रम् ॥ ॥ देव्युवाच ॥ त्वत्तः श्रुतं मया नाथ देव देव जगत्पते । देव्याः कामकलाकाल्या विधानं सिद्धिदायकम् ॥ १ ॥ त्रैलोक्यविजयस्यापि विशेषेण श्रुतो मया । तत्प्रसङ्गेन चान्यासां मन्त्रध्याने तथा श्रुते ॥ २ ॥ इदानीं जायते नाथ शुश्रुषा मम भूयसी । नाम्नां सहस्रे त्रिविधमहापापौघहारिणि ॥ ३ ॥ श्रुतेन येन देवेश धन्या स्यां भाग्यवत्यपि ।… Read More “ह्रीं श्रीराधायै स्वाहा” श्रीराधा-उपासना – देवी भागवत अनुसार ॥ ह्रीं श्रीराधायै स्वाहा ॥ श्रीराधा-उपासना – देवी भागवत अनुसार भगवान् नारायण कहते हैं — नारद ! सुनो, यह वेदवर्णित रहस्य तुम्हें बताता हूँ । यह सर्वोत्तम एवं परात्पर साररहस्य जिस किसी के सम्मुख नहीं कहना चाहिये । इस रहस्य को सुनकर दूसरों से कहना उचित नहीं है; क्योंकि यह अत्यन्त गुह्य रहस्य है ।… Read More गुह्यकाली संजीवन स्तोत्रम् ॥ अथ गुह्यकाली संजीवन स्तोत्रम् ॥ इस स्तोत्र को पढ़े बिना गुह्यकाली सहस्रनाम पठन का पूरा फल नहीं मिलता । अत: इस स्तोत्र का पाठ अवश्य करें । ॥ महाकाल उवाच ॥ इदं स्तोत्रं पुरा देव्या त्रिपुरघ्नाय कीर्तितम् । त्रिपुरघ्नोऽपि मां प्रादादुपदिश्य मनुं प्रिये ॥ १ ॥ गद्याकारं च स विभुः स्तोत्रं तस्यै चकार ह… Read More गुह्यकाली सहस्रनाम स्तोत्रम् ॥ अथ गुह्यकाली सहस्रनाम स्तोत्रम् ॥ ॥ पूर्वपीठिका ॥ ॥ देव्युवाच ॥ यदुक्तं भवता पूर्वं प्राणेश करुणावशात् ॥ १ ॥ नाम्नां सहस्रं देव्यास्तु तदिदानीं वदप्रभो । ॥ श्री महाकालोवाच ॥ अतिप्रीतोऽस्मि देवेशि तवाहं वचसामुना ॥ २ ॥ सहस्रनामस्तोत्रं यत् सर्वेषामुत्तमोत्तमम् । सुगोपितं यद्यपि स्यात् कथयिष्ये तथापि ते ॥ ३ ॥ देव्याः सहस्रनामाख्यं स्तोत्रं पापौघमर्दनम् ।… Read More गोपिका विरह गीत ॥ गोपिका विरह गीत ॥ एहि मुरारे कुजविहारे एहि प्रणतजनबन्धो । हे माधव मधुमथन वरेण्य केशव करुणासिन्धो । (ध्रुवपदम्) रासनिकुञ्जे गुञ्जति नियतं भ्रमरशतं किल कान्त । एहि निभृतपथपान्थ । त्वामिह याचे दर्शनदानं हे मधुसूदन शान्त ॥ १ ॥… Read More श्रीयुगलकिशोराष्टक ॥ श्रीयुगलकिशोराष्टक ॥ श्रीरूपगोस्वामीजी द्वारा रचित श्रीयुगलकिशोराष्टक श्री रूप गोस्वामी (१४९३ – १५६४), वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु द्वारा भेजे गए छः षण्गोस्वामी में से एक थे। वे कवि, गुरु और दार्शनिक थे। वे सनातन गोस्वामी के भाई थे। इनका जन्म १४९३ ई (तदनुसार १४१५ शक.सं.) को हुआ था। इन्होंने २२ वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम… Read More राधामाधव प्रातः स्तवराज ॥ राधामाधव प्रातः स्तवराज ॥ प्रातः स्मरामि युगकेलिरसाभिषिक्तं वृन्दावनं सुरमणीयमुदारवृक्षम् । सौरीप्रवाहवृतमात्मगुणप्रकाशं ADD ttps://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/
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  9. श्री विश्वावसु गन्धर्व-राज कवच स्तोत्रम् श्री विश्वावसु गन्धर्व-राज कवच स्तोत्रम् प्रणाम-मन्त्रः- ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीगणेशाय नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीसप्त-श्रृंग-निवासिन्यै नमः ।। ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।। ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।। ॐ श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजाय कन्याभिः परिवारिताय नमः ।। ।। पूर्व-पीठिका ।। ॐ नमस्कृत्य महा-देवं, सर्वज्ञं… Read More गन्धर्व-राज विश्वावसु गन्धर्व-राज विश्वावसु गन्धर्व-राज विश्वावसु की पूजा पद्धति गन्धर्व-राज विश्वावसु की उपासना मुख्यतः ‘वशीकरण’ और ‘विवाह’ के लिये की जाती है। स्त्री-वशीकरण और विवाह के लिये इनके प्रयोग अमोघ है। मन्त्र- “ॐ विश्वावसु-गन्धर्व-राज-कन्या-सहस्त्रमावृत, ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां प्रयच्छ स्वाहा।” विनियोग- ॐ अस्य श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राज-मन्त्रस्य श्रीरुद्र-ऋषिः, अनुष्टुप छन्दः, श्रीविश्वावसु-गन्धर्व-राजः देवता, ह्रीं बीजं, स्वाहा शक्तिः, विश्वावसु-गन्धर्व-राज प्रीति-पूर्वक ममाभिलाषितां अमुकीं कन्यां… Read More श्रीबटुक-भैरव-साधना श्रीबटुक-भैरव-साधना विनियोगः- ॐ अस्य श्रीबटुक-भैरव-त्रिंशदक्षर-मन्त्रस्य श्रीकालाग्नि-रुद्र ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीआपदुद्धारक देव बटुकेश्वर देवता, ‘ह्रीं’ बीजं, भैरवी-वल्लभ शक्तिः, दण्ड-पाणि कीलकं, मम समस्त-शत्रु-दमने, समस्तापन्निवारणे, सर्वाभीष्ट-प्रदाने वा जपे विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- श्रीकालाग्नि-रुद्र ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे, श्रीआपदुद्धारक देव बटुकेश्वर देवतायै नमः हृदि, ‘ह्रीं’ बीजाय नमः गुह्ये, भैरवी-वल्लभ शक्तये नमः नाभौ, दण्ड-पाणि कीलकाय नमः पादयो, मम… Read More आपदुद्धारक श्रीबटुक-भैरव-अष्टोत्तर-शत-नामावली के प्रयोग आपदुद्धारक श्रीबटुक-भैरव-अष्टोत्तर-शत-नामावली के प्रयोग “भैरव-तन्त्र” के अनुसार आपदुद्धारक श्रीबटुक-भैरव-अष्टोत्तर-शत-नामावली के कुछ प्रयोग इस प्रकार हैं – १॰ रात्रि में तीन मास तक प्रति-दिन ३८ पाठ करने से (कुल ११४० पाठ) विद्या और धन की प्राप्ति होती है। २॰ तीन मास तक रात्रि में नौ अथवा बारह पाठ प्रति-दिन करने से ‘इष्ट-सिद्धि’ प्राप्त होती है ।… Read More श्रीबटुक-अपराध-क्षमापन-स्तोत्र श्रीबटुक-अपराध-क्षमापन-स्तोत्र ॐ गुरोः सेवां त्यक्त्वा गुरुवचन-शक्तोपि न भवे भवत्पूजा-ध्यानाज्जप 1 हवन-यागा 2 द्विरहितः । त्वदर्च-निर्माणे क्वचिदपि न यत्नं व कृतवान् जगज्जाल-ग्रसतो झटिति कुरु हार्दं मयि विभो ।।१ प्रभो ! दुर्गासूनो ! तव शरणतां सोऽधिगतवान् कृपालो ! दुःखार्तः कमपि भवदन्यं प्रकथये । सुहृत् 3 ! सम्पत्तेऽहं सरल 4-विरलः 5 साधकजन स्त्वदन्यः 6 कस्त्राता भव-दहन-दाहं शमयति ।।२… Read More गो-मय गणपति उपासना गो-मय गणपति उपासना ‘गो-मय गणपति उपासना’– २१ दिनों की अति-प्रभावी उपासना है। यह उपासना किसी भी मास की शुक्ल चतुर्थी या शुभ दिन से प्रारम्भ की जा सकती है। संकल्पः- ॐ तत्सत् अद्यैतस्य ब्रह्मणोऽह्यि द्वितीय-प्रहरार्द्धे श्वेत-वराह-कल्पे जम्बू-द्वीपे भरत-खण्डे आर्यावर्त्त-देशे अमुक पुण्य-क्षेत्रे कलि-युगे कलि-प्रथम-चरणे ‘अमुक’-नाम संवत्सरे भाद्रपद-मासे शुक्ल-पक्षे ADD
    2025 M05 29, Thu 17:29:02 GMT+5:30 ttps://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ ttps://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ ttps://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/ https://vadicjagat.co.in/sitemap/
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Ameya jaywant narvekar